एक कलाकार की मौत
डॉ. रानू मुखर्जीपता नहीं क्यों आज सुबह से ही मैं अपने हर कार्य में असफल हो रही हूँ। कोलकाता के लोकल ट्रेन का कोई भरोसा नहीं यह बात तो समझ में आती है, परन्तु अपने घर में, अगर एक बहुत पुरानी फोटो को ढूँढ़ने में असफलता मिलती है तो दिल तो दुखता ही है। एक फोटो किसी और का नहीं, मेरे बाबा का, जिसमें उन्होंने शाहजहाँ की ड्रेस पहनी थी और शाहजहाँ बनकर दिल्ली के तख़्त पर बड़े शान से बैठे थे। क्या पता क्यों मैं पागलों की तरह उस फोटो को ढूँढ़ रही थी।
मेरा मन रह-रहकर पिता की उस छवि को निहारने के लिए बेचैन था। आते-जाते माँ ने मुझे परेशान देखा तो न जाने कितनी बार पूछा, "क्या ढूँढ़ रही हो, बताओ तो सही, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।" शायद उनकी बात सही है, क्योंकि इस घर से विदा हुए मुझे बीस वर्ष हो चुके हैं और मेरे बाद एक-एक करके चार और बहनें भी इस घर से विदा हुई हैं और हर एक की विदाई के वक़्त घर का पूरा सामान इधर से उधर किया गया है। यह मुझे अच्छी तरह याद है। पर क्या करूँ, मुझे पता है कि माँ मेरी इस परेशानी को कदापि हल नहीं कर सकती। अपितु मेरी परेशानी सुन कर उनके शांत मन में अशांति का संचार हो सकता है।
अपनी जवानी के दिनों में मेरे पिता के पास हुनरों की खान थी। वे अनेक गुणों के मालिक थे। टेनिस खेलना उनको बहुत अच्छा लगता था। टेनिस के अच्छे खिलाड़ी थे। जब भी शाम को समय मिलता, मुझे साथ लेकर क्लब चले जाते और उस दिन तो फिर तीन-चार सेट खेलने के बाद ही घर लौटते। पुराने रिजेक्टेड टेनिस बाॅल को लेकर मैं बैठी रहती और न समझ आने पर भी बाबा के खेल का भरपूर आनंद लेती। घर के शोकेस में उनके सोने और चाँदी के मेडल आज भी रखे दिख रहे हैं। एक मैं ही तो थी जिसे पिताजी के गुणों का पूरा पता था; और बहनों के आते-आते तो पिताजी रिक्त हो चुके थे।
केवल खेलने का ही नहीं; खेल देखने का भी बहुत शौक़ था बाबा को। फुटबाल मैच देखने के तो वो पागल थे। बिड़ला ने अपने कर्मचारियों के शौक़ की ख़ातिर पेपर मिल के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा अंतर्राष्ट्रीय स्तर का फुटबाल ग्राउंड बना दिया था। बाहर से खिलाड़ियों को बुलाया जाता और छोटे-बड़े अनेक मैचों का आयोजन उस ग्राउंड में होता। मैंने देखा था, पिताजी छुट्टी लेकर दो-ढाई बजे साईकिल लेकर हाँफते हुए आते और आते ही एक ग्लास पानी पीकर मुझे लेकर ग्राउंड की ओर दौड़ जाते। फिर तो तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा मैदान शाम के छह बजे तक गूँजता रहता। वहाँ से आने पर मुझे माँ के प्रश्नों का सामना करना पड़ता: "तेरे पिताजी पूरा वक़्त ग्राउंड पर ही थे क्या?", "तुम्हारे साथ और कौन-कौन था?", "गुप्ता जी की बेटियाँ भी क्या खेल देखने आई थी?" और फिर उनका एड़ी ठोक कर तेज़-तेज़ चलना शुरू हो जाता और तब तक नहीं रुकता जब तक पिताजी पर उनका पूरा आक्रोश न निकल जाता।
