खाँचा

डॉ. रानू मुखर्जी (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


मूल कथा: मोहन परमार (गुजराती)
हिन्दी अनुवाद-डाॅ रानू मुखर्जी 

 

चिल्ला-चिल्लाकर गला दुखने लगा था। जब उन्हें लगा कि कोई आनेवाला नहीं है तब वो चुप हो गए। रमीलाबेन तो यही चाहती थी। अगड़म बगड़म बोल-बोलकर के सर खा जाएगा। कहना तो कुछ है नहीं केवल रोना और चिल्लाना। पड़ोसी भी टोकते रहते, वह भी रमीलाबेन को नहीं सुहाता था। 

“प्रमोदभाई की सेहत सही नहीं है क्या? सारी रात खाँसते रहते हैं?” 

“नहीं ही है न। सेहत का ध्यान तो कभी रखा ही नहीं, रखते तो ऐसा कुछ भी नहीं होता।”

रमीलाबेन ग़ुस्से से बोल उठती। फिर चुप रह जाती। प्रमोदभाई हाज़िर हों तो क्या या न हों तो भी क्या। ऐसे में रमीलाबेन को मसल देने का मन होता। वो खिन्न हो जाते। कभी मुट्ठियों को कसते हुए ग़ुस्सा व्यक्त करते, जोश ही जोश में बिस्तर से उठने की कोशिश करते, चक्कर आने जैसा लगता, सब लट्टू के जैसे घूम रहे हों ऐसा लगता। छोटे बेटे के बच्चे, “दादा, दादा कहानी सुनाओ न,” कहते हुए दौड़कर उनके पास आ जाते। तब उनके खोखले अंतर में स्नेह की लहरें उठती। परन्तु तभी छोटे की बहू लकड़ी लेकर उनको खदेड़ते हुए दूसरे कमरे में ले जाती। “उस तरफ़ मत जाओ। देखते नहीं दादा खाँस रहे हैं।” 

बच्चों को रोक-टोक अच्छा नहीं लगती। ज़बरदस्ती करने पर बच्चे रोना चिल्लाना शुरू कर देते। 

तब बहू को हाथ की छड़ी से पीटने का मन होता। पर . . .

कुछ दिन पहले अमेरिका से मुम्बई आई हुई भाँजियों ने जब बीमारी के बारे में सुना तो मिलने के लिए दौड़ी आईं। “मामा, मामा” करती हुई थकती नहीं थीं। दो दिन में ही घर ख़ुशियों से लबालब भर गया। दामन में ख़ुशियाँ समा नहीं रही थीं। भाँजियों ने तो सेवा करने में कोई कमी नहीं रखी। तो फिर घर के लोग दुश्मन क्यों बन बैठे हैं? जी भरकर उन्होंने भाँजियों के स्नेह और सेवा का आनन्द उठाया। उन दिनों सभी लोग भाँजियों की ख़ातिरदारी में लगे रहे। इसी कमरे में सभी लोग डेरा जमाए रहते। भाँजियों के साथ मिलकर सभी ने सेवा चाकरी में भी साथ दिया। सब विनम्रता की मूर्ति बने हुए थे। उनको अच्छा लगा रहा था। 

बड़ा बेटा अलग रहने लगा था। छोटे की साझेदारी उसे अच्छी नहीं लगी। इसीलिए धंधा भी अलग से शुरू कर दिया। परन्तु हफ़्ते में एक-आध बार पत्नी के साथ ख़ैर-ख़बर पूछने आ जाता था। बहू भी सास पर सवा सेर थी। पर बिना किसी कारण रमीलाबेन के साथ गप्पें मारा करती थी। पति के बुलाते ही उठकर चल देती। प्रमोदभाई को यह सब अच्छा नहीं लगता। पर जो हो रहा था वो रमीलाबेन के अनुसार हो रहा था। इसलिए उन्हें यह सब अच्छा लगता था। घर और बाहर के सभी काम को निपटाकर रमीलाबेन संस्था के ऑफ़िस में चक्कर लगाने जाती। और फिर शाम तक उनका कोई अता-पता नहीं मिलता। 

