चिन्मयी

01-09-2024

चिन्मयी

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“चीनी, ए चीनी।” 

पुकारते ही छह माह की बच्ची अपनी छोटी नीली गोल आँखें घुमाकर मुस्कुराई। 

“कितनी प्यारी है चीनी!” मैंने दुलराया। बातचीत में अपना नाम सुनते ही किलकारी भरकर हाथ-पैर चलाने लगी वह। बरबस गोद में उसे उठाए सँभलकर बैठी मैं। गोल-मटोल, लाल होंठ और छोटी आँखों वाली ख़ूब गोरी बच्ची में मेरा मन अटका हुआ था। मैं फिर बोली, “कितनी प्यारी लगती है न।” साथ बैठी मेरी बहन, जो मुग्ध होकर उसे निहार रही थी, सिर हिलाकर मुस्कुराई। 

बासी भात में नमक मिलाकर अपने छोटे-छोटे हाथों से एल्युमिनियम की थाली में बहनों के लिए कूरी लगाती बीना मुँह ऐंठती बोल पड़ी, “झूठ काहे बोलती हो दीदी . . . यह किसी को मीठी नहीं लगती है।” अचानक उसके टोक देने से मेरा ध्यान उसकी तरफ़ गया। 

“क्यों, मीठी क्यों नहीं लगती है? इतनी प्यारी बच्ची . . .” मेरी बात काटती और जैसे मुझे झमारती हुई झन्न से बोल पड़ी वह, “आपको लगती है तो ले जाइए न अपने घर . . . यहाँ तो सबकी छाती पर भार है . . . यह न होती तो मेरी माय को इतनी लताड़ क्यों पड़ती रोज़-रोज़ . . . प्याऽरीऽ लगती है ऽ . . .” ऊब, खीझ और वितृष्णा से बोझिल आवाज़ में बोलती बीना ने सामने के ओसारे पर से आती अपनी चचेरी बहन मीना को कनखियों से देखा और चुप हो गयी। बीना को ग़ौर से देखती मेरी नज़र मीना पर ठहर गयी। उसका चेहरा सख़्त हो रहा था। दो आठ-नौ साल की बच्चियों के चेहरे पर बनती-बिगड़ती मुद्राओं से चकित थी मैं। मुझे देखते देख मीना वापस हो गयी। बीना चेहरे पर लटक आई रूखे बालों की लटें कानों तक चढ़ा कर फुसफुसाती हुई मुँह को हाथ से ओट देती बोली, “अभी बड़की माय से लुतरी लगाएगी (चुगली करेगी) और मेरी दुर्गत करवाएगी . . .” बीना की पनिया गयी आँखों और विवशता भरे मुखड़े को देखकर चकित थी मैं। मीना का विद्रूप चेहरा और आँखों में भरा उपेक्षा भाव भी था। 

भाभी से पता चला कि बच्ची का नाम चीना रखा गया है। चीनी नहीं और वह नाम इसीलिए नहीं रखा गया कि वह बहुत प्यारी है। उसके पिता और चाचा की लगातार छह बेटियों– मीना, बीना, रीना, टीना, लीना और हिना के बाद उसका नंबर है। सो उनके शब्दकोश से उसका नाम चीना ही निकला। यह प्यार का नाम नहीं है। 

चीना, ज्वार-बाजरा आदि की श्रेणी का कुअन्न है। हालाँकि, आजकल उसे श्रीअन्न कहा जाता है। लेकिन, तब अकाल जैसा कुसमय न हो तो उसके दाने भूखमरों के अलावा कोई नहीं खाता था। अमीर लोग ऐसे अन्न जानवरों को खिलाते थे। बच्ची का चीना नाम उनके इसी तिरस्कार की अभिव्यक्ति है। 