"खेल तो एक बहाना है, बस हुल्लड़बाज़ी करना ही मूल है। मैं नहीं जानती क्या, मुझे सब पता है खेल के मैदान में क्या होता है?" और मैं ग़ुस्से से लाल होते पिताजी के चेहरे को देखकर डर जाती। पर मैंने कभी भी पिताजी की आँखों में पराई औरतों के लिए आसक्ति के भाव नहीं देखे। और कोई समझे न समझे नारी इस भाव को बड़ी आसानी से पढ़ सकती है। और माँ की कृपा से तो बचपन से ही मुझे इस कला की शिक्षा मिल रही थी कि कौन किस ओर कैसे देख रहा है। कभी-कभी मैं सोचती, माँ को यह सब कैसे पता? किसने माँ को यह सब सिखाया है? अक़्सर माँ कहती हैं, उनकी शादी तेरह वर्ष की उम्र में ही हो गयी थी। फिर कैसे यह सब समझ लेती है? घर बैठे-बैठे! बाबा के साथ तो हर समय मैं ही रहती हूँ। दरअसल माँ की कल्पना शक्ति असीम थी। आज भी घर में पिताजी का टेनिस रैकेट शो-पीस की तरह सजा सजाया पड़ा है और शो-केस में उनके दो-एक मेडल भी रखे हैं।
बाबा को बाग़वानी का भी बहुत शौक़ था। जाने कहाँ-कहाँ से फूलों के पौधे ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाते और गमले में रोपकर खाद-पानी देकर उनकी ख़ूब सिंचाई करते। इस तरह से हमारे घर में चालीस-पचास गमले इकट्ठे हो गए थे। जाने कितने रंग के गुलाब छोटे-बड़े हर रूप में खिलते थे। सुबह-सुबह उठ कर बाबा सबसे पहले उन पौधों को पानी पिलाते, फिर जी भरकर फूलों की शोभा को निहारते हुए सुबह का चाय पर्व समाप्त करते। चाय बाबा की सबसे पसंदीदा पेय रही। मेरे चाय का चस्का शायद उन्हीं की देन है। इस पूरे समय में बाबा एकदम अकेले होते। माँ का इन सब में कोई साथ या उत्साह उनको कभी भी नहीं मिलता। परंतु बाबा भी ऐसे में अकेले रहने लगे थे। कभी-कभार उनके पास मैं पहुँच जाती तब तो वो फूलों की बगिया को मुझे दिखाकर ही ख़ुश हो जाते, "आ बिटिया! देख पीला गुलाब अभी तक पूरा खिला नहीं है। अधखिला गुलाब, इस रूप में ही सबसे अधिक ख़ूबसूरत लगता है। लाल गुलाब का रंग जब अधिक गहरा हो तो उसे ब्लैक रोज़ कहते हैं और मेरे ब्लैक रोज़ को तो कोई मात नहीं दे सकता है, क्यों बिटिया?" और मैं मन ही मन मुस्कुराती अपने पिता की दक्षता पर। प्यार से बाबा फूलों पर हाथ फेरते, पत्तों को रूई के फाहों से पोंछते, जैसे कोई छोटे बच्चे को प्यार से सँवार रहा हो। स्नेहवत्।
कभी-कभार पिताजी अपने दोस्तों को भी अपना बाग़ीचा दिखाने ले आते। साथ में उनकी पत्नियाँ भी आतीं। और जब वो कहतीं, " सलिल बाबू आपके हाथों में तो जादू है, क्यों! कैसे इतने सुन्दर फूल खिला लेते हैं। चुन-चुन कर कैसे इतने सुन्दर लुभावने रंग के फूल के पौधों को लाते हैं आप! सचमुच कमाल का हुनर है आपमें।" और मैं त्रस्त हो कर एक कोने में खड़ी माँ के चेहरे को टकटकी लगाए देखती रहती थी। उनकी आँखों का रंग मुझे बदलता हुआ दिखता। होठ एक रूढ़ जवाब के लिए तत्पर दिखते। पर बातों का विषय बदलते हुए पिताजी सबको चाय के लिए बैठक में आमंत्रित करते और फिर सब कुछ शांत हो जाता। बाबा के प्रति माँ की इस एकाधिपत्यता ने ही बाबा को अकेला कर दिया था। निपट अकेला।
