क्या करूँ
बृज राज किशोर 'राहगीर'सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
स्वयं व्याकुल हैं व्यथायें, क्या करूँ।
आधुनिकता के चले यूँ सिलसिले।
ढह रहे हैं मान्यताओं के किले।
हैं भँवर में भावना की किश्तियाँ;
दिग्भ्रमित हैं सोच वाले क़ाफ़िले।
खो गई सारी दिशायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
जो पुरातन था, सभी बोझल हुआ।
आस्थाओं का शिखर ओझल हुआ।
आजकल तो रक्त का सम्बन्ध भी;
स्वार्थ के जल से भरा बादल हुआ।
शुष्क हैं मन की घटायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।
इक युवा चलती सड़क पर मर गया।
हर कोई उस रास्ते से घर गया।
कोई रुकने के लिए राज़ी न था;
शहर पूरा ही किनारा कर गया।
मृत हुई सम्वेदनायें, क्या करूँ।
सुप्त सबकी चेतनायें, क्या करूँ।