भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और नर्मदाशंकर लालचंद दवे के नाटकों में व्यंग्यात्मक सम्प्रेषण

15-10-2024

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और नर्मदाशंकर लालचंद दवे के नाटकों में व्यंग्यात्मक सम्प्रेषण

डॉ. रानू मुखर्जी (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

हिन्दी साहित्य और गुजराती साहित्य के नाट्य लेखन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखनेवाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885) और नर्मदाशंकर लालचंद दवे (1833-1886) हिन्दी साहित्य के नाट्य लेखन और गुजराती साहित्य के नाट्य तथा गद्य लेखन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सशक्त नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, निर्देशक, रंग समीक्षक अभिनेता के रूप में दोनों का कोई सानी नहीं। इनमें सनातन धर्म के प्रति आस्था और विश्वास कूट-कूटकर भरा है। 

इनके नाटकों में आज के समय की राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, समाज में स्थित छुआछूत, अमीरी ग़रीबी और एक दूसरे का शोषण करने की प्रवृत्ति का सजीव चित्रण दिखाई देता है। युगीन-परिवेश के सामायिक यथार्थ, भ्रष्ट राजनीति, राजनीति विघटन, नेताओं के भ्रष्टाचार का उद्घाटन इनके नाटकों में यत्र-तत्र सर्वत्र देखने को मिलता है। 

नाटक एक ऐसी विधा है जिसमें सभी ललित कलाओं का समावेश हो जाता है, इसलिए उसमें मनोरंजकता और सभी सामाजिक संदर्भों को छूने की ताक़त अधिक होती है। नाटक की एक और विशेषता यह है कि इसके माध्यम से हम अतीत को वर्तमान में देखते हैं। हम देखते हैं कि हरिश्चन्द्र शैव्या से कफ़न माँग रहे हैं। अतीत की गौरव गाथा का प्रत्यक्ष दर्शन कराने और वर्तमान की उत्पीड़क स्थिति पर उत्तेजना पैदा करने के लिए नाटक से बढ़कर साहित्य में और कोई दूसरी विधा नहीं है। इसलिए एक ओर उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से बीते गौरव को दिखा कर एक मरी हुई जाति में प्राण फूँका और दूसरी ओर “भारत दुर्दशा” की तस्वीर दिखाकर कुछ करने की प्रेरणा दी। 

“सत्य हरिश्चन्द्र” में भारतेन्दु लिखते हैं, “यहाँ के लोग यह नहीं जानते कि नाटक किस चिड़िया का नाम है।” इसी से उन्होंने यह बताना आवश्यक समझा कि यहाँ कैसे-कैसे नाटक थे। इस अवधारणा के कारण उन्होंने संस्कृत और प्राकृत के अच्छे नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया। मुद्राराक्षस, रत्नावली, धनंजय विजय, पाखंड विडम्बन संस्कृत से और कर्पूर मंजरी प्राकृत नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया। “दुर्लभबंधु” के नाम से शेक्सपियर के “मरचेन्ट ऑफ़ वेनिस” का रूपांतरण प्रस्तुत किया। (भारतेन्दु के सम्पूर्ण नाटक-संपादक-गोविन्द चातक) 

कवि नर्मद को आधुनिक गुजराती साहित्य का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने आधुनिक गुजराती भाषा में लेखन के क्षेत्र में कई रचनात्मक रूपों की शुरूआत की जिनमें आत्मकथा, कविता, शब्दावली, ऐतिहासिक नाटक और लोक साहित्य अनुसंधान में अग्रणी कार्य शामिल हैं। वे एक मुखर पत्रकार थे। 

नर्मद धार्मिक कट्टरता और रूढ़ीवादिता के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने “साहू चालो जितवा जंग” जैसे प्रसिद्ध गीतों के साथ राष्ट्रवाद और देशभक्ति को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही पूरे भारत के लिए एक राष्ट्रीय भाषा, हिन्दुस्तानी का प्रस्ताव रखा। 

नर्मकोश की प्रस्तावना में लिखी गई उनकी कविता, “जय जय गरवी गुजरात” गर्व की भावना के साथ उन सभी सांस्कृतिक प्रतीकों को सूचीबद्ध करती है जो गुजराती पहचान का निर्माण करते हैं। यह कविता वास्तव में गुजरात का राज्य गीत है। नर्मद एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने “बुद्धिवर्धक सभा” की स्थापना की थी। गुजराती भाषा दिवस मनाकर, हमें उनकी विरासत को जीवित रखना है। उनके द्वारा रचित नाटकों की शृंखला में “सारशाकुंतल”, “रामजानकी दर्शन”, “द्रौपदी दर्शन”, “बालकृष्ण विजय”, “कृष्णकुमारी” आदि प्रतिष्ठित नाटक हैं। 

