तनिक न आये शर्म
दौलतराम प्रजापतिहवा-हवाई
झूठे लगते
सारे रचना कर्म॥
नींद न टूटी सिंहासन की
आहत हुई भावना मन की
रहे अबाँचे पीड़ाओं के
अंतरभेदी मर्म॥
दिग्भ्रमित हैं सभी महारथी
कौन पार्थ का बने सारथी
अब नस्लों को कौन सिखाये
आकर मानव धर्म॥
बेशर्मी की हद है जीना
ऊँची गर्दन चौड़ा सीना
लज्जा भी लज्जित है लेकिन
तनिक न आये शर्म॥
दौलतराम प्रजापति