ग़ज़ब का हुनर था उनके हाथों में। न जाने कैसे सुन्दर-सुन्दर फूल खिलाने वाले हाथ हीटर, पंखा, इस्त्री, रेडियो और न जाने कितने बिजली के बिगड़े हुए उपकरणों का मरम्मत पल भर में कर देते थे। एक बार, मुझे याद है, रामपुर कोलियारी के मैनेजर, जो कि बाबा के घनिष्ट मित्र थे, अपना प्रिय फिलिप्स का रेडियो लेकर शाम को ही हमारे घर आ धमके। और कहने लगे कहाँ हैं सलिल बाबू, आज तो मैं इस रेडियो को ठीक करवाकर ही ले जाऊँगा। कल महालया (दुर्गा पूजा के पन्द्रह दिन पूर्व माँ दुर्गा कि आराधना में भोर के चार बजे स्त्रोत्र पाठ होता है। देवी पक्ष। जिसमें देवी के उपलक्ष में गीत गाए जाते हैं, और पाठ भी होता। भाव विभोर कर देने वाला कार्यक्रम होता है। जिसे विख्यात कलाकार भक्ति भाव से प्रस्तुत करते हैं) है। भोर के चार बजे हमें सुनना है। अगर नहीं लेकर गया तो बीबी घर में नहीं घुसने देगी। माँ अंदर से कुढ़ने लगी, "लोगों को कितनी फ़िक्र है बीबी की, देख? तेरे बाबूजी को कुछ परवाह है मेरी? सारा दिन काम और काम!" उस दिन, मुझे याद है, बाबा फ़ैक्टरी से भी देर से लौटे थे और काफ़ी थके हुए भी थे। फिर भी मैनेजर का मान रखने के लिए रेडियो खोल कर जाँच कर बता दिया कि मामला बड़ा गड़बड़ वाला है। काँटा हिलानेवाला तार ही टूट गया था। जिसको ठीक करने में कम से कम तीन घंटे तो लगेंगे ही। तब क्या किया जाय? हमारे पास दो रेडियो थे। एक तो हम बजाते थे, दूसरा ज़रूरत पड़ने पर काम आएगा इसलिए रखा रहता था। महालया सुनने के लिए बाबा ने उनको हमारा दूसरा रेडियो दे दिया। एक बार जो रेडियो गया तो फिर लौटकर नहीं आया। कुछ दिन के बाद वह अपने वाला रेडियो भी ले गए। सभी बाबा की भलमनसाहत का फ़ायदा उठाते थे। महालया के दिन मैनेजर की बीबी ने एक मिठाई के डब्बे के साथ धन्यवाद कहलवाया था जिससे माँ जल-भुन गई थी, और मेरा दिल बैठ गया था। शाम को बाबा के लौटने पर माँ ने उनके सामने मिठाई का डिब्बा फेंककर कहा, "ये लो! खाओ। सब का दिल रखो घरवालों का छोड़कर।" बाबा इतना समझाते, "मैं इतना सब तुम सब के लिए ही तो करता हूँ।" पर वही, ढाक के तीन पात। उस बार महालया का दिन बड़ा ख़राब बीता था। पूरी शाम बाबा सर थामकर अपने पौधों के साथ बैठे रहे। एक भी उपकरण की मरम्मत नहीं की। इस तरह से बाबा ने धीरे-धीरे स्वयं को इस काम से अपने आप को हटाना आरंभ कर दिया।
