किसान विमर्श और साहित्य

01-05-2025

किसान विमर्श और साहित्य

डॉ. रानू मुखर्जी (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जबसे इस धरती पर जीवन की उत्पत्ति हुई है तब से ही किसान खाद्य सामग्री उत्पादित कर रहें हैं। अर्थात्‌ किसान ही भोजन के लिए खाद्यान्न, फल, सब्ज़ियाँ आदि का उत्पादन करते आ रहे हैं। इन्हें ‘धरतीपुत्र’ या ‘अन्नदाता’ भी कहा जाता है। इनके बग़ैर हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। 

हिन्दी साहित्य में किसानों से जुड़े विषयों पर अनेक विद्वानों ने अपनी क़लम चलाई है। किसानों की समस्याओं को लेकर लिखे गए साहित्य को किसान विमर्श कहते हैं। किसान विमर्श में किसानों के जीवन की विविध छवियाँ मिलती हैं। किसानों के जीवन में होने वाली समस्याओं को उजागर करके इन पर ध्यान आकर्षित करने का मक़सद किसान विमर्श है। 

प्रेमचंद को किसानों से गहरा लगाव था। उसी प्रकार का लगाव जैसे किसानों का अपने खेतों के प्रति या माता पिता को अपने बच्चों से होता है। शायद प्रेमचंद प्रथम रचनाकार थे जिन्होंने ज़मींदारों से किसानों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कहा। उन्होंने किसानों की समस्याओं को उजागर किया। उनकी सामाजिक समस्याओं के साथ-साथ उनके प्रति होनेवाले हर शोषण से प्रेमचंद परिचित थे। 

प्रेमचंद किसान जीवन के चितेरे थे। किसान जीवन की समस्याओं के प्रति जो गहराई और गंभीरता उनके रचना-कर्म में दिखाई देती है, इसका कारण उनकी राष्ट्रहित की चिंता रही। प्रेमचंद के समय में किसानों की हालत अत्यंत दयनीय थी। अपने एक लेख ‘हतभागे किसान’ में उन्होंने लिखा “भारत के अस्सी फ़ीसदी आदमी खेती करते हैं। कई फ़ीसदी वह हैं, जो अपनी आजीविका के लिए किसानों पर निर्भर करते हैं। जैसे गाँव के बढ़ई, लुहार आदि। परन्तु वही लोग जो राष्ट्र के अन्नदाता और वस्त्रदाता हैं, पेट भर अन्न को तरसते हैं। जाड़े में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते हैं।”

1993 में उन्होंने लिखा कि ”कृषि भारत का मुख्य व्यापार है। पर उनको नोचनेवाले बहुत हैं मदद करने वाला कोई नहीं है। उसे भूखों मर कर, पैसे-पैसे के लिए महाजन का मुँह देखकर, अपना जीवन काटना पड़ता है।” यह थी प्रेमचंद युगीन किसानों की स्थिति। ‘गोदान’ में भोला होरी से कहता है, “कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमीयत कहाँ है? आदमी तो वह है, जिसके पास धन है, इल्म है। हम लोग तो बैल हैं और जोतने के लिए पैदा हुए हैं।” बहुत ही पीड़ाजनक स्थिति थी। कृषि की उन्नति और किसानों की उन्नति की कोई चिंता नहीं। प्रेमचंद इस बात को स्पष्ट रूप से अपने एक लेख में कहते हैं कि कौन नहीं जानता है कि भारत के किसान क़र्ज़ से दबे हुए हैं। उनकी दयनीय दशा को शब्दों में अंकित करना असम्भव है। पर उन्होंने इसी विषय को अपने लेखन का माध्यम बनाया। 

प्रेमचंद किसानों के हित में नए-नए उपाय सोचते हुए अपने लेखन के माध्यम से बदलाव के बारे में सोचते थे। प्रेमचंद मूल समस्या की ओर दृष्टि डालते हैं कि किसानों का ‘एका’ ही नहीं है। 

