ब्रजभाषा काव्य में श्री कृष्ण की मुरली का प्रसंग

01-07-2024

ब्रजभाषा काव्य में श्री कृष्ण की मुरली का प्रसंग

प्रो. (डॉ.) प्रतिभा राजहंस (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

लीलाधर नटवर नागर श्रीकृष्ण की कल्पना मोर मुकुट, गुंजा की माल, गोरोचन के तिलक और मुरली के बिना सम्भव नहीं है। श्रीराधा के साथ उनकी जितनी भी प्रतिमा या चित्र मिलते हैं, सभी में ये सब अवश्य मिलते हैं। यानी मोहन के हाथों में मोहिनी मुरली होती ही है। मुरली उनके गाने-बजाने का साधन है। मुरली के सम्बन्ध में स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं कि गायों-बछड़ों को बुलाने में मुरली की ध्वनि उन्हें मदद करती है। एक लोकगीत में इससे सम्बन्धित एक प्रसंग मिलता है कि जब वृन्दावन में श्रीकृष्ण मुरली बजाने में तन्मय हो जाते हैं और राधा की तरफ़ ध्यान नहीं दे पाते हैं, तब राधारानी नाराज़ हो जाती हैं। उन्हें लगता है कि मुरली बजाने में लगे रहने के कारण ही श्रीकृष्ण उनकी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। वे मुरली के प्रति ईर्ष्या से जल उठती हैं और उनकी मुरली छिपा देती हैं। यानी ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’। इधर सदा साथ में रहने वाली अपनी बाँसुरी के लिए श्रीकृष्ण व्याकुल हो उठते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी बाँसुरी उन्हीं की प्यारी सखी राधारानी ने छिपा रखी है, तब वे राधा से अपनी बाँसुरी वापस माँगते हैं। लेकिन, राधा बाँसुरी पर तरह-तरह के आरोप लगाती हैं। वे उसे श्रीकृष्ण को मंत्र-तंत्र के ज़रिये से अपने वश में कर लेने वाली सौत बतलाती हैं और वापस देने से मना कर देती हैं। श्री कृष्ण उनसे बार-बार अनुरोध करते हैं। लेकिन, वे बार-बार मना कर देती हैं। तब वे अपनी बाँसुरी को निर्दोष बतलाते हुए उसके सम्बन्ध में राधा को समझाते हैं। वे कहते हैं कि भला बाँसुरी की इतनी औक़ात कहाँ कि वह मेरी राधा प्यारी से स्पर्धा करे? वह तो निर्जीव बाँस की बित्ते भर की एक टुकड़ी मात्र है। हाँ, लेकिन उनके लिए उपयोगी ज़रूर है और तभी वे बाँसुरी की उपयोगिता बतलाते हुए एक गीत में इस तरह कहते हैं:

“राधा रानी दे डालो बाँसुरी मोरी।/राधा रानी दे डालो बाँसुरी मोरी।/सोने की नहिं राधा रूपे की नाहीं।/हरे-हरे बाँसों की पोरी।/राधारानी दे डालो बाँसुरी मोरी।/काहे से गाऊँ राधा कैसे बजाऊँ॥काहे से लाऊँ गैया घेरी।/राधारानी दे डालो बाँसुरी मोरी।”

श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी बाँसुरी सोने या चाँदी की नहीं है। यानी वह महँगे धातु की नहीं है कि उसकी कोई उपयोगिता होगी। वह कटे हुए हरे बाँस की मात्र एक पोर—एक बित्ता भर की टुकड़ी ही तो है। निर्जीव बाँस का टुकड़ा सुंदर-सुमुखी राधा से स्पर्धा कैसे कर सकता है? यानी वह इतनी सक्षम नहीं है कि राधा की सौत बन सके। वह राधा के किसी काम की भी नहीं है कि राधा उसे अपने पास रखे। लेकिन, बनवारी श्री कृष्ण के गाने-बजाने का साधन अवश्य है। यही नहीं, वह गायों-बछड़ों को टेरने—आवाज़ लगाने के काम भी आती है। अगर राधा बाँसुरी वापस नहीं देंगी तो इन कामों में उन्हें मुश्किल अवश्य हो जाएगी। अतः, उन्हें बाँसुरी लौटा दें। इस तरह, श्रीकृष्ण अपनी बाँसुरी को हरे बाँस की बित्ते भर की टुकड़ी मात्र ही बतलाते हैं और उनसे वापस देने का अनुरोध करते हैं। लेकिन, उनकी मुरली सम्बन्धी वकालत काम नहीं करती है। राधा मुरली वापस नहीं देती हैं। बल्कि, नाराज़ राधा उन्हें गाने-बजाने व गायों-बछड़ों को बुलाने का दूसरा उपाय बतला देती हैं। द्रष्टव्य है:

“मुँहे से गाओ कृष्ण, हाथ से बजाओ
लठिया से लाओ गैया घेरी . . .”