गर्मी की छुट्टियों के बाद हम वापस स्कूल व अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गये। फिर पिताजी के ट्रांसफ़र के बाद गाँव जाना कम हो गया। वहाँ से कोई आता तो गाँव-समाज की चर्चा होती। एक बार वैसी ही चर्चा में पता चला कि उनके यहाँ मीना के बदले उसकी छोटी बहन बीना की शादी हो गई और मीना कुँआरी ही रह गई तो हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। तब ऐसा नहीं होता था कि बड़ी बहन कुँआरी रह जाए और छोटी की शादी हो। बल्कि, इससे बड़ी बहन की शादी में दिक़्क़तें आती थीं। प्रश्न होते थे समाज में। ऐसा क्यों हुआ? कहीं बड़ी में कोई ऐब तो नहीं? आदि। 

मीना बड़े काका की बेटी थी और बीना छोटे काका की। बड़े काका पुश्तैनी दो बीघा ज़मीन में खेती करते थे। छोटे काका की फ़ौज की नौकरी थी। उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए, दोनों भाइयों का परिवार गाँव में एक साथ ही रहता था। दोनों काकियों को हर दो साल पर बच्चा होता था। एक साल बड़ी को तो दूसरे साल छोटी को। अगर बड़ी को बेटी होती तो छोटी को भी बेटी ही होती। अंतर इतना ही कि बड़ी की बेटियाँ साँवली होती थीं और छोटी की गोरी। यही अंतर दोनों काकियों में भी था। बड़ी काकी साँवली ज़रूर थीं, पर लंबी, छरहरी और सुंदर थीं। एक विशेषता और भी थी उनमें। वे चालक भी बहुत थीं। फिर बड़ी थीं ही और पति के साथ रहने से घर की मालिकिन भी वही थीं। दोनों भाई जो कमाते, उन्हीं के हाथों में देते। छोटी काकी गोरी थीं। सुंदर भी थीं। लेकिन, चालाकी से पैदा होने वाले पैनेपन का अभाव उनकी आँखों को रहस्यमय आकर्षण नहीं देता था। उनके चेहरे पर सादगी, ईमानदारी और कर्मठता से पैदा होने वाली सौम्यता की झलक अवश्य थी। पर, लोग उन्हें बेवुक़ूफ़ समझते थे। वे बेवुक़ूफ़ बन भी जाती थीं। 

काका जब छुट्टियों में गाँव आते तो बड़ी काकी परछाईं की तरह उनके साथ लगी रहतीं कि छोटी काकी को उनसे मिलने का मौक़ा ही न मिले। रात में भी सब मिलकर काका को बातों में उलझाए रहते। दिन भर के कामों से थकी काकी की आँखें नींद से बोझिल हो जातीं। वे सो जातीं। तब बड़ी काकी काका को सुनाकर उन्हें आलसी और मग़रूर आसानी से साबित कर देतीं। फिर, काका का बिस्तर अपने हाथों लगातीं और रात के अँधेरे में उनके बिस्तर में घुस भी जातीं। पहली बार जब छोटे काका ने बड़ी काकी को अपने पास सोए पाया तो उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने चूहा मारने की दवा खा ली थी। लेकिन, बचा लिए गए थे। फिर, धीरे-धीरे बड़ी काकी ने उन्हें अपने क़ब्ज़े में किया। छोटी काकी सब समझती थीं। पर, किससे कहतीं? कौन सहारा देता? सास-ससुर, देवर-ननद, कोई था नहीं। एक बड़े काका थे, जो पहले ही जोरू के ग़ुलाम थे। अभाव में भी थे। इसलिए भी दबते थे शायद। मायके में भी कोई जीवित नहीं बचा था छोटी काकी के। बड़ी काकी निष्कंटक थीं। घर में उनका रोब चलता था। बाहर के लोग भी उन्हें ही पूछते। छोटी काकी सुबह से ही रसोई में लगी रहतीं। फ़रमाइशी खाना बनातीं। लेकिन, उनके बनाए खाने में किसी को स्वाद ही नहीं मिलता और बड़ी काकी के रसोई में झाँकने भर से ही खाने का स्वाद बढ़ जाता था। बड़ी काकी हरदम बन-सँवरकर रहतीं। छोटी काकी बड़ी के छोड़े रंग उतरे कपड़ों में ही दिखतीं। बाल सँवारने का समय कहाँ मिलता था उन्हें। सुबह से घर के काम निबटाकर गोहाल के गोबर-करसी करने में बेला झुक जाती थी। कभी जब लोगों को दिखाकर बड़ी उनके सामने तेल की शीशी इस उलाहने के साथ पटक जातीं कि यह जानवर ही होती तो अच्छा होता। तब इसे किसी बनाव-शृंगार की आवश्यकता नहीं होती। उसी दिन लोग छोटी काकी को क़ायदे से बाल सँवारकर माथे पर सिंदूर की बड़ी-सी बिंदी लगाए देखते और उनके रूप की प्रशंसा करते। पर, बड़ी उस दिन खोज-खोजकर उनकी ग़लती निकालतीं और झिड़कती रहतीं। 