इनका संपूर्ण साहित्य इनकी अंतरआत्मा की प्रतिछवि है अतः इनका साहित्य इनके व्यक्तित्व की पहचान है। कवि नर्मद महल में बैठकर लिखने वाले आरामपरस्त लेखक नहीं थे। एक समाज सुधारक होने के साथ-साथ एक प्रखर देशभक्त थे। गुजराती में “देशाभिमान” शब्द उन्होंने पहली बार प्रयुक्त किया। नर्मद ने राजनैतिक स्वतंत्रता का स्वप्न देखा। उनके लेखन का एक तीव्र स्वर यह है कि राजनैतिक स्वतंत्रता बड़ी दुर्लभ चीज़ है। इसे प्राप्त करने के लिए प्रजा को सभी बंधनों से मुक्त होना चाहिए। 

राजनैतिक से पूर्व वे सर्वग्राही जनसुधार की बात करते हैं जो उनकी देशाभिमान नामक रचना में उपलब्ध है:

निज देशनु अभिमान ते शुं, निज स्वतंत्रता थशे ते शुं
ऐने जाणी उद्यमी थाओ खन्ते, जुद्धे थाये नक्की जप पंते 
मूकी संतोष रहो ऊँची आशे, मागो एक सत्ताधारी पासे 
नडता बंधन कानो रोषे, एज इच्छसे तो नर्मद होंशें . . .। 

गुजराती में गद्य कथा का प्रयोग 1968 में अनुवाद रूप में हुआ—“हिन्दुस्तान मध्य नु एक झुंपडुं” नाम से। एक अस्पृश्य के साथ ब्राह्मण विधवा की पुनर्विवाह की घटना इसमें है। कथावस्तु, चरित्र योजना, वर्णन शक्ति, प्रत्यक्ष जीवन-व्यवहार, और प्रौढ़ भाषा ने “करण घेलो” रचना को गुजराती गद्य रचनाओं को सशक्त बनाने में मदद की जिस वर्ष “करण घेलो” प्रकाशित हुआ उसी वर्ष “सासुवहुनी लड़ाई” का प्रकाशन भी हुआ। “करण घेलो” ऐतिहासिक कथा होने पर भी उसमें वहम और अंधश्रद्धा का चित्रण करके समाज सुधार को भी चित्रित किया गया था जिसमें व्यंग्य का भरपूर प्रयोग किया गया था। (भारतीय नवजागरण और भारतेन्दु नर्मद– पृष्ठ-123) 

गुजराती पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे प्रथम निर्भीक व्यंग्यकार हैं। उनका युग ऐसा युग था जिसमें रहकर रूढ़ियों को तोड़ने का विचार करना भी चुनौतीपूर्ण था। नर्मद ने प्रचलित मूल्यों को तोड़ने का कार्य किया। “डांडियो” नामक हस्तलिखित पाक्षिक के एक अंक में “डाकिया” के कार्य को समझाते हुए लिखते हैं: “अरे लोगो! यह मत समझना कि मैं डांडिया हूँ और केवल डम डम डूम डूम डंका बजाना ही जानता हूँ। मैं ज़ुल्मों के अत्याचार से रैयत को बचाने, लुच्चों को तितर-बितर करने, तुम लोगों में से अज्ञान, वहम और अनीति को उखाड़ फेंकने और देश के हित में काम करने आया हूँ—मैंने इस दुनिया को अच्छी तरह से जाना पहचाना है। मैंने केवल डंका नहीं बजाया। मैं प्रपंचों की उखाड़-पछाड़ भी जानता हूँ। मैंने डांडियापन नहीं किया। लेकिन, फिर भी डांडियों की ही बात करूँगा—खबरदार।” इसमें नर्मद की सत्यनिष्ठा, व्यापक दृष्टिकोण और दो टूक शैली में अपनी बात कहनेवाले अक्खड़ नर्मद हमारे सामने आते हैं। 

नर्मद ने अपनी बातों को साहित्य की विभिन्न रचनात्मक विधाओं में प्रस्तुत किया जिनमें व्यंग्यात्मक संप्रेषण की प्रधानता रही हिन्दी में भारतेन्दु युग तथा गुजराती में नर्मद युग का अवतरण लगभग एक समय में ही हुआ। दोनों के युग की प्रमुख प्रवृतियाँ पुनरूत्थान, सामाजिक सुधार और नैतिक सुधार की रही हैं और यह भावना ऐतिहासिक नाटकों के पात्र निरूपण के पीछे काम कर रही है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस काल के दोनों भाषाओं के अधिकांश उत्तम नाटक नारी प्रधान हैं: नील देवी, महारानी पद्मावती, संयोगिता, कृष्ण कुमारी, वीरमती, कान्ता आदि आदि। 