गाने के लिए मुँह का उपयोग हो सकता है, हाथों से ताली बजाई जा सकती है। अर्थात्‌ मनोरंजन के लिए हाथ व मुँह ही काफ़ी हैं। और गायों-बछड़ों को लाठी से घेर कर इकट्ठा किया जा सकता है। राधा के इस कथन में उनकी हृदयगत नाराज़गी साफ़ झलकती है तथा मुरली वापस नहीं देने की ज़िद भी। ऐसे में भला हठी श्रीकृष्ण ही क्यों मानने लगे? यही नहीं, लीला की एक मात्र सहायिका योगमाया मुरली के बिना मुरलीमनोहर की लीला में व्यवधान भी तो पड़ रहा है। चाहे झगड़ा ही क्यों न हो, मुरली तो चाहिए ही। वे राधा को उकसाने के लिए उन्हें चोरिन साबित करने लगते हैं। ताकि ग़ुस्से में आकर वे मुरली दे दें। द्रष्टव्य है:

“तुहि मोर मुरली चुराई री ग्वालिन/तुहि मोर बंशी चुराई,/बहुत जतन से विधि निरमायो/शंकर रचेऊ बनाई/केतिक मंत्र-तंत्र दिए सारद/हीरा रतन जड़ाई। तुहि . . .”

इस झगड़े में मुरली संबंधित रहस्य खुल जाते हैं। श्रीकृष्ण कुछ बढ़कर भी बोल जाते हैं। जैसे चोरी गए सामानों की सूची बनाते समय अपनी संपन्नता दिखाने के लिए गृहस्थ पड़ोसियों को चोरी गए सामानों की बढ़ा-चढ़ाकर जानकारी देते हैं। परन्तु, क्रुद्ध राधा रानी का ध्यान उधर नहीं जाता है। बल्कि, उनको चोरिन सुनना सहन नहीं होता है और अब वे चूकना भी नहीं चाहती हैं। बहुत हो गया। आख़िर कितना सहा जाए। प्रेम के बदले में—प्रतिदान में वे प्रेम ही तो चाहती हैं। जिस पर उनका प्रेमिका होने के नाते अधिकार है।  लेकिन, श्रीकृष्ण उनके हिस्से का प्रेम उनकी सौत मुरली को देकर पहले ही धोखा कर चुके हैं। उसके ऊपर से गाली-गलौज भी कर रहे हैं। यह भला राधा रानी क्यों सहें? अतः, वे गाली का उत्तर गाली और उलाहनों से ही देती हैं। देखा जाए प्रस्तुत गीत:

“हा मंजार श्वान के लक्षण, गृह गृह माखन खाई/तेहि कारन तोहि बाँधे जसोदा/हम सब लियलाँ छोड़ाई/हा निर्लज्ज लाज नहिं तोही . . ./हम सब लिइयलाँ छोड़ाई।”

राधा प्यारी के मुँह से एक साँस में दी गई इतनी सारी गालियाँ श्रीकृष्ण भी नहीं सह पाते हैं और तब दोनों में झीकाझोरी—खींच-तान शुरू हो जाती है। द्रष्टव्य है:

“हरि के पीताम्बर खैंचति राधा/अंचरा धरे बनबारी।”

 इसी तरह, मुरली के बहाने से गाली-गलौज और खींचा-तानी में श्रीकृष्ण की लीला आगे बढ़ चलती है। 

राधा सहित गोपियाँ श्रीकृष्ण की मनमानी व मुरली के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो उठती हैं। भले ही श्रीकृष्ण मुरली को निर्दोष बतलाते हों। परन्तु, राधा को तो उसमें सौत के सभी लक्षण दिखाई देते हैं, देखा जाए:

“अधर-रस मुरली सौतिन लागी॥
जा रस को षट् ऋतु तप कीनो सो रस पिबत सभागी॥
कहाँ रही कहँ ते यह आई कौने याहि बुलाई॥
सूरदास प्रभु हम पर ताकों कीन्ही सौत बजाई।”1

