शब्द उतरे हैं समर में
बृज राज किशोर 'राहगीर'
अर्थ के ले अस्त्र कर में।
शब्द उतरे हैं समर में॥
शब्द, भूखी बस्तियों के
दर्द को आवाज़ देंगे।
मूक वाणी की कसक को,
राजधानी ले चलेंगे।
लाएँगे बाहर उसे, जो
अग्नि बैठी है उदर में॥
ढूँढ़कर अन्याय के गढ़,
आक्रमण करते रहेंगे।
वंचितों की वेदना को,
शब्द चिल्ला कर कहेंगे।
पीर की अभिव्यक्ति होगी,
गूँथकर आक्रोश स्वर में॥
राष्ट्र-निष्ठा की डगर पर,
शब्द गीतों में ढलेंगे।
प्रेरणा के दीप बनकर,
देश में घर-घर जलेंगे।
हर जगह होंगे प्रकाशित,
गाँव में हो या शहर में॥
शब्द फूलों से सुकोमल,
शब्द ही मारक बने हैं।
भाव की हर गूढ़ता के,
शब्द विस्तारक बने हैं।
शब्द को समझे बिना हैं,
लोग कविता के सफ़र में॥