घट ही रीत गया
बृज राज किशोर 'राहगीर'रही व्यस्तता, जीवन जल्दी-जल्दी बीत गया॥
बच्चे जब छोटे थे, बिलकुल फ़ुर्सत नहीं मिली।
उन्हें देखकर ही रहती थी तबियत खिली-खिली।
लड़ना पड़ता था अभाव से, साधन कम ही थे,
किन्तु बाज़ियाँ सब मैं हँसते-हँसते जीत गया॥
दफ़्तर में भी दायित्वों का बोझ रहा भारी।
अपने काँधों पर कुछ ज़्यादा थी ज़िम्मेदारी।
लक्ष्यों को पूरा करने में ऐसे लगे रहे,
पल-पल रिसता रहा, समय का घट ही रीत गया॥
बड़े हुए बच्चे, अपने सपनों में मस्त हुए।
और इधर हम कितने ही रोगों से ग्रस्त हुए।
उनकी ख़ुशियों में हम हरदम शामिल रहते हैं,
पर हाथों से फिसल-फिसल जीवन-नवनीत गया॥
शेष बचा है जो अब, सपने जितना अपना है।
हर पल बीते हुए समय की माला जपना है।
अब न व्यस्तता और न ज़िम्मेदारी बाक़ी है,
लेकिन जीने की धुन, साँसों का संगीत गया॥