श्रीकृष्ण के जिस अधरामृत का पान करने के लिए गोपियों सहित राधा अनेक प्रयत्न (तपस्या) करती हैं। पर, सफल नहीं हो पाती हैं। सुभागी मुरली श्रीकृष्ण की अधर-शय्या पर बैठकर उसी अधरामृत का इच्छा भर पान करती है। यही नहीं, उनकी मुँहलगी बनकर उनसे अपनी हर आज्ञा का पालन करवाती है। वह पत्नी होकर पति की सेवा करने के बदले निर्लज्जता पूर्वक पति से ही पैर दबवाती है। इतने पर भी वह तृप्त नहीं होती है। वह श्रीकृष्ण के अत्यंत निकट होकर राधा आदि गोपियों पर क्रोध भी करवाती है। श्री कृष्ण पर मुरली का प्रभाव इतना अधिक बढ़ चुका है कि उन पर भी अपना आदेश चलाती है। उसके वश में होने के कारण कोमल अंगों वाले श्री कृष्ण कष्ट सहकर भी उसकी इच्छा के मानते हैं और कमर टेढ़ी कर त्रिभंगी मुद्रा में घंटों खड़े रहते हैं। वह धृष्ट मानवती पत्नी की तरह श्रीकृष्ण से हर तरह के सुख पाती है। फिर भी, श्री कृष्ण की बचपन की सखी श्री राधा उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती है। न उसे रोक ही पाती है। ‌ दुःख, ईर्ष्या और विवशता भरे राधा के इस कथन पर दृष्टिपात किया जाए, जिसमें राधा कहती हैं कि यह घोर आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी ख़ामी के बावजूद वह गोपाल की प्रिया बनी हुई है। श्रीकृष्ण उसकी कोई ग़लती नहीं मान रहे हैं और मानेंगे कैसे? मुरली के छल-छंद में फँसे श्रीकृष्ण की समझ ही कुंद हो चुकी है। विवश राधा रोने के अलावा कुछ कर भी तो नहीं पा रही हैं। दुखों के दलदल में फँसी राधा अपनी सखी को सारी बातें बतलाती हैं। उनके वे करुणोत्पादक शब्द सुनकर किस सहृदय का मन द्रवित न हो जाए? द्रष्टव्य है:

“मुरली तऊ गुपालहिं भावति॥
सुन री सखी जदपि नंद नंदन नाना भाँति नचावति॥
राखति एक पाँइ ठाढौ करि अति अधिकार जनावति॥
कोमल अंग आज्ञा गुरु कटि टेढ़ी ह्वै आवति॥
आपुनि पौढ़ि अधर सज्या पर कर पल्लव सन्‌ पद पहुलावति॥
भृकुटि कुटिल कोपि नासा पुट हम पर कोपि कुपावति॥
सुर प्रसन्न जानि एकौ छिन अधर सुसीस डुलावति।”2

मानिनी राधा अपनी सारी पुरानी बातें भूलकर, सब मान छोड़कर श्री कृष्ण के अनुकूल हो जाना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि किसी भी उपाय से श्रीकृष्ण को अपनी तरफ़ आकर्षित किया जाए। इसीलिए, वे उनसे कहती हैं कि अगर तुम कहो तो मैं हर तरह से तुम्हारे अनुकूल हो जाऊँ। तुम्हारे लिए मैं वह सब करूँगी, जो तुम्हें बहुत रुचिकर है। मैं तुम्हारे समक्ष तुम्हारा ही प्रतिरूप बनकर तुम्हें ख़ुश करूँगी। तुम्हारे लिए मैं तुम्हारी वेशभूषा बनाऊँगी। ठीक वैसे ही जैसे तुम दीखते हो। मैं वह सब नाटक करूँगी जो तुम्हें प्रिय है। लेकिन, हे माधव, मुझे क्षमा करना, मैं तुम्हारे वेश को पूरा करने के लिए तुम्हारे अधरों पर रहने वाली इस कुटिल मुरली को अपने अधरों पर नहीं रख पाऊँगी। देखें:

“मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माल गरे पहिरौंगी/ओढि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरौंगी/भावतो वो ही मेरो रसखान सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी/या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।”3

बड़े दुःख के साथ राधा को कहना पड़ता है कि मुरली से जुड़ पाना असंभव है। भला सौत को कोई गले लगा सकता है? 

“बँसुरिया सौति से अधिक दहै।”

राधा को मुरली विषैली लगती है। जादू-टोने से भरी प्रतीत होती है। क्योंकि, इसी मुरली की तान पर मोहित होकर कान्हा प्रेम पड़ी थी, जो प्रेम आज जानलेवा साबित हो रहा है। देखा जाए:

“बंसी बजावत आनि कढ़ी सो गली में अली
कछु टोना सों डारौ/हेरि चितै तिरछी करि दृष्टि चलौ गयौ मोहन मूठि सी मारै।”4

उसी दिन जो मूठ मार दी गई तभी से राधा रानी श्रीकृष्ण की दीवानी हो गई। पगला गई है। वह गाँव-समाज का लाज-लिहाज, ऊँच-नीच सब बिसरा चुकी है। अब अगर वह उसी मुरली को अपने ओंठों से लगाती है तो पता नहीं क्या होगा? उदाहरणार्थ निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

“मोहन की मुरली सुनिकै वह बौरि ह्वै आनि अटा चढि झाँकी/गोप बड़ेन के दीठि बचाइकै दीठि सों दीठि मिली दुहुँ झाँकी/देखत मोल भयौ अंखियान को को करै लाज कुटुंब पिता की/कैसे छुटाई छुटै अंटकी रसखानि दुहुँ की बिलोकनि बाँकी।”5