‘कर्मभूमि’ के लगानबंदी आंदोलन के चित्र खींचकर सरकारी दमन-नीति की क्रूरता और नृशंसता का दर्दनाक चित्र प्रस्तुत किया है। यद्यपि उन्होंने अवध-किसान आन्दोलन के पूर्व लिखे गए ‘प्रेमाश्रम’ में किसानों के व्यापक संघर्ष को चित्रित किया था। प्रेमाश्रम की रचना से पहले किसानों के व्यापक संघर्ष को चित्रित किया था। किसानों की दयनीय स्थिति को समाप्त करने का प्रेमचंद को एक ही मार्ग दिखाई देता है और वह है संघर्ष का मार्ग। प्रेमचंद किसान जीवन पर केंद्रित अपने इस पहले उपन्यास में इस नतीजे पर पहल चुके थे कि जब तक ज़मींदारी व्यवस्था रहेगी, तब तक सामाजिक व्यवस्था में कोई फ़र्क़ नहीं आ पाएगा। यह समझ उन्होंने टॉलस्टॉय से हासिल की थी। प्रेमचंद टॉलस्टॉय के बड़े प्रशंसक थे। और उनकी कई कहानियों का अनुवाद भी किया। यहाँ यह लिखना ज़रूरी लगता है कि टॉलस्टॉय किसानों के प्रसंग में क्रन्तिकारी थे और लेनिन ने उन्हें 1905 की रूसी क्रांति का दर्पण कहा था। 

किसान जीवन की समस्याओं को लेकर प्रेमचंद ने दो अन्य मार्मिक कहानियाँ भी लिखी है। ये कहानियाँ है ‘बलिदान’ (1918) और ‘विध्वंस’ (1921)। ‘बलिदान’ कहानी का नायक गिरधारी अपने पिता की मृत्यु के बाद ज़मींदार को उसका इच्छित नज़राना न देने के कारण खेत से हाथ धो बैठता है। खेत के प्रति अपनी चाहत के कारण मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा खेत का चक्कर काटती रहती है। प्रेमचंद ने इस कहानी में खेत के प्रति गिरधारी की चाहत के कारण इस परिस्थित का सर्जन होना बताते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर खेत गिरधारी के नहीं हो सकते तो किसी के भी नहीं होगें। 

प्रेमचंद के बाद बाबा नागार्जुन और फणीश्वर नाथ रेणु ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। नागार्जुन ने ‘बलचनमा’(1952), 'बाबा बटेसर नाथ’ (1954) और ‘वरुण के व बेटे’ (1957) उपन्यासों में किसानों की ज़मीन से बेदख़ली और ज़मींदारों के प्रति किसानों के संघर्ष का चित्रण है। फणीश्वर नाथ रेणु एक आंचलिक उपन्यासकार हैं। 

उन्होंने ‘मैला आँचल’ (1954) उपन्यास में मेरीगंज के किसानों के जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। इस उपन्यास में एक किसान अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होता है, उसकी आधारभूत ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं। 

19 वीं शताब्दी के 7 वें दशक में उपन्यासकार राही मासूम रज़ा ने अपने प्रथम उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966) में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के गाँव में रहनेवाले मुसलमान ज़मींदारों और मध्य वर्गीय किसानों की ज़िन्दगी का वर्णन किया है। गिरिराज किशोर का उपन्यास ‘इन्द्र सुनो’ (1978) उपन्यास में एक तरफ़ अमीर वर्ग सुख सुविधा में जीवनयापन कर रहा है तो दूसरी तरफ़ निम्न वर्ग में ग़रीब किसान और मज़दूर अशिक्षा, ग़रीबी और अंधविश्वास में अपनी दुख भरी ज़िन्दगी जी रहे हैं। महिला उपन्यासकार कृष्णा सोबती जी ने अपने उपन्यास ‘मित्रों मरजानी’ (1967) और ‘ज़िन्दगीनामा’ (1979) में पंजाब के किसानों के जीवन का चित्रण किया है। जगदीश चन्द्र ने भी ‘मुट्ठीभर कांकर’ (1976) और ‘घारा गोदाम’ (1905) में दिल्ली के आसपास के किसानों के विस्थापन का वर्णन किया है। 

वीरेन्द्र जैन का ‘डूब’ (1991) और ‘पार’(1994) उपन्यासों में स्वतंत्र भारत में बिजली और बाँध परियोजना के विषय को आधार बनाकर कहानी लिखी है। ग़रीब मज़दूर लोगों का शोषण और उनपर अत्याचार करके सरकारी पैसों पर क़ब्ज़ा करना ही कथा का मूल है। 

समकालीन परिदृश्य को समझने के लिए जब तक हम प्रेमचंद के समय के किसान आंदोलन को नहीं समझेंगें तब तक समकालीन साहित्य में किसान विमर्श को नहीं समझ सकते। किसान हमेशा से अभावग्रस्त रहे और समस्याओं से जूझते रहे। इसके बावजूद भी वह अपने कर्त्तव्य के प्रति ईमानदार रहे। 

