रंगीन सपनों का गुलदस्ता

15-04-2024

रंगीन सपनों का गुलदस्ता

डॉ. रानू मुखर्जी (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

पुस्तक: अंतर्दृष्टि–2 
पृष्ठ: 53 
मूल्य: ₹200
लेखिका: श्यामा सिंह 
प्रकाशक: श्री उदय वीर सिंह

बहुत दिनों के बाद वैचारिक तथ्यों से भरपूर, रोचक, मनोरंजक पुस्तक हाथ में आई—अंतर्दृष्टि-2। इससे पूर्व श्यामा जी रचित ‘अंतरदृष्टि-1’ से हम काफ़ी प्रभावित हुए थे। समय के साथ-साथ विषय और भाव में नवीनता है। यह संग्रह हमें एक दृश्य-यात्रा के साथ साथ भाव-यात्रा में भी ले जाता है। यह यात्रा जितनी अंदर की है उतनी बाहर की भी है जिसमें चित्र स्मृति के भी हैं और स्वप्न के भी। आँखें कैमेरे का काम करती हैं और मन भावनात्मक अनुभूतियों से भर देती हैं। इनमें एक बदलाव दिखता है जो समय, समाज और इतिहास में निरंतर घटित हो रहा है जिसे रचनाकार ने भरसक पकड़ने की कोशिश की है।

स्वभावनुसार श्यामा जी एक धीर, बौद्धिकता से भरपूर शांत, हँसमुख स्वभाव की है और इसका प्रभाव इनकी रचनाओं में भी प्रतिफलित हुआ है। 

ताला बंद बक्सा, नल में लगा हुआ ताला, सूखे वृक्ष पर लटकते सूखे पत्ते श्यामा जी का समाजिक चेतना और आने वाले भविष्य की ओर सतर्कता की वाणी है। 

“सहज सरल उपलब्ध होनेवाली वरदान की क़ीमत इन्सान ने सदा कम हीआंकी है” इसमें तीखा व्यंग्य है। जो तिलमिलाहट से भर देता है। 

रवीन्द्रनाथ ने प्रकृति के साथ मानव के स्वभाव को बड़ी गंभीरता के साथ जोड़ा है। मानव जीवन और फूलों की महक एक दूसरे के पूरक हैं। जब तक फूल शाख़ पर हैं अपनी महक से चारों दिशाओं में छाए रहते हैं। जब तक जीवित है मानव को भी कर्म के द्वारा अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना है। 

श्यामा जी हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं। सी.बी.एस.ई., आई.सी.एस.ई. स्कूल में 28 वर्ष से भी अधिक शिक्षण का अनुभव है। अतः इनके लेखन में बौद्धिकता ओर परिपक्वता का सुन्दर समावेश दिखाई देता है। वैसे देखा जाए तो बच्चों को पढ़ाना बहुत कठिन है। पर कलाकार तो कलाकार होता है उसके लिए एक ठूँठ भी कलात्मक भाव का अवलंबन बन जाता है। 

आलोच्य पुस्तक इस मायने में भी नवीन और विशेष है कि इसमें विविध भावनाओं और विचारणीय तथ्यों पर भी विचार किया गया है जिनका वास्तविकता से गंभीर सम्बन्ध है। चित्रों में मौजूद वस्तुओं और स्थितियों का वर्णन इतनी तफ़सील से किया गया है कि आपको उस संसार में पहुँचने में एक पल भी नहीं लगता, चित्र और शब्दों की सेटिंग इतनी कुशलतापूर्वक और ऐसी झलकों में की गई है कि हमारा मन उनके साथ मिलकर एक रस हो जाता है। 

श्यामा जी गा उठती हैं:

“जीना मुहाल है, हाल बेहाल है, जीवन है जुगाड़ है, 
जीना तो हर हाल है, सब संतुलन का कमाल है।” 

वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के चलते आज जब हर चीज़ बाज़ार की शक्तियों द्वारा नियंत्रित की जा रही है, एक कवि इन परिवर्तनों को किस नज़र से देखता है। जहाँ झोपड़ीनुमा घरों में रहने का संघर्ष है वहाँ कवयित्री कह उठती है:

“बड़ी कोमलता से सेती हूँ नव-जीवन, 
अपने पंखों की उड़ान को बचा रखा है।”

एक अद्भुत चित्र है इस पुस्तक में। न जाने चित्रकार को यह चित्र कहाँ दिखा? 

