सहम जाता हूँ मैं
निर्मला कुमारीसहम जाता हूँ
सच्चाई दर्शाता है दर्पण इसीलिए
सहम जाता हूँ मैं,
छिपाना चहता हूँ अपने को मन के दर्पण से
किन्तु वो सत्य दिखाता है —
सोच कर डर जाता हूँ मैं।
ख़ुद को निहारना आदत है मेरी
देख कर अपने प्रतिबिंब की
ख़ुद तारीफ़ करता हूँ मैं,
कितना भी मैला करूँ अपने को
धुँधला शीशा असलियत दिखाता है
सँवरने के बाद फिर
उसी तस्वीर से डरता हूँ मैं।
वो झूठ बोलता नहीं ये सोचकर
उसे देखने से कतराता हूँ मैं।
मन में जो तस्वीर छिपाये बैठे हैं हम,
छिप नहीं सकती वो अन्तर्मन से ये जानता हूँ मैं।
दर्पण को झुठलाने को कई बार सँवरता हूँ मैं,
मैं क्या हूँ इस सच को ढकता रहता हूँ मैं।
क्या औक़ात है मेरी उसे झुठलाने की
सच्चाई बताना ही उसकी सच्चाई है,
यह सोच मन को समझा लेता हूँ मैं।
धातु के दर्पण में पॉलिश चढ़ा सकता हूँ मैं
मन के दर्पण पर पॉलिश चढ़ाने का कोई तरीक़ा नहीं
ये मान कर असहाय हो जाता हूँ मैं।
जैसे सहित्य समाज का दर्पण है,
वैसे ही हमारे चरित्र एवं विचारों का दर्पण है मन
सच्चाई दर्शाता है दर्पण इसीलिए सहम जाता हूँ मैं।