विद्यापति: भक्त या शृंगारी? 

01-12-2023

विद्यापति: भक्त या शृंगारी? 

डॉ. प्रतिभा राजहंस (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

कविवर विद्यापति का यह दुर्भाग्य रहा है कि इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन हमेशा एकांगी हुआ। कुछ समीक्षक इन्हें शृंगारी मानते हैं तो कुछ भक्त। विद्वानों के दोनों ही दल अपने-अपने मतों की पुष्टि के लिए तर्कों का ताना-बाना बुनते हैं। इन्हें भक्त मानने वालों में डॉ. ग्रियसन, प्रेमनाथ तथा डॉ. हजारी प्रसाद प्रभृति हैं तो शृंगारी मानने वालों में आचार्य शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा, जानकीबल्लभ शास्त्री प्रभृति। 

निश्चयतः ऐसा विवाद इनकी पुस्तक ‘पदावली’ को लेकर है, जिसमें एक तरफ़ घोर शृंगारी पद हैं तो दूसरी तरफ़ भक्ति के पद। 

विद्यापति भक्त हैं या शृंगारी—यह फ़ैसला करने के लिए केवल पदावली पर आधारित नहीं होगा, क्योंकि किसी व्यक्ति की प्रशंसा या निंदा उसके व्यक्तित्व के एक अंग, वह भी क्षुद्र अंग, के आधार पर करना समीचीन नहीं। अतः यह फ़ैसला करने के लिए निम्नलिखित आधार बनाए जा सकते हैं: 

  • उनकी समस्त रचनाएँ 

  • उनकी अभिव्यक्ति की प्रभावान्विति 

  • उनका व्यक्तित्व 

  • तत्कालीन परिस्थितियाँ तथा 

  • देशकाल इत्यादि। 

विद्यापति की कुल रचनाएँ 18 मिलती हैं, जिनमे 15 संस्कृत की रचनाओं में एक ‘मणिमंजरी’ को छोड़कर कोई शृंगारिक नहीं है। 

शेष रचनाओं में ‘भूपरिक्रमा’ में बलदेव द्वारा भूपरिक्रमा का वर्णन हुआ है तथा पुरुष-परीक्षा नीति ग्रंथ है, शैव ‘सर्वस्वसार’ और ‘शैव सर्वस्वसाराभूत’ शिवभक्ति से संबद्ध हैं। इस तरह, क़रीब 5 रचनाएँ भक्तिपरक हैं, बाक़ी नीति या कर्मकांड विषयक। अवहट्ट की दोनों रचनाएँ—‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ वीररस परक हैं। जबकि पदावली में शृंगार और भक्ति दोनों ही पद हैं। रचनाओं के आधार पर ये भक्त अधिक ठहरते हैं, शृंगारी कम। 

प्रभावान्विति के आधार पर इनके दोनों ही पक्ष संपुष्ट हैं। इनके विनयभक्ति के पदों में जहाँ एक सच्चे विनीत भक्त का रूप दिखाई देता है, वहाँ शृंगारिक पदों में ये रसिक-शिरोमणि कृष्ण के साथ शत-प्रतिशत शृंगारी रसिक कवि हैं। इनके यहाँ नायिका राधा का वय: संधिप्राप्ता नायिका के रूप में सांगोपांग, सुंदर, सजीव एवं स्वाभाविक चित्रण हुआ है। उसकी एक-एक भंगिमा को सफलतापूर्वक कवि ने उतारा है, जिसके लिए कविवर विहारी ने सभी कवियों-चित्रकारों को असमर्थ बताया। द्रष्टव्य है एक उदाहरण:

“सैसव यौवन दुहु मिलि गेल। 
स्र्वनक पथ दुहु लोचन लेल। 
वचनक चातुरी लहु-लहु हास। 
धरनिये चाँद केल परगास। 
चिकुर लई अब करई सिंगार। 
सखि पूछई कैसे सुरति विहार।” 

यही नहीं, सद्यःस्त्राता, अभिसार, मान, सुरतिविहार इत्यादि के बहुत से पद मिलते हैं, जिन्हें लक्ष्यकर डॉ. रामकुमार वर्मा ने कहा—“इस बाह्य संसार में ईश्वर पूजा कहाँ? सद्यःस्त्राता में ईश्वर से नाता कहाँ? वयः संधि में ईश्वर संधि कहाँ? अभिसार में भक्ति का सार कहाँ? विद्यापति की कविता विलास की सामग्री हो सकती है, आराधना की साधना नहीं। इनके कृष्ण मतवाले हो सकते हैं, शांत नहीं।”

इसी तरह, विद्यापति के भक्तिपरक पदों में शिव, दुर्गा, काली, भैरवी, कृष्ण प्रभृति तथा पंचदेवता की पूजा के पद मिलते हैं। 

  • ‘कखन हरब दुःख मोर’

  • ‘जोगिया मोर जगत सुखदायक’

  • दुर्गाभक्ति में—‘कनक भूधर शिखर वासिनी’

  • भैरवी भक्ति में—‘जय-जय भैरवि असुर भयावनि’

  • तथा गंगा भक्ति में—‘कत सुखसार पाओल तुअ तीरे’