काका लोगों की इतनी हैसियत नहीं थी कि छह-सात बेटियों की दहेज़ देकर शादी करते और दहेज़ के बिना हमारे समाज में शादी की गुंजाइश नहीं थी। वैसे में लड़के को फुसलाकर लाना और जबरन बेटी की शादी करवाना, बाद में हाथ-पैर पड़कर लड़के के पिता को राज़ी कर लेना गाँव में सामान्य बात थी। काका ने भी वही किया। जब मीना के लिए लड़का लाया गया तब बड़ी काकी ने यह कह कर शादी करने से मना कर दिया कि वे बी ए पास लड़के से ही अपनी बेटी की शादी करेंगीं। वह लड़का मैट्रिक तक ही पढ़ा था। इसलिए मीना के बदले बीना की शादी कर दी गई। बीना के भाग्य से छह महीने में ही लड़के को दिल्ली में अच्छी नौकरी मिल गई। अब बीना का पति आता तो उसके लिए सुंदर साड़ियाँ, चूड़ियाँ और गहने लाता। इससे बड़ी काकी और मीना को बड़ी जलन होती। माँ-बेटी बीना को हरदम काम में उलझाए रखतीं‌ और ख़ुद उसके पति के पास बैठकर गप्पें मारतीं, ताश खेलतीं, चुटकुले सुनातीं और पहेलियाँ बुझाती रहतीं। वे जब तब बीना को लेल्ही (बेवकूफ) के संबोधन से नवाज़तीं और मीना की प्रशंसा करतीं। बीना कुछ बोलने की कोशिश करती तो मीना उसे रोक देती। वह कहती, “हाँ-हाँ, तुम क्यों नहीं बोलोगी, तुम दूल्हा वाली हो तो तुम्हीं न चतुर होओगी। तुम्हीं सब सही-सही कहोगी। मैं कैसे कह सकती हूँ।” और बीना की बात मन में ही रह जाती। उनकी चालें समझने वाली बीना रात में पति के साथ होती तब ज़िद करती कि आप मुझे अपने साथ ले चलें। 

छहों बेटियों की शादी इसी तरह हो गई। सभी अपने-अपने घरों में सुखी थीं। एक शाम चीनी के लिए भी लड़का लाया गया। लड़का बहुत सुंदर था। अच्छे ख़ानदान का और पढ़ने वाला। द्वार से आँगन तक सभी ने चीनी के भाग्य की सराहना की। वह भी बहुत ख़ुश थी। मन-ही-मन अपने वर्तमान से अधिक सुखी जीवन की कल्पना करने लगी। वह सोचती कि जब उसका पति बड़ा अफ़सर बन जाएगा तब रानी की तरह सुख करेगी। सुंदर-सुंदर साड़ियाँ और ज़ेवर पहनेगी। उसके घर में नौकर-चाकर होंगे। महँगी गाड़ी भी होगी। गाड़ी से ही वह मायके आएगी। फिर सोचती, अभी ही क्या कम सुख है उसे? लाल भैया कह रहे थे कि उनके दरवाज़े पर एक कोरी मवेशी है। दूध-दही, मांस-मछली की आज़ादी है। उनका अपना पोखर भी है। उसके ससुर घोड़ी पर चढ़ते हैं। इसलिए, दरवाज़े पर घोड़ी बँधी रहती है। उसके ससुर के कपड़े भागलपुर की लॉन्ड्री से धुलकर आते हैं। सोचते-सोचते उसे अब तक मायके में बिताए दुख के दिन छोटे लगने लगे। यहाँ तक कि वह अपनी बड़ी माँ के कठोर व्यवहार के लिए भी उदार‌ होकर सोचने लगी। वह सोचती कि यहाँ इतना अभाव है, तभी तो बड़ी माँ का व्यवहार इतना रूखा हो गया है। अभाव आदमी को जानवर बना देता है। वह अपने छोटे भाई के बारे में सोचती कि उसका एडमिशन भागलपुर के टी ऐन बी कॉलेज में करवाएगी। उसे छोटी-मोटी नौकरी नहीं करने देगी। एक ही तो भाई है उसका। फिर सोचती कि वह जब मैके आएगी तो बक्से में भरकर साड़ियाँ लाएगी और माँ के बक्से में भरकर साड़ियाँ बच जाएँगीं तब बड़ी माँ और बहनों में बाँट देगी। भगवान ने उसे इतना सुख दिया है तो उसे उदार तो होना ही चाहिए। अपने सस्ते कपड़ों को देखकर सोचती कि इन्हें पहनने का यह अंतिम मौक़ा है। फिर तो पटोरी पहन-पहनकर थक जाएगी वह। रंग-बिरंगी साड़ियाँ उसकी आँखों के सामने घूम जातीं। 