एक चित्रपट पर सभी धर्मों के धार्मिक चिह्न एक साथ हैं:

“इस जगत की यही कामना। 
 ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य मिटाए। 
 हर धर्म के सद्‌ विचार अपनाएँ।” 

बहुत बड़े फलक पर धार्मिक मनोभावों को एकजुट करने वाली भावना है। हमें इस विषय पर बड़ी गम्भीरता से विचार करना चाहिए। श्यामा जी के भावों में विवेकानंद जी के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस जी के धर्म सम्बन्धित विचारों की झलक नज़र आती है—सर्व धर्म समभाव। 

गायों के झुंड को घर लौटते देखकर हमें भगवान कृष्ण याद आ जाते हैं: 

“साँझ हुई घर लौटने का वक़्त है, रास्ता भले ही कितना सख़्त है।” 

बरबस हमें सूर याद आते हैं:

“अजु मैं गाई चरावन जैहौं। 
वृंदावन के भाँति भाँति फल अपने कर मैं खेहौं। 
प्रात: जात गैया लै चारन घर आवत हैं साँझ।” 

सूर के स्वर में स्वर मिलाकर कवयित्री लिखती है:

“कितना सुकून है इस वापसी के सफ़र में भी।”

आशीष कपूर जी की “हरसिंगार सी मेरी माँ” पर लिखी एक कविता पढ़ी थी: 

“हरसिंगार का फूल मुझे माँ की याद दिलाता है। 
कितना सुंदर, कितना कोमल, घर पावन कर जाता है।”

श्यामा जी लिखती हैं:

“हरसिंगार के फूल चादर की तरह बिछे हैं ज़मीन पर। 
जितनी महक से रात-भर महकी थी हवा; 
सुबह हवा ही उसकी शत्रु बन गई। 
डाल से जुदा कर दिया।”

श्यामा जी हिन्दी प्रभा पत्रिका की उप-संपादिका हैं, “विश्व भाषा अकादमी” की सदस्य हैं, इनकी रचनाएँ हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि 2023 में अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति द्वारा श्यामा जी को “संस्कृति समन्वय सम्मान” से केरल में सम्मानित किया गया। हार्दिक अभिनंदन श्यामा जी। 

साहित्य का मुख्य उद्देश्य जनता को प्रकृति के प्रति प्रेम को बढ़ाना, मानवता को स्थापित करना तथा मन की वृत्तियों का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करना है। श्यामा जी को प्रकृति से असीम प्रेम है। प्रकृति कहते ही हमें मैथिलीशरण गुप्त, निराला, शमशेर आदि कवि बरबस यादआ जाते हैं। इसके साथ ही हमारी प्रिय श्यामा जी सपनों के गुलदस्ते के साथ उपस्थित हो जाती है—रंग-कविता-मानव। 

“जिसकी लाॅरी पर ये फूलों की दुकान है, 
जो सजाता फिरता सबके मकान है, 
उसके घर में सजावट की गुंजाइश ही नहीं, 
उसे घर भी मयस्सर हो, नहीं आसान।”

कर्मजीवी लोगों का जीवंत चित्र खींचा है। ऐसी ही एक दूसरी कविता है: 

“जो लाजवाब वस्तुओं से भरी 
कच्चे रास्ते की एक छोटी सी दुकान है–
जो लोगों के सपने बेचती है।
आस्था और विश्वास से, 
जीवन के रिश्तों के पौधे सींचती है।” 

राही मासूम रज़ा के शब्दों में, “आपस में अगर आस्था और विश्वास न हो तो जीवन का जंग हार गए समझें।” बोझ फूल जैसा तब बन जाता है जब कोई हाथ बँटानेवाला हो। कवियित्री लिखती है:

“कट जाता है सफ़र हँसते गाते, 
आसानी से, प्यार में हार जाना भी, 
कभी हार नहीं लगती।” 

यही बात कुछ हद तक चित्रों के साथ भी लागू होती है:

“कितना ज़रूरी है बतियाना अपनी सखियों से, 
मन का कितना मैल धुल-पुंछ जाता है।”
 

श्यामा जी का सुझाव है कि समय निकालकर ज़रूर बतियाना अपनी सखियों से। 

भारतीय परंपरा को कवि ने यहाँ बड़े सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत किया है। हमारे संस्कार हमें स्थल की पवित्रता की शिक्षा देते हैं। कहीं भी हम जाते हैं तो स्थल की पवित्रता हमारे मन में होती है। अतः हम अपने गन्तव्य स्थल में प्रवेश करने से पहले, न जाने कितनी गंदगियों को समेटकर लाए जूतों को उतारकर प्रवेश करते हैं। चित्र लाजवाब और अनमोल है। श्यामा जी अभिव्यक्ति की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। “यहाँ सूरत नहीं, सीरत की नाप जाएगी।” गहरे गुफाओं के चित्र प्राचिन युग की याद दिलाते हैं। कवयित्री कहती हैं, जब मानव मैदान की सभ्यता से थक जाता है तब पहाड़ों कंदराओं में जाकर रुकता है ज्ञान की शरण में आते तक वहीं छुपा रहता है। सहभोज की परंपरा पौराणिक युग से चली आ रही है जो आपसी मेल मिलाप, सामाजिकता और हर्षोल्लास का प्रतीक है। सहभोज का आनंद अपरंपार है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक के लिए श्यामा जी को साधुवाद। नमन!

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