भारतेन्दु एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा अपने सम-सामायिक व्यवस्था का खुलेआम चित्रण किया है। उनका समय सामाजिक जागरण का युग था। उन्होंने व्यंग्यात्मक यथार्थवादी चित्रों को नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया। भारतेन्दु जी की हास्य व्यंग्य-गरिमा मूल रूप से “विषस्य विषमौषधम”, “अंधेर नगरी” और “वैदिक हिंसा हिंसा न भवती” में पाई जाती है। 

“अंधेर नगरी” के कथानक का मूल उद्देश्य दुर्बुद्धि शासक की अयोग्यता प्रदर्शन करना है। ऐसी अवस्था में अत्याचार और स्वेच्छाचारिता बढ़ती है। रक्षक भक्षक में परिणत हो जाता है। भारतेंन्दु जी “अंधेर नगरी” नामक प्रहसन में लिखते हैं:

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥

अंधेर नगरी को राम विलास शर्मा “जन साहित्य का एक आदर्श नाटक मानते हैं” और कहते हैं कि इसका व्यंग्य और हास्य उन लोगों के लिए भी है जो साहित्य के मर्म तक नहीं पहुँच पाते।” भारतेन्दु बहुयज्ञ थे। वे युग के प्रति जागरूक थे, साथ ही देश और संस्कृति के प्रति उनका गहरा लगाव था। वे अपने युग के बहुत बड़े शैलीकार थे। भाषा और शैली के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। “अंधेर नगरी” में भाषा का वैशिष्ट्य और वैविध्य—चनेवाले, नारंगीवाला, हलवाई, कुंजड़िन, पानवाले, जातवाला, बनिया आदि वर्गीय पात्रों की भाषा में प्रकट हुआ है। अंधेर नगरी अपने कथ्य के कारण विशिष्ट कृति बन गई है। इस प्रहसन के अंतिम में महंत के बातों ने  समाज परिवर्तन की ओर संकेत किया है:

जहाँ न धर्म न बुद्धि नहीं, नीति न सुजन समाज। 
ते ऐसही आपुही नसे, जैसे चौपट राज। 

यह प्रहसन राजनैतिक व्यंग्य को प्रस्तुत करता है। भारतेन्दु के सम्पूर्ण मौलिक नाटक किसी न किसी प्रकार से समाज में व्याप्त बुराइयों पर तीखा व्यंग्य करते हैं प्रत्येक नाटक में समस्याओं का चित्रण है। जो भारतीय समाज में फैले अंधविश्वास, कुप्रथाओं का और अविवेकी, अविचारी राजाओं को सामने रखकर लिखा है। 

भारतेन्दु काल में धर्म, जातिवाद, पाप पुण्य की जड़ें यद्यपि बहुत गहरी थीं पर वे भीतर से सड़ चुकी थीं और कमज़ोर हो गई थीं जिसमें सामाजिक मान्यताओं की नींव डगमगा रही थी। समाज के स्वार्थ, लोभ, झूठी प्रतिष्ठा, झूठ, बेईमानी का बोलबाला था। भारतेन्दु जी ने अपने नाटकों में धर्म और जातीयता के रक्षक लोभी ब्राह्मणों से टके सेर जात बिकवा कर सामाजिक वर्ण व्यवस्था, धर्म तथा जातिवाद के खोखलेपन पर, ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए स्वार्थपूर्ण सामाजिक नियम विधानों पर तीखा व्यंग्य किया। जो उस समय मानवीय संबंधों को खोखला बना रहे थे। इससे समाज में आतंक फैल चुका था। (भारतेन्दु के नाटकों में व्यंग्य-सं. विश्वनाथ भालेराव। पृष्ठ– 113) 

“पाँचवें चूसा पैगम्बर” नाटक में अँग्रेज़ों की धार्मिकता द्वारा उनका भारतीयों पर किया गए शोषण वृत्ति को उजागर किया है। इस छोटे से नाटक में धार्मिक पाखंड का कितना गहरा असर समाज पर पड़ा इसका चित्र मिलता है। 