चतुर्थी पूजा के बाद सुहागरात के लिए दीदी-भाभियों ने मिलकर चीनी को सजाया। आवश्यक हिदायत देकर उसे कमरे में भेज दिया और बाहर बैठकर कोहबर गीत गाने लगीं। पायल की रुनझुन की मधुर ध्वनि के साथ प्रवेश करती चीनी सोच रही थी कि दरवाज़े पर ही उसका सुदर्शन पति इंतज़ार करता मिलेगा। उसे आलिंगन में बाँधकर उससे मीठी-मीठी बातें करेगा। पर, यह क्या? वह तो सो रहा है। चीनी पति के प्यार भरे बोल का इंतज़ार करने लगी। उधर गीत गाने वालियाँ नींद से बोझिल आवाज़ में गाते-गाते सो गईं। चीनी की आँखों में नींद कहाँ? पलंग पर दुलहन बनी वह बैठी रही और उसका पति खर्राटे भरता रहा। उसने जगाने की कोशिश की, जिसे उसने आंह-ऊंह कर टाल दिया। 

सुबह हुई कमरे से निकली तो भाभियों ने मुस्कुराकर रात की बात पूछी। लेकिन, उसकी तो मुँह की बोली ही छिन गई थी। भागकर माँ के पास गई और रोने लगी। लोगों को आशंका हुई। माँ ने बहुत फुसलाया। पर, कुछ नहीं बोली। जीवन भर के दुखियारी माँ को वह कहती भी क्या? बस रोती रही। आँगन में जितना मुँह, उतनी बातें होने लगीं। कोई कहती लड़का पढ़ा-लिखा है। पटना कॉलेज में पढ़ता है। मैट्रिक पास देहाती लड़की के साथ कैसे रहेगा? कोई कहती लेल्ही की बेटी लेल्ही। पति को सँभालना कहाँ से जानेगी? और कोई कहती इतनी सुंदर लड़की को कोई अभागा ही छोड़ सकता है। कोई चीनी की ग़लती निकालती तो कोई दूल्हे की। जैसे वे सभी इसी इंतज़ार में बैठी थीं कि कुछ गड़बड़ हो और उन्हें बोलने का मौक़ा मिले। तरह-तरह की बातें होने लगीं। मर्दों में भी बात चली गई। उन्हें लड़के के नपुंसक होने का संदेह हुआ। 

हमारी भाभी उम्र में चीनी की माँ जैसी थीं और चीनी को बहुत प्यार करती थीं। उन्होंने उससे अकेले में बात की। 

“तुम बोलो चीनी, क्या बात है?” 

चीनी को लगा कि भाभी भी उसी की ग़लती निकलेंगीं। 

“चीनी मुझे साफ़-साफ़ बोलो, क्या बात है?” 

