रविदास जी का साहित्य

15-11-2024

रविदास जी का साहित्य

डॉ. रानू मुखर्जी (अंक: 265, नवम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

सामाजिक एवं धार्मिक विषमताओं बाह्याडम्बरों पर निर्मम प्रहार करने के साथ-साथ प्रेम-मूलक भक्ति की सरस एवं गहन धारा प्रवाहित करनेवाले संत रविदास का व्यक्तित्व हिन्दी साहित्य में बहुत विचित्र और विवादास्पद रहा है। रविदासी संप्रदाय के लोगों में उनके के जन्म के स्थान के विषय में मतभिन्नता पाई जाती है। गुजरात-राजस्थान की ओर रविदास पंथियों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें गुजरात राजस्थान का माना जाता है परन्तु यह तर्क पुष्ट प्रतीत नहीं होता क्योंकि संत भ्रमणशील होते हैं, सो रविदास कभी पश्चिमी प्रांतों में गए होंगे और उनका प्रभाव वहाँ के समाज पर पड़ा होगा, जिसके परिणामस्वरूप उनके अनुयायी वहाँ अधिक संख्या में हो गए होंगे। 

संत रैदास का जीवन रहस्यों से भरा है, जिस प्रकार उनका जन्म स्थान, जन्म तिथि, निर्वाण-तिथि, माता-पिता के संदर्भ में कुछ सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार यह नहीं बताया जा सकता है कि संत रविदास जी ने किन-किन काव्य रूपों का प्रयोग किया तथा कितनी रचनाओं का सृजन किया। 

‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में इनके 41 सबद (भजनात्मक पद) संकलित हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कई संग्रहों में इनके पद बिखरे हुए मिलते हैं। इनकी अधिकांश रचनाएँ पद शैली में ही मिलती हैं। आचार्य पृथ्वी सिंह आज़ाद ने अपनी पुस्तक ‘रविदास दर्शन’ में 193 साखियों का संग्रह किया है। इसी परंपरा में श्री बी.पी. शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘संत गुरु रविदास वाणी’ में 183 पद 47 सखियाँ प्रस्तुत की हैं। इसके साथ-साथ जोधपुर से उपलब्ध 66पद, काशी नागरी प्रचारिणी सभा में उपलब्ध 183 पद, 6 साखियों के साथ-साथ और विभिन्न स्थलों से गुरु रविदास के कृतित्व को संकलित करते समय विद्वानों ने उनके पदों और साखियों की उपलब्धता के अनुसार भिन्न भिन्न रूप में प्रस्तुत की है। 

यही कारण है कि उनको पदों में पाठांतर बहुत अधिक मिलता है। 

संत रविदास की वाणी में धार्मिक-भावना की प्रधानता है। लेकिन रविदास कर्म से ही धर्म को प्रेरित मानते हैं।  इनकी भाषा काफ़ी सरल और सुगम है। बोधगम्य होने के कारण ही सामान्य जन संत रविदास की वाणी को अति सरलता से समझ सकते हैं। उनकी वाणी में दार्शनिक तत्वों की चर्चा विस्तृत रूप से है लेकिन वे ऊलझाऊ और मानसिक व्यायाम करने वाले नहीं हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी इनकी कविता की विशेषता बताते हुए लिखते हैं:

“साधारणतः निर्गुण संतों में कुछ न कुछ सुरति, निरति और इला पिंगला का विचार आ जाता है।” (हिन्दी साहित्य, युग और प्रवृत्तियाँ: डाॅ शिव कुमार शर्मा पृष्ठ-158) रविदास के भजनों में भी वे स्पष्ट आएँ हैं परन्तु रविदास की रचनाएँ इन उलझनों से मुक्त हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने संत रविदास के पदों की जो प्रशंसा की है वह उनके महत्त्व को सटीक रेखांकित करती है, “आडम्बरहीन सहज शैली और निरीह आत्मसमर्पण के क्षेत्र में रविदास के साथ कम संतों की तुलना की जा सकती है। यदि हार्दिक भावों की प्रेषणीयता काव्य का उत्तम गुण हो तो निसंदेह रविदास के भजन इस गुण से समृद्ध हैं।” संत रविदास ने सर्वदा मुक्तक शैली को अपनाया क्योंकि उपदेश के उद्देश्य से यही रचना शैली सर्वोत्तम प्रतीत होती है। संत साहित्य में रविदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है उन्होंने सामाजिक विसंगतियों को जो दूर करने का प्रयास किया है उसके लिए भारतीय समाज उनका ऋणी है। 