आज जब भी मैं सौ रुपये ख़र्च करके बिजली का एक तार लगवाती हूँ तो मेरा मन रो उठता है। काश, मैंने भी कुछ हुनर बाबा से सीखे होते। मेरे कारण भी कभी-कभार बाबा को बहुत घाटा उठाना पड़ता था। स्पीकर के काग़ज़ को ब्लेड की धार से चीरने में मुझे बड़ा मज़ा आता। कैसी च र-र-र-र आवाज़ होती। इसे देख बाबा मुस्कुराते भर, पर कुछ कहते नहीं। केवल मुझे आगाह करते, "बिटिया करंट लग जाएगा। टेबल के पास मत आना।" आज लगता है शायद माँ के क्रोध से मुझे बचाने के लिए ही कुछ नहीं कहते थे। जितना वक़्त शांति से बीतता है बीत जाय। न जाने क्यों बाबा अशांति से दूर रहना चाहते थे? कभी-कभार जमकर लड़ाई भी होती। पर फिर से सब ठीक-ठाक हो जाता। इस प्रकार से हम चार बहनें बड़ी हो गईं। हम सब से चिड़-चिड़ करती रहतीं पर छोटी के प्रति उनका स्नेह अपार है। छोटी उनके जीने का आधार है। उसके बिना उनका एकदम नहीं चलता है। हर रविवार को उसका आना निश्चित है। उसका गोरा-चिट्टा बेटा तो माँ की आँखों का तारा है और बाबा का खिलौना।
बाबा का एक तीसरा हुनर जिससे माँ को सबसे अधिक चिढ़ थी, वह था उनका कलाकार होना। ग़ज़ब के कलाकार थे बाबा। जिस किरदार को भी निभाते उसमें जान डाल देते थे। इतने रम जाते थे कि अपने आप पर उनका क़ाबू नहीं रहता था। दशहरे के दिनों में कोलोनी लोग मिलकर नाटक करते थे। उस बार "शाहजहाँ" नाटक का होना निश्चित हुआ। शाहजहाँ कौन बनेगा? लंबा क़द, गोरा-चिट्टा रंग, सर पर काले घुँघराले बाल, उस पर ताज पहनने वाला मेरे बाबा के सिवाय और कोई नहीं था। उन दिनों नारी चरित्र भी पुरुष ही निभाते थे। पुरुषों को रानी का रोल करना पड़ा। उनका मटकना देखकर दर्शक हँसते-हँसते लोट-पोट हो रहे थे और मैं साँस रोक कर शाहजहाँ के स्टेज पर आने का इंतज़ार कर रही थी। अंत में सफ़ेद कपड़ों से लैस, सर पर ताज पहने मुगल बादशाह का बिगुल बाजे के साथ दर्शकों के सामने स्टेज पर आगमन हुआ। "कौन है वह बाग़ी, जो मेरे ख़िलाफ़ जाना चाहता है? उसे बुलाया जाए। उसकी इतनी हिम्मत कि . . ." गुरु गंभीर आवाज़ के सुनते ही वातावरण में निस्तब्धता छा गई। बादशाह ने अपनी राजसीय अदा के साथ अपने कमरे में लटकती हुई तलवार को भी निकाल लिया था। फोटोग्राफर फटाफट फोटो खींचने लगे। क्लोज़ अप और न जाने कितने-कितने पोज़ में मेरे बाबा बादशाह बनकर दर्शकों के सामने खड़े थे।
वह जो बादशाह वाला चित्र मेरे मन में उस दिन खींच गया था वह फिर कभी नहीं मिटा। एक रोबीला स्वर, सबको आकर्षित करने वाला मेरे दिमाग़ मैं आज भी गूँज रहा है। केवल एक दुख था– बाबा क्यों अपनी इस गुरु गंभीर आवाज़ में बिगड़े हुए वातावरण को शांत नहीं कर पाते? हरदम एक दबाव में रहते क्यों? तब मैं बहुत छोटी थी, मुझे ऐसा लगता था कि अगर बाबा ज़ोर से एक बार माँ को डाँट देते तो शायद माँ सारा दिन भुन-भुनाना बंद कर देती। पर ऐसा कभी नहीं होता। वक़्त बेवक़्त दोनों झगड़ते रहते। बाबा कहते, "साल में एक ही बार तो नाटक करता हूँ। वह भी तुम्हें अच्छा नहीं लगता है? ऐसा क्यों?" माँ कहती, "तुम्हारा इस तरह स्टेज पर नौटंकी करना मुझे अच्छा नहीं लगता है। सब लोगों के सामने कूदना-फाँदना क्या दो बच्चों के बाप को शोभा देता है? हम ऊँचे घराने के लोग हैं। हम वो सब नहीं कर सकते जो आम लोग करते हैं। हमारे संस्कार औरों से अलग हैं। बच्चों पर इसका ग़लत असर पड़ सकता है।" और बाबा चुप।