राधा कहती हैं कि तब श्रीकृष्ण के प्रेम के सम्मोहन में पड़ी मैंने अपने बंधु-बांधवों और अपनी माता की सिखावन नहीं मानी। न ही झिड़कियों और गालियों पर ही ध्यान दिया था। सब इसी मुरली की मोहिनी के कारण हुआ। इसी मुरली के कारण मैं अपना सबकुछ गँवा बैठी। दुख से व्याकुल राधा बार-बार सारी बातों और सारी परिस्थितियों को याद करती है। द्रष्टव्य है:

“चली बन बेनु सुनत सब धाइ।
मातु पिता बांधव सब त्रासत, जाति कहाँ अकुलाइ॥
सकुच नहीं, संका कछु नाहीं, रैनि कहाँ तुम जाति॥
जननी कहति दई की घाली, काहे कौं इतराति॥
मानति नहीं और रिस पावति, निकसी नातौ तोरि॥
जैसे जल प्रवाह भादौ कौं, सो को सकै बहोरि।”6

कितना समझाया था सबने? लेकिन, अब क्या किया जाए? कोई भी उपाय कारगर नहीं हो रहा है। एक बार तो थकी-हारी राधा यहाँ तक कह देती हैं कि:

“जौं कोउ चाहै भलो अपनो तौ 
 स्नेह न काहू से कीजिए माई।”

और भी:

“प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ
 प्रीति पतंग करी पावक सौं
 आपन प्रान दह्यौ।”7

प्रीत का यही इतिहास रहा है। यद्यपि प्रीत करके कभी भी किसी को भी सुख प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन, मोहन के प्रेम के बिना यह संसार किसी काम का है भी तो नहीं। इसी के लिए नंददास कहते हैं:

“नैन बैन अरु प्राण में मोहन-गुन भरपूर॥
प्रेम-पियूषै छाँडि कै कौन समेटै धूरि।”

अतः, अपने दुःख सुनाने के बाद राधा रो-कलप कर शांत नहीं हो जाती है। शांत होतीं भी कैसे? हृदय में माखन चोर मनमोहन त्रिभंगी मुद्रा में विराज रहे हैं। वह कसक उन्हें चैन कहाँ होने दे रही थी? वे उन्हीं के लिए व्याकुल हो रही हैं। पीड़ा से तड़प रही हैं। 

“उर में माखन चोर गडे/अब कैसेहूँ निकसत नाहीं ऊधौ/तिरछे ह्वै जु गड़े।”8

और वे अपनी सहेलियों के साथ मुरली के विषय में गहरी छान-बीन करती हैं। इसमें उनकी सखियाँ पूरी मदद करती हैं। क्षण-क्षण की ख़बर लाती हैं। एक कहती है:

“मुरली भई रहति लड़बौरी।” तो दूसरी कहती हैं, “मुरली अपने सुख को धाई/सुंदर स्याम प्रवीण कहावत, कहाँ गई चतुराई।” और तीसरी कहती है: “मुरली आपु-स्वारथिनि नारि/ताकि हरि प्रतीति मानत हैं . . . ।” चौथी कहती है: “मुरली हम कहँ सौति भई . . . मुरली हम पर रोष भरी/अंस हमारौ आपुन अंचवत नैकहुँ नाहिं डरी . . . दिन दिन यह प्रबल होति, अधर अमृत पाई। मोहन कौं इहिं तौ कछु मोहिनी लगाई/” . . . दूरि कौन सौं होइगी, लुबुधै हरि जासौं/अब काहे कौं झखति हौ, वह भई लडैती।” और एक सखी मुरली के प्रेम के तरीक़े का इस प्रकार बखान करती है। देखा जाए:

“मुरली हरि कौं भावै री/सदा रहति मुख ही सौं लागी, नाना रंग बजाबै री/छहों राग छत्तीसों रागिनी, इक इक नीकैं गावै री/जैसे हिं मन रीझत है हरि कौं, तैसेहि भाँति रिझावै री/अधरन कौं अमृत पुनि अंचवत, हरि के मनहिं चुरावै री। गिरिधर कौं अपनौ बस कीन्हे, नाना भाँति नचावै री।”9

