तब कुछ-कुछ जानोगे मुझको
बृज राज किशोर 'राहगीर'
काया के बाह्य कलेवर से, तुम क्या पहचानोगे मुझको?
थोड़ा अंतर में उतरोगे, तब कुछ-कुछ जानोगे मुझको॥
कितनी झीलें मेरी आँखों के पानी से आबाद हुईं,
कितने सागर मुझसे कितनी गहराई लेकर लौट गए।
वादी-वादी ये सन्नाटे मेरे ही तो बिखराए हैं,
कितने जंगल नीरवता की रानाई लेकर लौट गए।
कुछ मुस्कानों के अवसर से, तुम क्या पहचानोगे मुझको?
पीड़ा की राह बुहारोगे, तब कुछ-कुछ जानोगे मुझको।
साहस के कितने पल मेरी हुंकारों से जीवंत हुए,
लक्ष्यों ने मुझसे पूछ-पूछकर ही तो पथ बनवाए हैं।
कितने ही सपने पहले तो दुविधा के दलदल में भटके,
लेकिन मेरे संकल्पों ने सब असमंजस सुलझाए हैं।
दो-चार बार मिलने भर से, तुम क्या पहचानोगे मुझको?
बरसों तक आओ जाओगे, तब कुछ-कुछ जानोगे मुझको॥
कष्टों को मीत कहा मैंने, संघर्षों को साथी माना,
काँटों की संगत में भी मैं, फूलों जैसा मुस्काता हूँ।
तूफ़ानों से टक्कर लेना सीखा है अपने पुरखों से,
रातों के अँधियारे में ख़ुद, दीपक बनकर जल जाता हूँ।
कविता के शब्द और स्वर से, तुम क्या पहचानोगे मुझको?
जब गहरे अर्थ तलाशोगे, तब कुछ-कुछ जानोगे मुझको॥