पर मुझे पता था बात वो नहीं थी जो माँ अपनी सफ़ाई में कहती थी। बात कुछ और ही थी। भीड़ में बैठकर माँ सभी की बातों को सुनती रहती थी। बाबा का स्टेज पर डायलाग बोलना, ऐक्टिंग करना तो वो देखती भी नहीं थी। लोग बाबा के विषय में क्या बात कर रहें है, बाबा के प्रति उन सभी की मानसिकता, उनकी दृष्टि, सब पर बड़ी तेज़ नज़र होती माँ की। बाबा के प्रशंसकों को देखकर मन ही मन चिढ़ती रहती और अपनी तलवार की धार को तेज़ करने की तरकीबें सोचती रहती। "कैसे सलिल बाबू इतना अच्छा कर लेते हैं, अपने पार्ट में तो जान डाल देते हैं?", "कितने जच रहे हैं शाहजहाँ के रोल में, है न?", "क्या शाहजहाँ सच में इतना ख़ूबसूरत था या शाहजहाँ के रोल में सलिल बाबू सुन्दर लग रहें हैं?", " सलिल बाबू जितने सुदर्शन हैं उतने अच्छे इनसान भी हैं। बीनू की माँ बड़ी भाग्यवान है।"
और मैं बीनू डर से थरथर काँपती रहती। रात का खाना शायद ही नसीब होगा। दशहरे के ड्रामे में एक और बात होती। नाचने वालियाँ भी आती थीं। उन दिनों स्टेज पर बहुत कम ही नारी पात्र नाचती थीं। स्टेज पर नाचने वालियों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अश्लील समझा जाता था। दूसरे शहर से नाचने वालियों को बुलाया जाता था। जानकर माँ का पारा चढ़ जाता। "पुरुष का सर खाने आती हैं। इन बेहया औरतों का कोई काम नहीं है।" मैं जानती थी, स्टेज पर नाचवालियों का होना माँ को बिलकुल पसंद नहीं था। उनका होना माँ को खलता था।
कभी बहाना बनाकर मुझे भेजती, "जा देख आ तो बाबा कैसे लग रहे हैं।"
और मेरे लौटने पर सबसे पहली बात यह पूछती, "नाचवालियाँ तेरे बाबा से गप्पें तो नहीं मार रही थीं? वो सब क्या कर रही थीं?" जैसे अनेक प्रश्नों की बौछार कर देती। और मैं त्रस्त हो माँ चेहरा ताकती रहती। पर मेरे बाबा को इन सब से कोई मतलब नहीं था। वो तो अपने पार्ट में ही व्यस्त रहते। मेरे जाते ही मुझे लिपटा लेते। लोग कहते सलिल बाबू इतना व्यस्त रहते हुए भी कैसे अपना पार्ट कंठस्थ कर लेते हैं?
पर मुझे पता था बाबा पार्ट कंठस्थ नहीं करते थे पार्ट को ओढ़ लेते थे। पार्ट में रचपच जाते थे। भाव विभोर होकर संवाद बोलते थे, ऐक्टिंग में जान डाल देते थे।
एक बार जब मैं बाबा से मिलने स्टेज पर गई तब बाबा की नज़र बचाकर नाचनेवालियों से भी मिलने चली गई। तब उनमें से एक ने खींच कर मुझे अपने पास बैठा लिया और अपने कुछ गहने खोलकर मुझे पहना दिए। मैं तो डर से सकपका गई। माँ को क्या जवाब दूँगी? मैं दौड़कर वहाँ से बाहर आ गई और इधर-उधर देखकर गहनों को खोलकर डस्टबिन में डाल दिया।