इस तरह, ख़बरों का ढेर लग जाता है। सभी ख़बर सुनाती हुई अपनी तरफ़ से सलाह भी देती जाती हैं। उन सबों की बातों का सार है कि महास्वार्थी मुरली अपने कुल को मिटाकर आने वाली एक बेशऊर, हठी, कठोर और निर्लज्ज स्त्री है। सभी राग-रागिनियों की ज्ञाता और उन्हें गाने में प्रवीण वह महाचतुर भी है। वह श्रीकृष्ण को मोहने के लिए सब कुछ कर रही है और अपने को चतुर शिरोमणि समझने वाले श्रीकृष्ण की तो बुद्धि ही भ्रमित हो चुकी है। इसीलिए उसके ऊपर विश्वास कर रहे हैं। ठीक ही है, जैसे ग्वाला बुद्धि वाले श्री कृष्ण कठोर हैं, वैसी ही बाँस से बनी मुरली भी कठोर और निर्मम है। चूँकि वनवारी श्रीकृष्ण को गायों को चराने के लिए लाठी-लकुटी की ज़रूरत होती है, इसलिए उसी बाँस की बनी मुरली की इन पर चलती हो गई है। मृत बाँस की बनी होने के कारण यह निष्प्राण है। इसी से, इसे जीवित रखने के लिए कान्हा अपना अधरामृत इसे पिलाते रहते हैं (जौं लौं मधु पीवति रहति, तौं लौं जीवति है)। वह स्वयं तो अमृत पान करती ही है, वह उसे बरबाद भी कर रही है। क्योंकि, बाँस की बनी उसके पास अमृत रखने की कोई जगह तो है नहीं। हमने जिस अधरामृत हेतु कात्यायनी व्रत किया था, वह निष्फल हो गया। कहती है–“जा रस कौं, व्रत करि तनु गारयौ, कीन्हीं रई रई/पुनि पुनि लेति, सकुच नहिं मानति कैसी भई दई/कहा धरै वह बाँस”। वे राधा को समझाकर कहती हैं कि जब ईश्वर भी उसी के पक्ष में हो गये हैं, तब तुम बावरी बनकर उससे क्यों लड़ती जा रही हो। वे दोनों एक जैसे ही हैं। इसीलिए, दोनों में प्रेम बना हुआ है। देखा जाए:

“बावरी, कहा धौं अब बाँसुरी सौं तू लरै/
 उनहीं सौं प्रेम-नेम, तुम सौं नाहिन आली।”10

पर, वास्तविकता कुछ और भी है। गहराई से पता करने पर वे पाती हैं कि बास्तव में मुरली ने बहुत तपस्या के परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त किया है। इससे संबंधित पद का उदाहरण द्रष्टव्य है:

“मुरली तप कियौ तनु गारि॥
नेक हू नहिं अंग मुरकी जब सु लाखी जारि॥
सरद ग्रीषम प्रबल पावस खरी इक पग डारि॥
कटतहू नहिं अंग मोरयो साहसिनि अति नारि॥
रीझै लीन्हें स्यामसुंदर देति हौं कत गारि॥
सुर प्रभु तब ढरे हैं री गुननि कीन्हीं प्यारि।”11

वे कहती हैं कि इस नारी ने श्रीकृष्ण को पाने के लिए पंचाग्नि तापी है। जब छेद करने के लिए तपे लोहे से इसे दागा गया तब कहीं से टेढ़ी-मेढ़ी नहीं हुई। जाड़ा, गर्मी और मूसलाधार बारिश में भी एक पैर पर खड़ी रही। यही नहीं, काटे जाते समय डर कर इसने अपने अंग नहीं मोड़े। ऐसी साहसी नारी ने अगर अपने गुणों से श्रीकृष्ण को रिझा लिया तो हम इसे गाली क्यों दे रही हैं? यानी कि वह तो श्रीकृष्ण के प्यार की अधिकारिणी है ही। यह सब कहती हुई राधा अपनी गुणवती सौत मुरली से हार मान लेती हैं। वे कहती हैं कि अब जब स्वयं श्रीकृष्ण हर तरह से बाँसुरी के वश में हो गये हैं, तब ब्रज में रहना मुश्किल भी है और बेकार भी। अतः, अब हमें ब्रज छोड़ देना चाहिए। 

“कान्ह भये बस बाँसुरी के अब कौन सखी हमको चहिहैं/निसिद्यौस रही संग साथ लगी यह सौतिन ताप न क्यों सहिहैं/जिन मोहि लियौ मनमोहन को रसखान सदा हमको दहिहैं/मिलि आओ सखी सब भागि चलैं अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहैं।”12

हर तरफ़ से निराश होकर राधा कहती हैं कि अब जब श्रीकृष्ण पूरी तरह मुरली के वश में हो चुके हैं और हमारी एक भी नहीं चल रही है तब यहाँ ब्रजभूमि में हमारे रहने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि, रात-दिन मुरली को अपने मोहन के पास देखकर हम सदा सौतिया डाह में जलती ही रहेंगी। हम उनकी ओर देखना न भी चाहें तो भी यह बैरिन मुरली हमारे दुख से टीसते हृदय में हूक उठाने के लिए तेज ध्वनि से कूक न उठेगी, इसकी क्या गारंटी है? बल्कि वह तो अपनी जीत प्रदर्शित करने के लिए ऐसा अवश्य करेगी। इसीलिए, अब यहाँ किसी तरह के सुख की आशा व्यर्थ है। उन्हें आशंका होती है कि ‘बैरिनि बाँसुरी फेरि बजी हैं।’ यानी वह फिर-फिर बजेगी। अवश्य बजेगी। 

