रूपक
डॉ. महेश आलोकमैं हवा के रूपक बनाता हूँ
उसके दरवाज़े खोलता हूँ
हवा की कमर में सूरज की ख़ुशी वाले धागे बाँधता हूँ
गाँठ ढीली रखता हूँ
ख़ुशी वाले आँसुओं को अपनी आँखों में भरता हूँ
पेड़ की ख़ुशबू अपने फेफड़ों में भरता हूँ
और पत्तियों के हरेपन को फैला देता हूँ कमरे में फैले समय को
उसके ज़ख़्मों को कुरेदकर ज़िन्दा होने से
बचाने के लिये
और रात को जो मेरी त्वचा की तरह काली है
अपनी त्वचा पर इस तरह रखता हूँ
कि जैसे अँधेरे का मकान बना रहा हूँ
चीटियों के हमलों तक से सुरक्षित रखने की कोशिश करता हूँ उसे
स्मृतियों के आग की तीली बनाता हूँ
और खुजाता हूँ हवा के कानों को कि समय की दुर्गन्ध को
मज़ा लेते हुए बाहर कर सकूँ
दुनियाँ के सारे बादलों को इकठ्ठा करता हूँ
अपने कमरे में फैली हवा की सवारी करने के लिये
चन्द्रमा जो तुम्हारे होठों पर बैठा
लगभग अमर होने की तयारी कर रहा था
हवा के होठों को चूमता है
और मेरी साँसें बतियाना सीख लेती हैं
प्रकृति में फैली तमाम रंगों वाली पत्तियों की साँसों में बजती
शास्त्रीय रागों की धज्जियाँ उड़ाती
लोक धुनों से
मैं लोक धुनों से हवा के रूपक बनाता हूँ
और पुरखों वाली कविता की आग से जलाता हूँ
अपने घर की देहरी पर एक नया दीपक
और लिखता हूँ पत्थरों को पानी का स्वाद
चखाने वाली कविता
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