शाहजहाँ के पार्ट ने तो सारे शहर में तहलका मचा दिया। सभी की ज़ुबान पर तो सलिल बाबू का नाम था। दल इतना मशहूर हो गया कि सभी लोग चाहने लगे कि सभी पर्व त्यौहारों में यही ड्रामा खेला जाय। पर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि जितना तहलका शहर में मचा उससे भी ज़्यादा तहलका हमारे घर में मचा। माँ ने खाना-पीना, सजना-सँवरना सब छोड़ दिया। पलंग पर पड़ी रहती और कहती रहती- "मर जाऊँ तो उनको क्या? दूसरी ले आएँगे। तुम लोगों की ही दुर्गति होगी, सोचकर दुख होता है।" हार कर बाबा ने कहा, "बीनू की माँ मैं और कभी ड्रामा नहीं करूँगा। उठो तुम खाना खा लो।" मेरा मन बड़ा आहत हुआ।
ड्रामे के डायरेक्टर ने शाहजहाँ के फोटो को, फ़्रेम करके बाबा को प्रेज़ेन्ट किया था। वही फोटो सामने टेबल पर रहती थी। कभी-कभी देखती वो फोटो उलटी पड़ी है। मैं चिल्ला उठती, "किसने उलटकर रखा इस फोटो को?" माँ कहती, "ऐसा क्या है इस फोटो में जो इसे घर की शोभा बनाकर सामने सजा कर रखा है। जो भी आता है पूछता रहता है। हटा इसे।" धीरे धीरे धीरे मैंने भी विरोध करना बंद कर दिया। अब बाबा ने सबकुछ छोड़ दिया था। केवल काम पर जाते और घर पर आकर पढ़ते रहते। केवल काम ही काम रहता। शारीरिक परिश्रम अधिक और मानसिक अशांति के कारण बाबा को हाई ब्लड प्रेशर की शिकायत हो गई थी।
अब तक हम बहनें बड़ी हो गईं थीं। चार-बेटियों के पिता होने का भार भी बाबा को काफ़ी परेशान करता, पर कभी व्यक्त करते हुए नहीं देखा। उनकी परेशानी को उनके हाव-भाव से ही भाँप लेती थी। केवल देखती, सर को झुकाए, कंधा भी उसके साथ थोड़ा झुका हुआ होता और बाबा काम से लौट रहे हैं। परेशानियों को पूछने की इजाज़त भी नहीं थी। दो-चार वाक्य बाण चल जाते। ऐसे में बाबा के जबड़े भिंच जाते और चेहरा लाल पड़ जाता। कोई विरोध नहीं। दो-एक बार विरोध किया था पर कोई असर नहीं हुआ। केवल दो-तीन बर्तन टूटते, रात का खाना ऐसे ही रह जाता, बहने रो-धो कर सो जाती। दूसरे दिन कामवाली सारा खाना समेट कर ले जाती। शायद इसी क्रम को बाबा बार-बार दोहराना नहीं चाहते थे। इसलिए बाबा चुप रहते। उनकी चुप्पी को माँ अपना विजय मान लेती और दनदनाती घुमती रहती। अपने पति को ले कर ईर्ष्या-द्वेष का भाव उन के मन में ज़रूरत से अधिक था। इस भाव ने उनके बेटियों को भी नहीं बक्शा था। अपने पति को अपने तक ही जकड़ कर रख कर, दुनिया की नज़रों से बचाकर, सभी से संबंधों को काटकर, एकदम अलग-थलग रखना चाहती थी। क्या बाबा इस बात को नहीं समझते?
रिटायरमेंट के बाद जब बाबा कोलकाता आए तो वहाँ भी माँ ने उनका वही हाल किया। ख़ुद तो कहीं निकलती ही नहीं थी। बाबा ने पड़ोसियों से थोड़े संबंध बढ़ाए थे। शाम को कभी-कभार उन लोगों का हालचाल पूछने चले जाते। पर माँ को यह नहीं भाता था। लौटने पर, "क्या इतनी जल्दी गप्पबाज़ी ख़त्म हो गई? कैसे छूट गए दोस्तों के चंगुल से?"