भाभी ने फिर पूछा। 

“तुम देख रही हो, घर में सभी परेशान हैं। शादी होने से सात दिन हो गए। तुम इधर रोती हो। दूल्हा उधर मुँह सुखाकर बैठा है। न किसी से बात करता है, न किसी के पास बैठता है। बस ‘घर जाऊँगा’ की रट लगाए हुए है।”

चीनी सुबक पड़ी। भाभी ने दुलराते हुए पूछा, “वे तुमसे बात करते हैं?” 

“हाँ, अब करते हैं,” रोती हुई बोली वह। 

“अब मतलब?” 

“कल की थी।”

भाभी की जिज्ञासा बढ़ चली। वे उसे कुरेदने लगीं। चीनी बोली, “कहते हैं तुम्हारे घर वालों ने मेरा भविष्य ख़राब कर दिया।” 

“ऐसा क्यों कहते हैं? शादी होने से भविष्य कैसे ख़राब होता है?” 

भाभी के माथे पर बल पड़ गए। चिंतित स्वर में बोलीं, “तुमको प्यार करते हैं?” 

“पता नहीं।” 

“तुम उनकी पत्नी हो। पास रहती हो तो पता किसे होगा?” 

“ऐसे कोई थोड़े न किसी की पत्नी हो जाती है?” आजिज़ होकर बोली वह। 

“फिर कैसे होती है?” कहने को तो कह गईं वे। फिर वापस होते हुए बोलीं, “सच-सच बता, तुम्हें छूते हैं? प्यार से पास बैठ कर बातें करते हैं?” 

वह रोने लगी। 

“देखो रोने से कुछ नहीं होता है। तुम बतलाओगी, तभी तो कुछ पता चलेगा न? ऐसा सुंदर नौजवान है‌। तुम्हें प्यार क्यों नहीं करता?” 

“कहते हैं उनकी पढ़ाई बाक़ी है अभी। शादी नहीं करनी थी।” 

“ठीक है तो पढ़ भी लेंगे। यह कौन बड़ी बात है। पढ़ना और कमाना तो है ही न।”

भाभी को थोड़ा इत्मिनान हुआ कि पढ़ाई का ख़र्च-गछ लेने से बात बन जाएगी। 

“नहीं, वे इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं। कहते हैं मेरे मम्मी-पापा क्या कहेंगे? दोस्त की शादी में गया और ख़ुद . . . मैं जानता कि यह सब होगा तो मैं कभी नहीं . . . तुम मुझसे किसी भी बात की उम्मीद मत करो। मैं तुम्हारे लायक़ नहीं हूँ और यहाँ से जाने के बाद कभी तुम्हारे पास नहीं आऊँगा मैं।” ग़ुबार फूट पड़ा उसका। हिचक-हिचककर रोने लगी। भाभी ने गोद में लेकर उसका सिर सहलाया। आँसू पोंछे। 

बड़े घर का लड़का है। इंजीनियर-डॉक्टर तो बनेगा ही। सोचती हुई भाभी ने चीनी को प्यार से देखा। 

वह स्थिर होकर बोली, “वे कहते हैं, मेरी परेशानी कितनी बढ़ गई, तुम नहीं जानती। इन्हें तो बस एक ही काम है, किसी तरह लड़का फँसाकर उसके गले में अपनी लड़की बाँध दो। पर, मैं तुम्हें किसी धोखे में नहीं रखना चाहता . . .”

“भाभी, बहुत रोते हैं वो।”

लड़की एक साँस में बोल गई। 

“ऐसे तो कोई जीजाजी किसी दीदी से नहीं बोले थे।”

आँसू बहता चेहरा उठाकर भाभी का मुँह देखने लगी वह। भाभी चिंतित थीं। 

तत्क्षण उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझा। 

कमरे में चीनी से बात कर रही भाभी पेशोपश में पड़ी थीं कि बड़ी काकी चिल्लाती हुई आँगन में आईं। 

“ई छौड़ी के नसीबे जरलो छह। कोय की करतै? भागी गेलै एकरो दूल्हा। बिनोदबां बहुत दूर तक पिछुऐलकै। लेकिन, पकड़े नै पारलकै।”