इत्यादि पदों में इनकी भक्ति का प्रचंड रूप देखने को मिलता है। इस तरह इनके यहाँ मिथिला में प्रचलित-पूजित सभी देव-देवताओं को प्रतिष्ठा मिली है। यही नहीं, इन्होंने भक्ति में शैव, वैष्णव आदि के झगड़े को मिटाकर समन्वय की चेष्टा की है। इन्होंने सबों को ईश्वर के अलग-अलग रूप में देखा है। द्रष्टव्य है, एक पद, जिसमें इन्होंने शैव-वैष्णव का विवाद मिटाने हेतु दोनों में एक रूप देखा है:

“भल हर भल हरि भल तुअ कला 
खन पीत वसन खनहिं बाघछला 
खन पंचानन खन भुजचारि। 
खन शंकर खन देव मुरारि। 
खन गोकुल भए चराविअ गाय। 
खन भीख माँगए डमरू बजाय।”

कहा जाता है कि इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर इनके यहाँ ‘उगना’ के रूप में नौकर बनकर रहे थे, भगवती दुर्गा ने इन्हें कवित्व का वरदान दिया था तथा अंतिम समय में, इनके पार्थिव शरीर को गंगा तट से कुछ पूर्व ही स्वयं गंगा ने बढ़कर अपनी लहरों में समेट लिया था। 

इस तरह प्रभावान्विति के आधार पर भी ये भक्त अधिक ठहरते हैं। यह बात दूसरी है कि शृंगार में सौंदर्य आदि के वर्णन में कवि का मन अधिक रमा है और इन्होंने नायिका सुरति आदि के खुले चित्र प्रस्तुत किए हैं। 

विद्यापति आश्रित कवि थे। आश्रय दाताओं को ख़ुश करने के लिए कविता करते थे। इनके सारे पद आश्रयदाताओं की सेवा में लिखे गए। इसका प्रमाण पदों की अंतिम पक्तियों में उनके नामों के उल्लेख से भी प्राप्त होता है। इस तरह, जब स्वामी ने शृंगारिक पद पसंद किया, तब शृंगारिक पद रचे गए। जब भक्ति के पद सुनने की रुचि ज़ाहिर की, तब भक्ति के सुनाए। संस्कृत के ‘शैवसर्वस्वसार’ तथा ‘गंगावाक्यावली’ महाराज पद्मसिंह की पत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से ही रचे गए। यही कारण सभी रचनाओं के पीछे रहा। पुनः ध्यातव्य है कि इनके आश्रयदाता भी बदलते रहे। कभी किसी राजा के दरबार में रहे तो कभी किसी के। फलतः गृहस्थ होने के नाते आजीविका तथा यश दोनों की प्राप्ति के लिए युग, परिस्थिति, वातावरण आदि के अनुरूप रचनाएँ हुईं। 

विद्यापति संक्रमणकालीन कवि थे। उन्होंने न केवल भक्ति एवं शृंगारिक कविताएँ कीं, बल्कि वीररस की भी कविताएँ कीं, जिन्हें समीक्षक रचनाकाल के आधार पर आदिकाल के अंतर्गत रखते हैं। कविश्रेष्ठ विद्यापति का स्वयं का व्यक्तित्व उनके भक्त होने का प्रमाण है। वे शैवों की तरह त्रिपुंड लगाते एवं रुद्राक्ष धारण करते थे शाक्तों का प्रतीक त्रिपुंड के बीच लाल टीका लगाते थे। सिर पर पाग आदि के कारण आपादमस्तक भक्त कहलाने के अधिकारी हैं। 

निष्कर्षतः, यह कहा जा सकता है कि वे गृहस्थ भक्त थे। एक गृहस्थ व्यक्ति भक्त एवं शृंगारी दोनों ही हो सकता है, दोनों में कोई विरोध नहीं। एक ही व्यक्ति जवानी में शृंगारी होता है तो वृद्धावस्था में भक्त। हमारे शास्त्रों के अनुसार निर्धारित चारों पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में, मोक्ष के ठीक पहले काम का उल्लेख हुआ है। यही नहीं, शृंगार के बिना मोक्ष प्राप्ति असंभव है। शृंगार मोक्ष का बाधक नहीं, साधक है। कवि विद्यापति का व्यक्तित्व दोनों के समन्वय से संपुष्ट हुआ है। इनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा भक्त है तो दूसरा शृंगारी, राजा जनक की तरह। यही बात अन्य कवियों के व्यक्तित्व में देखी जाती है। महाकवि तुलसीदास, घनानन्द, सुर, रसखान, पद्माकर तथा आधुनिक काल में निराला, उर्वशीकार दिनकर, जो बाद में राष्ट्रकवि हुए प्रभृति। 

इनकी कविता की आधारभूमि इनकी मातृभूमि रही, जहाँ एक ही साथ, शिव, शक्ति, विष्णु के उपासक रहते हैं तथा घोर शृंगारी भी। दूसरे शब्दों में, वहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में भक्त एवं शृंगारी दोनों रूप रहते हैं जिन्हें अलग कर पाना असंभव है। अतः मिथिला-भूमि का यह प्रसाद है—वरदान है कि कवि दोनों ही रूप में श्रेष्ठ हैं। मिथिला के गाँवों में शादी-ब्याह में कोहबर आदि, वसंत और वर्षा ऋतुओं में हिंडोले आदि तथा व्रत त्योहार के अवसर पर भक्ति एवं विनय के श्रेष्ठ गीत गूँजते हैं। 

इस तरह, विद्यापति मूलतः भक्त कवि हैं। 

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस 
हिन्दी-विभाग, मारवाड़ी महाविद्यालय, भागलपुर, बिहार- 812007
मोबाईल न. 9939721764
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