किसानों के आत्महत्या जैसे गंभीर मुद्दों पर लेखक संजीव ने अपनी रचना ‘फांस’ में बेबाकी से लिखा है। इस उपन्यास में महाराष्ट्र के यवतमाल ज़िले के गाँव बनगांव का चित्रण है। इसके साथ ही कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के किसानों की समस्याओं की कथा है। इस उपन्यास में लेखक बताता है कि कैसे किसानों को जी.एम.ओ. बीजों के इस्तेमाल के लिए क़र्ज़ दिया गया और इसी क़र्ज़ ने किसानों को आत्महत्या की ओर ढकेला। 

पंकज सुबीर अपने उपन्यास ‘अकाल में उत्सव’ में लिखते हैं, “कमला की कोठी बिक गई। बिकनी ही थी। छोटी जाति के किसान की पत्नी के शरीर पर जेवर क्रमश: घटने के लिए ही होते हैं। और हर घटाव पर एक भौतिक अंक शून्य होता है। जब परिवार की महिलाओं के पास इन धातुओं का अंत हो जाता है तब यह तय हो जाता है कि किसानी करने वाली बस यह अंतिम पीढ़ी है। इसके बाद अब जो होंगे वह मज़दूर होंगे। यह धातुएँ बिक बिककर किसान को मजदूर बनने से रोकती हैं।” 

समकालीन कथाकारों में शिव मूर्ति का उपन्यास ‘आख़री छलाँग’ में सीमांत किसानों को आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने किस प्रकार बरबाद किया इसका चित्रण देखने को मिलता है। नीलकंठ लिखित उपन्यास ‘दू एक बीघा खेत’ में चकबंदी और सीमांत किसान की कथा है। कुर्मेंदु शिशिर के उपन्यास ‘बहुत लम्बी राह’ में ग्रामीण समस्याओं की विकृतियों और समस्याओं का चित्रण है। राजू शर्मा का उपन्यास ‘हलफनामा’ में किसानों की आत्महत्या के साथ-साथ जल संकट की समस्याओं का चित्रण है। सूर्यनाथ सिंह का उपन्यास ‘चलती चाकी’ में किसान उसकी खेती और पानी की समस्या का चित्र दिखाई देता है। मिथिलेश्वर का उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ में किसान की त्रासदी, खेतों से किसानों की जुड़ी भावना और नई पीढ़ी के पलायन को प्रस्तुत करता है। 

कुनाल सिंह का ‘आदिग्राम उपाख्यान’ के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की समस्या है। किसानों की भूमि छीनने के लिए उनको तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं। आदिग्राम की भूमि पर सरकार की तरफ़ से एक केमिकल फ़ैक्टरी लगाने का आदेश दिया जाता है। अपनी भूमि बचाने के लिए किसान आंदोलन करते हैं। उपन्यास में ईस्ट इन्डिया कंपनी के अत्याचार को भी दिखाया गया है, आदिग्राम के किसान भूखों मरते हैं फिर भी कंपनी उनसे लगान वसूलती है। 

एस. आर. हरनोट ने ‘हिडिम्ब’ उपन्यास 2011 में पहाड़ी किसान को आधार बनाकर लिखा था। कहानी शावणू नामक पात्र के आसपास घुमती रहती है। मंत्री को शावणू की ज़मीन पसंद आ जाती है। मंत्री अनेक तरीक़े अपनाकर ज़मीन हथियाना चाहता है। पर शावणू स्थिर रहता है। परिवार पर मंत्री का अत्याचार शुरू हो जाता है और तब तक अत्याचार जारी रहता जब तक शावणू का परिवार समाप्त नहीं हो जाता। 

हिन्दी साहित्य के उपन्यास परंपरा में किसान जीवन की समस्याओं को लेकर अनेक उपन्यास प्रेमचंद युग से ही लिखे जाते रहे। उन्हें एक पुख़्ता ज़मीन प्रेमचंद युग से ही मिली। प्रेमचंद के आगमन ने ही हिन्दी उपन्यास को मानव जीवन की वास्तविक समस्याओं से जोड़ने का कार्य किया। प्रेमचंद ने किसान जीवन की समस्याओं को अपने लेखन का आधार बनाया। आजकल किसानों की समस्याओं में सुधार हो रहा है। जिनमें वैज्ञानिक तरीक़े से कृषि कार्य का विकास प्रमुख है। इस क्षेत्र में निरंतर प्रगति हो रही है। 

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