संत रविदास ऐसे समाज के आकांक्षी हैं जिसमें समता की भावना हो। कोई ऊँचा नीचा न हो, सभी स्वतंत्र रहें, सभी में आपसी मैत्री का विकास हो। 

भगवान बुद्ध ने मानव जीवन का उद्देश्य ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय माना’ जिसको ज्यों का त्यों हम संत रैदास की वाणी में भी हम पाते हैं। भगवान बुद्ध की विचारधारा का उनके कथ्य पर प्रभाव स्पष्ट दिखता है:

“ऐसा चाहो राज मैं, जहाँ मिले सबको अन्न। 
छोट बड़ों सब सम बसे, रैदास रहें प्रसन्न॥”(संत रैदास की मूल विचारधारा–श्याम सिंह-पृष्ठ 90) 

संत रविदास के इस शिक्षात्मक कथन में मानव ही अध्ययन का केन्द्र बिन्दु है, जिसमें सभी को समान रूप से छोटे बड़े का भाव समाप्त करके अवसर प्रदान करने के संकेत हैं जो संत रविदास की साम्यवादी भावना का सूचक है। 

वर्ण एवं जाति-पाति की व्यवस्था के विरुद्ध संत रविदास द्वारा लड़ी गई जंग का सबसे मुख्य मुद्दा समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व की स्थापना था। वे किसी भी वर्ग विशेष के विरुद्ध नहीं थे। वे मात्र उस व्यवस्था का प्रबल विरोध कर रहे थे, जो जाती-पाति के नाम से जानी जाती थी। वे वर्ण-जाति जनित असमान व्यवहार को समूल विनष्ट करना चाहते थे। 

संत रविदास के साहसिक व्यक्तित्व का परिचय उनकी रचनाओं में मिलता है। 

संत रविदास जिस प्रकार सिद्धों और नाथों से बौद्ध-विचार परंपरा प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार वे अपनी रचनाओं में प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग परंपरागत ढंग से इन बौद्ध आचार्यों से प्राप्त करते हैं। अतः कथ्य और शिल्प दोनों पर बौद्ध प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। 

भक्तिकालीन कवियों ने अवर्ण और सवर्णों के बीच की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक खाई को मिटाने के ख़िलाफ़ सबसे पहले आवाज़ बुलंद की। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से निस्तेज मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाने का श्रेय निसंदेह भक्तिकालीन संत कवियों और मुख्य रूप से उनकी लोकचेतना को जाता है। संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध बिगुल है। रविदास की भक्ति में रागात्मिका भक्ति की ही प्रधानता है। 

मधुर एवं सहज संत रविदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है। उन्होंने समता और सदाचार पर बहुत बल दिया। वे खंडन-मंडन में विश्वास नहीं करते थे। सत्य को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना ही उनका ध्येय था। संत रविदास का प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक फैला हुआ है। इस मत के अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं। 

उन्होंने ‘प्रह्लाद चरित्र’ में स्पष्ट कहा है:

“हौ पढयौ राम को नाम, ऑन हिरदै नहीं आनौ। 
अवर हूँ कछु न जानों, राम नाम नहीं छाँडो॥” 

आज भी संत रविदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान केलिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्‌व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। 

इन्हीं गुणों के कारण संत रविदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत रविदास उन महान संतो में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रहा है। जिससे जनमानस पर इसका अमिट प्रभाव पड़ता है। 

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