चीनी का भागा दूल्हा कभी वापस नहीं आया। कुछ प्रतिष्ठित लोगों को लेकर काका उसके ससुर को मनाने गए थे। उन्होंने दबाव भी डाला कि आपका लड़का मेरी लड़की के साथ रात बिता चुका है। ऐसे कैसे चलेगा कि . . .? पर, दबने वाले कहाँ थे वे कि इनकी बातों में आते। नहीं मानना था तो नहीं ही माने। पिताजी गाँव गए थे। चीनी के विषय में ख़बर लगी तो काका से पूछा। पर, वे रोने लगे। 

“बड़े भैया, अब आप ही कुछ कर सकते हैं।” पिताजी के परोपकारी स्वभाव, ऊँचे ओहदे और सामाजिक प्रतिष्ठा का सबको बहुत भरोसा था। काका को भी। पिताजी चीनी के ससुर से मिले। बड़ी ख़ातिरदारी हुई। लेकिन, उस प्रसंग में बात करने से मना कर दिया। इन्होंने समझाने का प्रयास किया कि मजबूरी में चुराकर शादी करवाई। इसकी सज़ा लड़की को न दें। आप बड़ी हैसियत वाले लोग हैं। एक ग़रीब का उद्धार करें। पर, बात नहीं बनी। तब पिताजी ने कोशिश की कि कोई दूसरा लड़का चीनी से शादी के लिए तैयार हो जाए तो चंदा करके भी उसकी शादी करवा दी जाए। मगर, छोड़ी हुई लड़की से शादी कौन करे? तब ऐसा रिवाज़ नहीं था। 

चीनी घर वालों के लिए मुफ़्त की दाई हो गई। सुबह से ही घर का सब काम करती। सबकी ज़ुबान पर उसी का नाम रहता। 

“चीनी यह देना, चीनी वह करना ।” उसके हाथ का खाना स्वादिष्ट होता था। सो सबके लिए फ़रमाइशी तरकारी बनाने में दोपहर हो जाती। फिर, घर की साफ़-सफ़ाई कर सबके कपड़े धोने जो कुएँ पर जाती तो तीन बज जाते। कुएँ पर आई पड़ोस की औरतें उसे काम में भिड़ी देख उससे ममता करतीं। बढ़ीं-बूढ़ियाँ तो बड़ी काकी को सुनाकर ही कहतीं, “विधाता ने सब सुख मिनियां माय के ही हिस्से में लिख दिया है। तभी न यह लड़की नौडी बनी हुई है।” चीनी किसी की बात का कोई जवाब नहीं देती। चीनी के काम सँभाल लेने से उसकी माँ को थोड़ा आराम रहने लगा। फिर भी, जानें क्यों वे अक्सर बीमार ही रहतीं और चीनी दिनों-दिन और सुंदर होती जाती। बहनें आतीं तो अपने पतियों को उससे दूर ही रखतीं। मुँह ऐंठ कर कहतीं, “छौड़ी इंद्रासन की परी होती जा रही है। क्या सोचकर इतना रूप दिया है इसे ऊपर वाले ने?” 

फिर भी, कुएँ से पानी भरकर देना, बच्चे सँभालना, कपड़े आदि धोना तो चीनी का ही काम था। फिर काज-परोजन का समय। घर-बाहर के सुबह से लेकर आधी रात तक के हाड़तोड़ काम के बाद रात में भगवती के मनौन और विधि के गीत भी तो वही गाती थी। सरस्वती देवी का वास था उसके कंठों में। इतना मधुर और सुरीला गाती कि बहनों की रातों की नींद इसी चिंता में ख़राब हो जाती कि इस अप्सरा से अपने पति को कैसे बचाया जाए? वे प्रयोजन के पूरा होते न होते अपनी गठरी बाँधकर विदा हो जातीं। 

चीनी का बढ़ता जाता सौंदर्य उसकी और उस परिवार की परेशानी बढ़ाने लगा। 

अब तक की सारी मुश्किलों से बड़ी इस मुश्किल से निकल भागने का कोई रास्ता नहीं था। गाँव के मनचले खैनी-बीड़ी के बहाने कुछ देर उसके घर की ओलती से लगकर खड़े मिलते। शाम के धुँधलके में अक्सर उस घर के आसपास मँडराते दीखते। जैसे उनकी आँखों की शर्म-हया मर गयी हो। घर से बाहर तक सब तरफ़, हर किसी से भयभीत चीनी का जीना दूभर हुआ जा रहा था। मनचलों पर अंकुश लगाना सम्भव नहीं था। घबराहट के मारे चीनी की आँखों की नींद ग़ायब हो गयी थी। 

