स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी के साहित्यकारों का योगदान 

15-08-2024

स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी के साहित्यकारों का योगदान 

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 259, अगस्त द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी होता है। स्वाधीनता आंदोलन के समय के साहित्य पर यह उक्ति अच्छी तरह चरितार्थ हुई थी। सदियों की परतंत्रता और अंग्रेज़ी शासन की क्रूरता से कराहती भारतीय जनता में जागृति का संचार साहित्यकारों ने ही किया था, जिसके लिए कविवर नेपाली ने लिखा है—“हम धरती क्या, आकाश बदलने वाले हैं। हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं।” 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्ध में हिंदी के भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बांग्ला के बंकिम चंद्र, शरद चंद्र, माइकल मधुसूदन, गुजराती में नर्मद, मराठी के चिपलूणकर, तमिल के सुब्रमण्यम भारती प्रभृति ऐसे ही साहित्यकार हुए, जिन्होंने मृतप्राय भारतीयों को स्वतंत्रता के सूर्य की अमृतमय प्रथम रश्मि के दर्शन करवाए और आश्वस्त किया कि अब आज़ादी आने ही वाली है। बस पूरी हिम्मत से एक बार ज़ोर लगाना है। 

आज़ादी की पूर्वपीठिका तैयार करने वाले हिंदी साहित्यकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, प्रताप नारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद प्रभृति अनेक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी ‘भारत दुर्दशा’ कविता में “हा‌! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।” कहकर देश में व्याप्त हर तरफ़, हर तरह की दुर्दशा का चित्रण किया तो अपने सुप्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’ में दुर्दशा के कारणों को चिह्नित भी किया। अपनी कालजयी कृति ‘भारत भारती’ के माध्यम से मैथिली शरण गुप्त ने हमारी जातीय अस्मिता को जगाया। उन्होंने कहा—“जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नरपशु निरा और मृतक समान है।” उनकी यह ललकार तत्कालीन परिस्थितियों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित हुई। उन्होंने हममें राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करने का विवेक भी जगाया—“हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।” यह कहकर हमें विचार करने के लिए इकट्ठा किया। उन्होंने “है कार्य ऐसा कौन सा साधे न जिसको एकता” यह कहकर हमें संगठित होने की भी सीख दी। ध्यातव्य है कि स्वाधीनता का प्रथम आंदोलन 1857 में संगठन के अभाव में ही विफल हुआ था। गुप्त जी ने हमारे गौरवशाली अतीत का स्मरण कराते हुए वर्तमान की दुरवस्था का चित्रण भी किया। उन्होंने हमारा मनोबल बढ़ाते हुए कहा—“आए नहीं थे स्वप्न में भी जो किसी के ध्यान में। वे प्रश्न पहले हल हुए थे एक हिंदुस्तान में।”

20वीं शताब्दी के उदयकाल में ही राष्ट्रवादी साहित्य की बाढ़-सी आ गई। माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, जय शंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, ‌ राष्ट्रकवि दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी, श्यामलाल गुप्त प्रभृति ने अपनी-अपनी शैली में ओजपूर्ण रचनाएँ कीं, जिनसे उत्प्रेरित-उद्वेलित तत्कालीन युवावर्ग अंग्रेज़ी शासन से दो-दो हाथ करने को व्याकुल हो उठा। 

प्रसाद ने “अरुण यह मधुमय देश हमारा” गाकर देश की महिमा का गान किया तो निराला ने “जागो फिर एक बार। शेरों की माँद में घुस आया है आज स्यार।” कहकर मानो अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ जनजागरण का शंख फूँक दिया। माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ के बहाने अपनी बलिदानी अभिलाषा जताई तो ‘क़ैदी और कोकिला’ कविता में दुर्दमनीय अंग्रेज़ी शासन की काली करतूतों की पोल खोली तथा “द्वार बलि का खोल, चल भूडोल कर दें।/एक हिमगिरी एक सिर का मोल कर दें।/मसलकर अपने इरादों-सी उठाकर।/दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें।/रक्त है या है नसों में क्षुद्र पानी। जाँच कर तू शीश दे अपनी जवानी।” कहकर उन्होंने जवानों में जोश भर दिया। बालकृष्ण शर्मा नवीन ने “कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए। एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर को जाए। नाश! नाश! हा महानाश! की प्रलयंकारी दृग खुल जाए।” कहकर महानाश का आवाहन किया। दिनकर ने ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल‌’ कविता में “रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ। जाने दे उनको स्वर्ग धीर। पर फिरा हमें गांडीव-गदा। लौटा दे अर्जुन भीम वीर।” कहकर नरम दल के अहिंसावादियों की भर्त्सना करते हुए बलिदानी आंदोलन का समर्थन किया। तथा “क़लम आज उनकी जय बोल। जला अस्थियाँ बारी-बारी छिटकाई जिनने चिनगारी। जो चढ़ गए पुण्य बेदी पर लिए। बिना लिये मस्तक का मोल।” कहकर तत्कालीन साहित्यकारों को उनके कर्त्तव्यों की सीख भी दी। राष्ट्रभक्त कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता ‘वीरों का कैसा हो बसंत’ के प्रश्नोत्तर के बहाने से नौजवानों को स्वाधीनता संग्राम के लिए सन्नद्ध किया और ‘ख़ूब लड़ी मर्दानी’ गाकर तत्कालीन नारियों को भी युद्ध के लिए ललकारा। “बहन तू बन जा क्रांति कराली” कहकर नेपाली ने महिलाओं को क्रांति के लिए सम्मिलित कर लिया। कविवर नेपाली जी का यह कथन हमारे देश की आधी आबादी महिलाओं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। गोपाल दास नीरज ने लिखा, “देखना है ज़ुल्म की रफ़्तार बढ़ती है कहाँ तक? देखना है बम की बौछार होती है कहाँ तक?” कहकर अंग्रेज़ी सरकार को कड़ी चुनौती दी तथा स्वतंत्रता सेनानियों को लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रीय चेतना के प्रखर कवि और अमर गीतकार ‘वन मैन आर्मी’ की उपाधि से सम्मानित गोपाल सिंह नेपाली ने भी ‘शासन चलता तलवार से’ लिखकर जवानों को तलवार उठाने हेतु पुकार लगाई। साथ ही, देश के अहिंसा के समर्थकों की ख़बर लेते हुए उन्होंने कहा, “चरखा चलता है हाथों से। शासन चलता तलवार से।” क्योंकि, सदियों की ग़ुलामी की जकड़न का अंत सहज ही सम्भव नहीं था। “ज़ंजीर टूटती न कभी अश्रुधार से।” इसलिए, युद्ध आवश्यक था। फलतः, उसकी ज़ोर-शोर से तैयारी भी अत्यावश्यक थी। 

निष्कर्षतः कहना होगा कि आज़ादी के आन्दोलन में हिन्दी के साहित्यकारों ने वे गीत लिखे, जिन्हें गाते हुए सेनानी हँसते-हँसते हथकड़ी-बेड़ी धारण करते थे और बलिवेदी पर स्वयं को न्योछावर कर देते थे:

“मौत इकबार आना है तो डरना क्या है? 
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है? 
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद, 
हमारा क्या है, अगर हम रहें, रहें, न रहें।”

अशफाक उल्ला खाँ के ये शब्द मातृभूमि के प्रति शीश चढ़ाने वाले शहीदों के संकल्प बन गए। 

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