मौसमों की चल रही है ख़ूब मनमानी
दौलतराम प्रजापतिआसमाँ में बढ़ रहीं हैं
मेघों की हल चल
कौन जाने बिजलियाँ
या कि गिरे पानी॥
हो गईं हैं सब तरफ़
सारी दिशाएँ गुम।
छुप गया सूरज धरा को
घेरता है तम॥
जो भी होगा सब सहेगी
त्रास ज़िंदगानी॥
है अनिश्चित कुछ भी अब
कहना बहुत मुश्किल।
साँस है ठहरी इधर
ज़ोरों धड़कता दिल॥
मौसमों की चल रही है
ख़ूब मनमानी॥