भारतेन्दु जी की रचनाओं में समाज संस्कार हेतु हास्य और व्यंग्य की योजना की गई है। जिनसे इनमें स्वभाविकता का समावेश हो गया है। इन कृतियों में संस्कृत नाटकों के विदूषक के समान हास्य रस की उत्पत्ति पात्र की वेशभूषा एवं उपहासजनक कुशलता से लाए गए हैं कि वे कथा के अंग बनकर नाटकों में सजीवता के संचार का कारण बने। प्रहसन में हास्य व्यंग्य की तीव्र धाराएँ तो सर्वत्र प्रवाहित होती हैं। 

“विषस्य विषमौषधम” आकाश-भाषिक की शैली में लिखित भाण है और उसमें आदि से अंत तक भंडाचार्य का एकालाप चलता रहता है। इसमें ‘क्या कहा’, ‘तुमको नहीं मालूम’, ‘हमें तो इतना मालूम है कि’— जैसे वाक्यांशों के आधार पर सूच्य सामग्री को प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है। किन्तु इन माध्यमों से भारतेन्दु ने नाट्य सामग्री को नया मोड़ दिया है और उसमें नए प्रसंगों को सम्मिलित भी किया है। 

भारतेन्दु के नाटकों में धार्मिक व्यंग्य भी मिलते हैं। “वैदिक हिंसा हिंसा न भवति” प्रहसन भी धार्मिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। इसमे अनेक महत्त्वपूर्ण बातों पर व्यंग्य किया है जो मांस भक्षण और मदिरा पीने वालों द्वारा वैदिक हिंसा का धर्मानुसार होना पुष्ट कराया गया है। उनके प्रत्येक नाटक में विधवा विवाह, मद्य और हिन्दुओं में में फैली कुप्रथाओं को व्यंग्यात्मक ढंग से व्यक्त किया है। “वैदिक हिंसा हिंसा न भवति” में गंडक पाप पुण्य की बात करता है—“मैं क्या उत्तर दूँगा। पाप-पुण्य जो करता है ईश्वर करता है। इसमें मनुष्य का क्या दोष है।” इसी प्रकार पाप पुण्य की परिभाषा हमें भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास “चित्रलेखा” में मिलता है। 

भारतेन्दु की एक बहुत बड़ी देन रंगमंच के प्रति जागरूकता थी। उनके नाटक रंगमंच के लिए लिखे गए थे। उनके नाटक समकालीन समाज के दर्पण है। अधिकांश नाटकों में सामाजिक भ्रष्टाचार का रूप प्रदर्शित किया गया है। सामाजिक व्यंग्य की भावधारा पर चलनेवाले नाटक “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति”, “अंधेर नगरी”, “विषस्य विषमौषधम”, “नीलदेवी”, “भारत-दुर्दशा”, “पाँचवें (चूसा) पैगंबर” हैं। 

भारतेन्दु जी के नाट्य कृतियों की मूल विचारधारा सामाजिक व्यंग्य में सामाजिक दूषणों को इंगित करने की थी। व्यंग्य की हर बात किसी-न-किसी रूप में व्यक्त हुई हैं। व्यंग्यात्मक संप्रेषण हमें इन नाटकों में मिलता है। 
“भारत-दुर्दशा” नाटक में भारतवासियों और सरकार पर बड़े प्रखर व्यंग्य किए हैं। इसमें व्यंग्य का पहला प्रहार देश दशा से बेख़बर आलस्य में डूबे हुए उन भारतीयों पर किया गया है जो भाग्यवादी हैं जो स्वयं अपने देश की दशा सुधारने के बदले अँग्रेज़ों पर आस लगा कर पशु जैसा जीवन-यापन कर रहे थे। वे अपने प्राचीन गौरव को भूल रहे थे। अविद्या, अज्ञान यही इसका मूल करण था। 

भारतेन्दु जी की नाट्य कृतियों की मूल विचारधारा सामाजिक व्यंग्य्यों में सामाजिक दूषणों को इंगित करने की थी। हर बातों में व्यंग्य किसी-न-किसी रूप में व्यक्त हुआ है। व्यंग्य का व्याप्त स्वरूप इन नाटकों में हमें मिलता है। 

नाटककार की, अदृश्य रूप से देश सुधारक तथा समाज सुधारक की सी मनोवृत्ति रही। अतः समसामयिक कुरीतियों के परिष्कार हेतु व्यंग्य किए बीना भारतेन्दु रह न सके। भारतेन्दु जी का युग हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण इतिहास का युग है। व्यंग्यात्मक सम्प्रेषण के माध्यम से भारतेन्दु जी और नर्मद जी ने अपने नाटकों को मूल रूप से प्रस्तुत किया जिसमें समाज परिवर्तन की और राष्ट्र चेतना का संदेश मिलता है। 

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