बिखरा-बिखरा सा है मन

01-11-2024

बिखरा-बिखरा सा है मन

बृज राज किशोर 'राहगीर' (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

बिखरा-बिखरा सा है मन, अवलंबन दो प्रिय। 
नेह भरे दो नयनों का सम्मोहन दो प्रिय॥
 
जाने कब-कब की यादों ने दस्तक दी है, 
उठ बैठी है हर पीड़ा अंगड़ाई लेकर। 
भाव जगत में कोलाहल ही कोलाहल है, 
नींद बसी जा कोसों दूर विदाई लेकर। 
मस्तक सहलाकर उसको आमंत्रण दो प्रिय॥
 
अपमानों के दंश सलामत हैं स्मृतियों में, 
अपनों ने जो घाव दिए, रिसते हैं अब तक। 
उलझे-उलझे हैं रिश्तों के ताने-बाने, 
भावुकता में डूबा मन सुलझाए कब तक। 
गोकुल के कटु अनुभव को वृंदावन दो प्रिय॥
 
मन की कड़वाहट थोड़ी तो कम हो जाए, 
द्वेष तिरोहित कर जग पर विश्वास करूँ फिर। 
बिसरा दूँ जो गुज़रा, जैसा भी गुज़रा है, 
खण्डित-खण्डित सम्बंधों की नींव धरूँ फिर। 
इन प्रस्तावों को अपना अनुमोदन दो प्रिय॥

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