फिर तो घर एकदम सुनसान हो जाता। इस पर छोटे की बहू पड़ोसन के साथ गप्प-शप्प में मशग़ूल हो जाती। आने का नाम नहीं लेती। ऐसे में अगर उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती तो बड़ी मुश्किल होती। ग़ुस्सा आ जाता . . . सारी ज़िन्दगी आराम से बीतने के बाद अब इस बुढ़ापे में . . . वो मन मसोसकर रह जाते। पर छोटा उनकी देख भाल जी-जान से करता, यही सबसे बड़ा दिलासा था। छुट्टी के दिन तो समय मिलते ही उनके पास आकर बैठ जाता। बातें करता है। इससे मन थोड़ा हल्का होता है। बैठने की इच्छा न होने पर भी रमीलाबेन मन मारकर बैठी रहती। कुछ न कुछ बोलती रहती। 

“यह खाँसी अब उनको लेकर ही जाएगी।”

“तुम भी क्या मम्मी! खाँसी कैसे नहीं मिटेगी? चुटकी बजाते ही मिटा दूँगा। एक डॉक्टर मेरा मित्र है। बहुत होशियार है। पप्पा को उसे दिखाना पड़ेगा।”

छोटे के विचार से उन्हें ख़ुशी हुई। पर ऐसे पड़े रहना उनको अच्छा नहीं लगता था। 

रह-रहकर उनका मन सोसाइटी के बाहर जाने के लिए तड़पता रहता। अगर खड़ा हो सकता तो किसी की परवाह किए बिना ही दौड़ जाता। कोशिश करके खड़े तो हुए पर चक्कर आने जैसा लगते ही फिर से पलंग पर बैठ गए। खाँसी पीछा छोड़ती नहीं। 

रमीलाबेन नई साड़ी पहनकर जब उनके सामने से ठसके से निकलती तो वो गहरी साँसें भरने लगते। उनकी हालत पर रमीलाबेन मन ही मन हँसती। 

“तुम्हारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। जवानी में तुमने मुझे बहुत सताया है—अब भुगतो,” अंगूठा दिखाती हुई रमीलाबेन उनको चिढ़ाती। 

यह सब असह्य है। रमीलाबेन के ठस्से को ख़त्म कर दूँगा। बड़ी मुश्किल से दिन गुज़ार रहा हूँ। और ये सज-धजकर शहर में घूम रही है। वो परेशान हो गए। रमीलाबेन ज्यो ंही उनके क़रीब से गुज़रने लगी उन्होंने तुरंत उनकी साड़ी को पकड़ लिया। रमीलाबेन रुक गई। मुँह बिचकाया, आँखें दिखाती हुई धमकी देने जैसा करने लगी। वो डर गए फिर भी साड़ी को छोड़ा नहीं। झटका मारकर रमीलाबेन ने साड़ी को छुड़ा लिया। कमर में हाथ रखकर बिफरी। 

“अभी तक उस कलंक को भूले नहीं। मेरा पीछा छोड़ो। आपके चाहनेवाले आपकी देख-रेख करने क्यों नहीं आते।” 

“यहाँ बैठ न!”

“बैठाओ तुम्हारी उस खाँचेवाली को . . .”

“तू भी!”

बड़ी मुश्किल से बोले। गले बहुत कुछ अटक रहा था। मन तो बस केवल सुख-दुख का सहारा ढूँढ़ रहा था। जैसा रमीला सोच रही थी वैसा कुछ नहीं था। फिर भी उसके प्रहार से मन खट्टा हो गया था। इस बात को हुए वर्षों बीत गए। बच्चों के बड़े होते ही सब कुछ समाप्त हो गया था। अगर ऐसा कुछ होता तो ये धंधा जो धमधमाकर चल रहा है चलता क्या? परिवार भरा-भरा है। प्रसार ऐसे ही नहीं होता। अगर पैसा उड़ाता तो चुटकी बजाते ही सब ख़त्म हो जाता। सब कुछ मर्यादा में रहकर किया मैंने। फिर भी ये तो पीछे पड़ गई है। बच्चे तो धंधे में व्यस्त। उनकी पत्नियाँ अपना-अपना घर सँभाल रही हैं। वही तो मेरी एक मात्र सहारा है, और वो तो भूत की तरह मेरे पीछे पड़ी है। यह अकेलापन अब मुझे समाप्त कर देगा? त्रिकोणाकार खाँचे को पकड़़कर बैठी है। वो सब उस समय की बात थी, इस उमर में ये सब अच्छा नहीं लगता है। फिर भी बाहर निकल सके तो जर निकलेगें . . .रमीलाबेन के छोड़े बाण ने उनके मन को क्षत विक्षत कर दिया है। उनको डर है कि बाण को निकालने की कोशिश करते ही ख़ून की धार बह निकलेगी। 