मुरली प्रसंग से संबंधित संपूर्ण पदों में मुरली का मानवीकरण हो गया है। कवि सूरदास एवं रसखान ने मुरली का ऐसा मनोहर बिंब रचा है, जो पूरी रोचकता से कथ्य को स्पष्ट करता है। 

यह हुआ मुरली प्रसंग का लौकिक पक्ष। 

ऊपर के उद्धरणों में यद्यपि श्रीकृष्ण अपनी मुरली का वास्तविक रहस्य नहीं खोलते हैं। तथापि, जानकार कहते हैं कि मुरली योगमाया है। अर्थात् उनकी लीलासहचरी। एक प्रसंग में मुरली को विधाता ब्रह्माजी की पुत्री बतलाया गया है, जिन्हें स्वयं ब्रह्माजी ने नाराज़ होकर जड़ हो जाने का शाप दे दिया था। तब लंबे समय की कठिन तपस्या के परिणामस्वरूप भगवान विष्णु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का आशीर्वाद दिया था और कहा था कि यद्यपि तुम जड़ रूप में मुझे प्राप्त होगी। लेकिन, मैं तुममें प्राण भर दूँगा। तब तुम जड़ को भी चैतन्य बनाए रख सकोगी। अगले जन्म में वही शापित ब्रह्मापुत्री सुरीली मुरली बनती है तथा श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त करती है। उनकी मोहिनी बनकर तीनों लोकों को सम्मोहित करती हैं। एक दूसरी कथा के अनुसार कृष्णावतार में भगवान शिव श्रीकृष्ण से जब मिलने जाते हैं तब वे महर्षि दधीचि की अस्थि को घिसकर सुंदर मुरली बनाकर उन्हें आशीर्वाद सहित भेंट करते हैं, जिसे श्री कृष्ण सदा अपने पास रखते हैं (इसी बात की चर्चा श्री कृष्ण राधाजी को मुरली चोरी के प्रसंग में ‘शंकर रचेऊ बनाई’ कहकर करते हैं)। मुरली के विषय में तीसरी कथा है कि लंकादहन के बाद थक गए हनुमान जी के पैर दबाकर श्रीराम उनकी थकान मिटाना चाहते थे। पर, अपने स्वामी श्रीराम को हनुमान जी ने मर्यादा भंग होने का कारण बतला कर रोक दिया था। श्रीराम के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने उनसे कहा था कि यह इस जन्म में सम्भव नहीं है। फिर, कृष्णावतार में उन्हें सेवा का अवसर देने का वचन दिया था। कृष्णावतार में वे एकादश रुद्र ही मुरली के रूप में आए और मुरली के नौ छेदों को बन्द करने व खोलने के क्रम में भगवान विष्णु की इच्छा पूरी हो सकी। मुरली बने भगवान शिव ने कृष्णावतार में उनके चौंसठ कलाओं में से शृंगार पक्ष को उभारने तथा सफल बनाने में उनका साथ निभाया। इस तरह, रामावतार से लेकर कृष्णावतार तक हनुमान और मुरली के रूप में वे उनके साथ लगे रहे। चौथी कथा के अनुसार वनवास काल में श्रीराम ने रंग व गंध विहीन कठोर पौधे को पल्लवित-पुष्पित पौधे के बदले महत्त्व दिया था। तभी उस पौधे ने उनसे प्रेम की याचना की थी। तब उसे उन्होंने कृष्णावतार में इच्छा पूर्ति का वरदान दिया था। गूगल पर मिलने वाली इन चार कथाओं में कौन सही है कौन ग़लत? इसके पीछे न पड़कर श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त सूरदास के पदों की ओर जाना उचित होगा, जिसमें उन्होंने ‘शंकर रचेऊ बनाई’ कहकर दूसरी कथा को प्रामाणिक बतलाया है। 

कहते हैं कि धन्वा नामक वंशी बेचने वाले से ख़रीदकर जब श्रीकृष्ण ने पहली बार मुरली बजाई थी, तभी इतनी सुंदर धुन निकली थी जैसे किसी कुशल वंशीवादक ने बजाई हो। सुनकर धन्वा मंत्रमुग्ध हो गया था। 

सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवि श्रीकृष्ण की मुरलीधुन का प्रभाव ब्रज की नारियों के अतिरिक्त गाय आदि पशु-पक्षियों के साथ-साथ ऋषि-मुनियों तक बतलाते हैं। यही नहीं, श्रीकृष्ण की मुरली की मोहिनी से सम्मोहित देवी-देवता गण भी वृंदावन में चले आते हैं। वे उसमें तल्लीन होकर सुनते हुए मूर्तिवत हो जाते हैं। मुरली की धुन का प्रभाव तीनों लोगों तक होता है। देखा जाए:

“इन्द्रादिक ब्रह्मादिक मोहे 
 मोहे ब्रज की नारि
 जै जै कृष्ण कन्हैया
 तीन लोक चराचर मोहे
 मोहे कुब्जा नारि
 जै जै कृष्ण कन्हैया . . .” इत्यादि। 