एक बार किसी से पता चला कि चीनी के भाई का साला उससे शादी करना चाहता था। वह उसकी पीड़ा से व्यथित था। लेकिन, यह गाँव वालों को पसंद नहीं था। लोगों ने उन दोनों पर लांछन लगाया और रात के अँधेरे में लड़के को पीटकर भगा दिया। यही नहीं, काका के परिवार को जाति से बहिष्कृत भी कर दिया। 

और भी तरह की बातें। सबसे ज़्यादा उनके परिवार के लिए गाँव वालों की ज़्यादतियाँ। फिर पता चला कि घर छोड़कर किसी रात कहीं चली गई चीनी। जानें किसके साथ या कि अकेली ही। 

कितने साल बीत गये। गाँव की कोई ख़बर नहीं मिली। तरह-तरह के सवाल मन में उठते। तब फोन का ज़माना भी तो नहीं था कि समाचार लिया जाए किसी का। मन में उठते तरह-तरह के सवाल समय के गर्त में धँसते अन्तस्चेतन में कहीं दबते चले गये। 

 

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राष्ट्रीय सेमिनार में रिसोर्स पर्सन के रूप में भागीदारी के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के सेमिनार हाॅल में प्रवेश करते ही एक मीठी तरंगायित होती आवाज़ ने बरबस आकृष्ट कर लिया। आवाज़ ऐसी कि कानों से उतर कर सीधे मन को प्रफुल्लित कर दे। मैंने मुड़कर देखा कि आकर्षक नीली आँखों वाली सुंदर और स्मार्ट महिला मंच संचालन कर रही थी। वह आवाज़ उसी की थी। मंत्रमुग्ध होकर मैं उसे देखती रह गयी। 

मध्याह्न भोजन के समय वह मेरे साथ-साथ चल रही थी। मैं उसके लिए पहले से ही उत्सुक थी। मौक़ा देखकर झट से उसने मेरे पैर छू लिये। मेरे उठते हाथों को पकड़कर उसने उन पर अपना शीश झुका दिया। अप्रत्याशित रूप से आकर उसके पैर छूने से हड़बड़ा गयी थी मैं। बोली, “अरे-अरे, यह क्या . . .?” 

“आप मुझे नहीं पहचानती हैं दीदी। पर, मैं आपको जानती हूँ।”

“लेकिन, कैसे?” एक अपरिचिता की आत्मीयता देखकर मैंने प्रश्न उछाल दिया अनजाने में। 

“बतलाऊँगी। परन्तु, आपको मेरे घर चलना होगा।”

“मतलब?” 

अचरज में पड़ी मैं प्रश्न पर प्रश्न कर रही थी। 

“आप अपनी चीनी को भूल गयीं दीदी?

“नहीं, नहीं भूल सकती हैं आप। कोई नहीं भूल सकता। गाँव का कोई नहीं। फिर आप तो . . .”

अपने सिर को झटकती आत्मविश्वास से भरी आवाज़ में बोल रही थी वह। 

“चीऽनीऽऽ! हाँ, चीनी को तो . . .”

आश्चर्य और शंका मिश्रित भटके हुए-से स्वर फूट पड़े मेरे। मैं उसे सिर से पैर तक फिर से देख गयी। मन विश्वास करने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था कि वह महिला हमारी चीनी ही है। मुझे ऊहापोह में पड़ी देखकर उसने मेरे हाथों को प्यार से सहलाया। 

“मैं . . . मैं ही चीनी हूँ दीदी। आज की—आपकी चिन्मयी। जिसे गंदा अनगढ़ काँच का टुकड़ा समझकर गाँव के लोगों ने तिरस्कृत कर फेंक दिया था, उसी ने पारस बनकर मुझ जंग खाये लोहे को सोना बनाया है।”

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