और कुछ हो न हो, बाबा बहुत अभिमानी थे। नर्म दिल वाले। मन में अगर कोई बात चुभ गई तो मान अभिमान से मन बहुत दिन तक रक्ताक्त रहता। किसकी मजाल एक शब्द भी उनकी ज़ुबान से कोई निकाल सके। दिल ही दिल में अकेले बैठे-बैठे घुटते रहते। न जाने कितनी बार बाबा को अकेले गुमसुम बैठे देखा, एकटक आकाश के किसी कोने में नज़र टिकाए। जाने क्या सोचते? शायद अपनी माँ को ढूँढ़ते। बहुत बार मन हुआ जाकर पुछूँ, "क्या हुआ बाबा? आप क्या सोच रहे हैं? कुछ कहें तो दिल का बोझ हल्का हो।" पर नहीं साहस ही नहीं हुआ कभी। हम सभी को अशांत वातावरण से एक हदत क मानसिक त्रास का अनुभव होता था। अक़्सर हम सबकी यही कोशिश रहती कि घर का वातावरण शांत रहे। जब तक अविवाहित रही मैके में रही कभी भी दिल खोलकर बाबा से बात भी नहीं की। उनका सुनना तो दूर अपने मन की कह भी न सकी। आज जब भी मैके जाती हूँ बाबा को अकेला नि:संग देखकर मन रो उठता है। ज़ुबान पर जैसे ताला लग जाता है। कुछ पूछा ही नहीं जाता। शादी के बाद भी माँ हम पर एक हौवा बनकर हावी रही।
एक-एक करके बाबा की सारी ख़ूबियाँ नष्ट हो गईं या यूँ कहिये उन्हें नष्ट कर दिया गया। नए वातावरण में पनपने ही नहीं दिया गया। अगर थोड़ा भी सहज वातावरण मिलता तो आज बाबा एक अच्छे खिलाड़ी के रूप में जाने जाते। मैं यह नहीं कहती बाबा एंड्रू अगासी या पीट सैम्प्रास होते पर एक अच्छे खिलाड़ी तो होते। उनके घर के सामने एक सुन्दर सा हरा-भरा, फूलों से लहलहाता, उनके हाथों से सींचा गया, उनका अपना एक बहुत बड़ा नहीं तो छोटा सा फूलों का बाग़ीचा होता, जहाँ शाम को बैठकर चाय का आनंद लेते। शहर के लोग उनको, "बिजली के उपकरणों के जादूगर हैं" न कहकर, " बिजली के उपकरणों का अच्छा जानकार है," तो कहते।और अगर कुछ न बनते तो कम से कम एक अच्छे कलाकार तो बनते जो अपनी हुनर से हर किरदार में जान डाल देता। ऐसी जीवन्त उनकी अदाकारी होती कि दर्शक दाँतों तले ऊँगली दबाते। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
आज मैं बहुत उदास हूँ। मुझे ढूँढ़े वह तस्वीर नहीं मिल रही है, वही शाहजहाँ वाली। बाबा का रोबिला चेहरा देखने को बड़ा मन हो रहा है। कल ही मैं डाक्टर से उनके पाँव की एक्स-रे रिपोर्ट लेकर आई हूँ। डॉ. का कहना है कि उनके पाँव की हड्डी जोड़ से खिसक गई है, फिर से सही जगह पर जुड़ नहीं सकती। आजीवन उनको पाँव को घसीटते हुए चलना पड़ेगा। ज़्यादा चलने की कोशिश की तो दर्द बढ़ जाएगा। मुझे लगता है अब शायद माँ की आत्मा को चैन मिला। उनका पति अब उनसे दूर जा नहीं सकता, बाहर निकलने से कतराते हैं क्योंकि उनसे उम्रदराज़ लोग दनदनाते हुए घूम फिर रहे हैं। उनसे आँख मिलाते हुए भी बाबा को शर्म आती है। माँ ने जो चाहा भगवान ने उनको वही दिया। कहते हैं न सच्चे दिल से जो माँगा जाय, वह ज़रूर देता है। क्या बाबा इन हालातों में जीवित हैं? उनकी मौत तो उनकी हर कला के साथ होती गई थी। एक खोखला, चीथडा, टूटा-फूटा खंडहर खड़ा है बाबा के स्थान पर।
क्यों किया बाबा ने ऐसा अपने साथ? क्यों सहन करते रहे अमानवीय व्यवहार? घर में शांति बनी रहे इसलिए? बच्चों पर ख़राब संस्कार न हों इसलिए? पर कुछ अच्छे संस्कार तो मिल नहीं रहे थे। और दुखी तो सब रहते थे। एक शांति प्रिय इनसान की अंतिम परिणति ऐसे ही होनी थी क्या? ऐसे अनेक प्रश्न मुझे पागल कर देते हैं! इसी से बचने के लिए मैं आज पागलों की तरह उस शाहजहाँ को ढूँढ़ रही थी। वह नहीं मिलेगा। शायद उसे भी नष्ट कर दिया गया है।
2 टिप्पणियाँ
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Excellent.
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Touching memoirs of father. Excellent.
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