जगत के चराचर को मोहने वाली यह मुरली सामान्य मुरली—हरे बाँसों की पोरी मात्र हो भी नहीं सकती थी। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्रीमद्वल्लभाचार्य महाराज ने अपनी ‘सुबोधिनी टीका’ के वेणुगीत में इसकी व्याख्या के क्रम में कहा है कि वेणुगीत से भगवान के नामात्मक और रूपात्मक स्वरूप का बोध होता है। सच ही है, क्योंकि वेणु तो स्वर वाली वंशी है, जो मुखर होकर अपना प्रभाव उत्पन्न करती है। श्रीकृष्ण द्वारा गीत होने के कारण यह वेणुगीत चराचर को मोहने वाला है। उन्हें एक अशेष में तन्मय करके शेष का मोह छुड़ा देने वाला सिद्ध हो जाता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने वेणुगीत में इसकी विशद व्याख्या की है और उसी व्याख्या की छाया सुर के पदों में स्पष्ट है। इस सम्बन्ध में डॉ. रामकुमार वर्मा ने लिखा है—“श्री कृष्ण की मुरली योगमाया है। रास वर्णन में इसी मुरली की ध्वनि से गोपी की रूपात्माओं का आवाहन होता है, जिससे समस्त बाहरी आडंबरों का विनाश और अलौकिक सम्बन्धों का परित्याग कर दिया जाता है। गोपियों के परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उनके साथ रासलीला होती है। सोलह सहस्र गोपी-गोपिकाओं के बीच में श्रीकृष्ण वैसे ही हैं, जिस प्रकार असंख्य आत्माओं के बीच में परमात्मा हैं। यही रूपक है। इस अलौकिक चित्रण के पीछे सूरदास की यही अलौकिक भावना छिपी हुई है।” . . . मुरली सम्बन्धी पदों के भीतर चार तरह की व्यंजना पाई जाती है: (क) अलौकिक प्रभाव दिखाकर कृष्ण और ब्रजलीला की अलौकिकता दिखाना, (ख) रूपक की सृष्टि—योगमाया है मुरली, (ग) विप्रलंभ की योजना—गोपियाँ मुरली से ईर्ष्या-द्वेष रखती हैं। साधारणतः इस प्रकार की बात को मानसिक विश्रंभन कहा जाएगा; परन्तु इससे यहाँ आध्यात्मिक अर्थ की सिद्धि होती है। यह आध्यात्मिक अर्थ है आध्यात्मिक विरह, (घ) शृंगार काव्य की दृष्टि से मुरली उद्दीपन है।”13

श्रीकृष्ण की मुरली की मोहिनी शक्ति के विषय में बिहारी, नंददास और रसखान प्रभृति ने श्रीकृष्ण भक्ति से सम्बन्धित रचनाओं में ख़ूब लिखा है। सूरदास कहते हैं:

“जब हरि मुरली अधर धरत/थिर चर चर थिर, पवन थकित रहैं, जमुना जल न बहत/खग मोहैं, मृग जूथ भूलाहीं, निरखि मदन-छवि छरत/पसु मोहैं, सुरभी बिथकित, तृन दंतनि टेकि रहत/सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं, ध्यान न तनक गहत/सूरदास भाग हैं तिनके, जो या सुखहिं लहत।”14

तो कवि रसखान लिखते हैं:

“बंसी में मोहन मंत्र बजाय कै मोहि लई बपुरी अबला सब/. . . व्यापि रही चर थावर लै घन-आनंद घोर घमंडिनि की भव/कानन मूंदेउ तैसेइ बाजति क्यों भरियै करियै सु कहा अब”15

और श्री कृष्ण के पीछे भागने पर माता-पिता के द्वारा झिड़की गई घनानंद की राधा तो मोहिनी धुन के आकर्षण बचने के लिए कानों में उँगलियाँ डालकर बंद कर रही हैं। देखा जाए—‘काननि दै अंगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहैं।’ लेकिन, मुरली के प्रभाव से भला कौन बच पाया? राधा तो राधा, स्वयं स्वर्गलोक के स्वामी भी ठगे से रह जाते हैं। 

मुरली मनोहर श्री कृष्ण की मुरली की आध्यात्मिकता को सुस्पष्ट करते हुए आधुनिक कालीन कविवर दिनकर ने अपनी कविता ‘रास की मुरली’ में महारास के समय मुरली के आवाहन और आकर्षण में पड़ी हड़बड़ाती हुई गोपिकाओं के बड़े मनोरम चित्र प्रस्तुत किये हैं। वे कहते हैं कि राधा आदि गोपियाँ तैयार ही हो रही थीं कि महारास की मुरली बज उठी। किसी ने एक ही आँख में काजल लगाया है और दूसरी में लगाने वाली हैं तो कोई एक पैर को ही अलक्तक दे पाई है तथा कोई कंगन में कील डालने ही वाली है कि रास की मुरली बज उठी है। वे सभी परेशान हैं कि आधी-अधूरी सज्जा में वे श्री कृष्ण के सम्मुख कैसे जाएँ? द्रष्टव्य है:

“अभी तक कर पाई न सिंगार/रास की मुरली उठी पुकार/गई सहसा किसके रंग में भींग/वकुल-वन में कोकिल की तान। चाँदनी में उमड़ी सब ओर/कहाँ के मद की मधुर उफान। . . . सिहरते पग सकता न संभाल/कुसुम कलियों पर स्वयं अनंग/ठगी-सी रुकी नयन के पास/लिए अंजन उँगली सुकुमार/अचानक लगे नाचने मर्म/रास की मुरली उठी पुकार/उठे उर में कोमल हिल्लोल/मोहिनी मुरली का सुन नाद/लगा करने कैसे तो हृदय/पड़ी जाने जैसे कुछ याद/सकूँगी कैसे स्वयं संभाल/तरंगित यौवन का रसवाह/ग्रंथि के ढीले कर सब बंध/नाचने को आकुल है चाह/. . . न दे पाई कंकन में कील/रास की मुरली उठी पुकार/. . . आज केवल भावों का लग्न/आज निष्फल सारे शृंगार/अलक्तक-पद का अंजन श्रेय/न कुंकुम की बेंदी अभिराम/न सोहेगा अधरों में राग/लोचनों में अंजन घनश्याम/. . . हृदय में संचित रंग उँडेल/सजा नयनों में संचित राग/भींगकर नख-शिख तक सुकुमारि/आज कर लो निज सुफल सुहाग . . . महालय का यह मंगल काल/आज भी लज्जा का व्यवधान। तुम्हें तनु पर यदि नहीं प्रतीति/भेज दो अपने आकुल प्राण/कहीं हो गया द्विधा में शेष/आज मोहन का मादक रास/सफल होगा फिर कब सुकुमारि! तुम्हारे यौवन का मधुमास/रही बजा आमंत्रण के राग/श्याम की मुरली नित्य नवीन/विकल-सी दौड़-दौड़ प्रतिकाल/सरित हो रही सिंधु में लीन/रहा उड़ तज फेनिल अस्तित्व/रूप पल-पल अरूप की ओर/तीव्र होता ज्यों-ज्यों जयनाद/बढ़ा जाता मुरली का रोर/सनातन महानंद में आज। बाँसुरी कंकन एकाकार/बहा जा रहा अचेतन विश्व/रास की मुरली रही पुकार।”16

उपर्युक्त उदाहरण में लौकिक और आध्यात्मिक दोनों पक्षों का सुंदर समावेश कर दिनकर ने न केवल मुरली के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर किया है, वरन् श्री कृष्ण के महारास के आध्यात्मिक पक्ष को भी। इसी के लिए सूरदास के श्रीकृष्ण राधा को लौकिक बातों से ऊपर उठकर स्वयं को पहचानने के लिए कहते हैं। देखा जाए:

“ब्रजहिं बसै आपुहिं बिसरायौ/प्रकृति पुरुष एकहिं करि जानहु, बातनि भेद करायौ/जल थल जहाँ रहौं तुम बिन बेद उपनिषद् गायौ/द्वै तन एक जीव हम दोऊ सुख कारण उपजायौ/ब्रह्म रूप द्वितिया नहिं कोऊ तुम सम तिया जनाऊ।”17

 प्रो. प्रतिभा राजहंस, हिन्दी-विभाग, मारवाड़ी महाविद्यालय, भागलपुर
pratibha.rajhans40@gmail.com

सन्दर्भ:

  1. स्वर्ण काव्य मंजूषा, सं. डॉ कृष्ण नंदन पीयूष, मोतीलाल बनारसी दास, पृ. 105

  2. वही

  3. स्वर्ण मंजूषा, सं. नलिन विलोचन शर्मा एवं केशरी कुमार, मोती लाल बनारसी दास पृ. 122

  4. कविता कोश, गूगल

  5. वही

  6. रास का आरंभ: सूरदास, स्वर्ण काव्य मंजूषा, पृष्ठ-31, 

  7. वही

  8. वही

  9. मुरली माधुरी: सूरदास, सुरसागर, खण्ड-1, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 666

  10. वही

  11. सूरदास, स्वर्ण काव्य मंजूषा, पृ. 130

  12. कविता कोश

  13. सुर का मुरली वर्णन: सूरदास, डॉ. कृष्ण नंदन ‘पियूष’, स्वर्ण काव्य मंजूषा, पृ. 103

  14. वही, पृ. 25

  15. रसखान, स्वर्ण काव्य मंजूषा, पृ. 110

  16. रास की मुरली: दिनकर, संचयिता, भारतीय ज्ञान पीठ, प्र. वर्ष-2000

  17. रूप रहस्य: सूरदास, स्वर्ण काव्य मंजूषा, पृ. 35

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