छोटे के मित्र से इलाज कराने के पश्चात नियमित दवाई लेने लगे। खाँसी तो कम हो गई पर बैठने में तकलीफ़ हो रही थी। छोटे के सास-ससुर उनसे मिलने आए तब रमीलाबेन के बुरे बर्ताव से सब असंतुष्ट होकर चले गए। वे तकिए में चेहरे को दबाकर हिचकियाँ भरने लगे। मरने की कगार पर हूँ। राहत के दो मीठे शब्द बोलने की बजाय जले पर नमक छिड़क रही है। मैंने उसका क्या बिगाडा है? जब बीमार हुई थी तो आठ दिन तक व्यपार-धंधा बंद करके उसके पास बैठा था। तब उसे कितना अच्छा लगा था। बस केवल अपने बारे में ही सोचती है, दूसरे लोग तो सब बेकार के हैं। हिचकियाँ बढ़ रही थीं। छोटा सब समझ गया। पर समय ही नहीं मिल रहा था। वो तो जी-जान से धंधे में लग गया था। अच्छा बुरा कुछ भी सही नहीं हो रहा था। 

रात बीतती नहीं और दिन भाँय-भाँय करता रहता, एक अनजान डर मन को घेरे रहता। मौत नज़दीक आ रही है क्या? चिल्लाने की कोशिश की पर आवाज़ ही नहीं निकल रही थी। छोटे की बहू काम करती हुई शोर बहुत मचा रही थी। बच्चे पढ़ने चले गए। ऐसे हाव-भाव करने लगे जैसे छड़ी के सहारे मृत्यु से उनकी होड़ लगी हो “मेरे क़रीब आने की तेरी इतनी हिम्मत!” वे पलंग पर घिसटते-घिसटते दीवार की ओर मुड़ गए। झब्बा पहन लिया, सर पर टोपी पहन कर तैयार हो गए। 

“बहूजी मेरे हाथ को पकड़़कर बरामदे में बैठा दो न . . .”

बहू चिढ़ती तो बहुत थी। “ये बुढ्ढा अब जाए तो अच्छा . . .” फिर भी मन मसोसकर उनका हाथ पकड़कर धीरे-धीरे उन्हें घर के बाहर ले गई। मन को मज़बूत करके चलने लगे। कोई परेशानी नहीं आई। चक्कर भी नहीं आया। सावधानी से बरामदे में बैठा दिया। वे दीवार से टेक लगाकर बैठ गए। छड़ी को आगे-पीछे करते हुए जितनी दूर तक हो सके नज़र दौड़ाई। सोसाइटी पूरी होने के बाद थोड़ा चलना पड़ता है। फिर फ़्लैटों की शुरूआत होती है। वहीं पर त्रिकोणाकार खाँचा आता है। उसी खाँचे में अधिकांशतः वे मोटरकार पार्क करते थे। 

उस समय फ़्लैट से अनेक चेहरे झाँकते हुए दिखते। जिनमें से एक के साथ उनका मन हिल मिल गया था। उन्होंने गहरी साँस छोड़ी। चिढ़ते हुए छड़ी को ज़ोर से बरामदे में पछाड़ा। मन सहारा ढूँढ़ रहा था, पर खाँचे तक पहुँचना सम्भव नहीं था। 

बैठे-बैठे धोती की परतों को ठीक किया। मन भरा-भरा सा हो रहा था। दौड़ने का मन हो रहा था। पर कैसे? वे हताशा से घिर गए। जोश से दिवाल पर पीठ घिसने लगे। पीठ की हड्डियाँ दुखने लगीं। थकान से भर गए। बैठे-बैठे ही तीरछे होकर झुककर घर के अंदर झाँकने लगे। बहू तो काम में व्यस्त थी। बच्चे स्कूल से जल्दी लौटे तो अच्छा है . . . रमीला तो देर से लौटेगी। कभी पास में बैठकर प्रेम से दो बातें कीं हो तो मन को शान्ति मिले। बोलती ही नहीं। फिर मन दूसरी ओर भटकेगा नहीं तो जाएगा कहाँ? नौकर को इस ओर आता देखकर इशारे से नज़दीक बुलाया। हाथ बढ़ाया। नौकर ने उन्हें खड़ा कर दिया। पाँव मज़बूत होते लगे। नौकर घर ले जाने के लिए उस ओर मुड़़ा। उन्होंने घर के बदले दरवाज़े के बाहर ले जाने के लिए बड़ी नम्रता से कहा। नौकर को कुछ समझ में नहीं आया। रमीलाबेन के डर से वह कुछ भी करने से डर रहा था। हाथ छोड़कर घर में घुस गया। अब वो असहाय हो गए। बिना सहारे के खड़े थे। काँपते-काँपते सीधे होकर खड़े रहे। गिरने का डर लगातार सता रहा था। फिर भी हाथ की छड़ी को ज़मीन पर मज़बूती से गड़ाकर उसके सहारे खड़े रहे। एक लम्बी सी साँस लेकर छाती को फुलाया। फिर मन को मज़बूत किया। सम्भल-सम्भलकर एक-एक क़दम आगे बढ़ाने लगे। अचंभित हो गए, वो चल सकते थे। छड़ी के सहारे बहुत दूर तक चल निकले। सूना मन भरा-भरा लगने लगा। नीरस आँखों में पानी भर आया। सोसाइटी के दरवाज़े को लाँघकर वो थोड़े इधर-उधर चल निकले। मज़ा आ रहा था। पर सब कुछ भूल गए थे। एकाध वर्ष तक घर फिर दवाखाने में रहे। फिर घर में अज्ञातवास-स्मृति के पटल खुल नहीं रहे थे। सब नया-नया लग रहा था। खाँचे को भी भूल गए थे। छड़ी को ज़मीन पर ठोकते हुए गोल-गोल घूमने लगे। जहाँ गाड़ी पार्क करते थे उसी जगह पर आनेपर भी कुछ याद नहीं आ रहा था। भटक गए हों इस भाव से चारों ओर देखने लगे। सहारे आसपास ही थे। रिक्शा, स्कूटर, गाड़ियों की भीड़ के बीच भटक रहे थे। बार-बार मन विभिन्न फ़्लैटों की खिड़कियों में भटक रहा था। न जाने क्यों कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था? या फिर मेरे लिए सब दिशाएँ बंद हो गई हैं? वो जहाँ खड़े थे वहीं पर—उनके पास ही शोर मचाती हुई एक रिक्शा आकर खड़ी हो गई। रिक्शावाले ने चेहरे को बाहर निकलकर हँसते हुए पूछा—“शिवजी का खाँचा यही है क्या?”

रिक्शावाले को ताकते रहे। मन आनन्दित हो उठा। स्मृति की परतें खुलने लगी। परिचित चेहरे की खोज शुरू हो गई। मिचमिचाती आँखोंं से रिक्शावाले को देखते हुए बड़ी मज़बूती से हाथ की छड़ी को ज़मीन पर ठोकने लगे। 

“हाँ, यही है शिवजी का खाँचा। पर आपको जाना कहाँ है?” 

रिक्शावाला हँस दिया। पैसेन्जर उतरकर एक फ़्लैट की ओर बढ़ गया। उस पैसेंजर की पीठ की ओर ताकते हुए उन्होंने गहरी साँस छोड़ी, पर तुरंत ही शोरगुल शुरू हो गया। देखा तो बच्चों का हुजूम था। किसी के हाथ में बैट तो कोई गेंद उछालता हुआ जा रहा था। कुछ तो धींगा-मस्ती कर रहे थे। वातावरण ख़ुशहाल हो उठा था। वे खाँचे के खेल में से बाहर निकल आए। हाथ की छड़ी पर अपनी पकड़ को मज़बूत किया। कुछ ख़ास देख-भाल के बग़ैर बच्चों के साथ घुलमिल गए। फिर छड़ी के सहारे-सहारे वो किस खाँचे की ओर बढ़ने लगे यह उन्हें याद भी नहीं रहा। 
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित कहानी
साहित्यिक आलेख
ललित कला
पुस्तक समीक्षा
सिनेमा और साहित्य
एकांकी
सिनेमा चर्चा
कविता
कहानी
विडियो
ऑडियो