कबीर: सांप्रदायिक उन्माद के उन्मूलक
डॉ. रानू मुखर्जी
(1398 –-1518)
संत कबीर के जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम प्रमाणिक बातें हमें ज्ञात हैं। अधिकतर जनश्रुतियों एवं अंधश्रद्धा से जन्मी दंत-कथाओं के प्रचलित रूप से प्राप्त होते हैं। महात्मा कबीर का जीवन किंवदन्तियों और रहस्य कथाओं का भंडार है। कबीर पंथों ग्रंथों में ऐसी घटनाओं का वर्णन किया है, जिसे पढ़कर आधुनिक साहित्य के विद्वान या तो दाँतों तले उँगली दबा लेंगे या तो कोरी कल्पना का प्रसाद मानकर छोड़ देंगे। कबीर दास का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कबीर वैचारिक एवं सामाजिक चेतना की संवेदनशीलता के कारण अपने समय के समाज में इस क़द्र बसे हुए थे कि उन्हें हिन्दु एवं मुसलमान सभी समान रूप से पूज्य मानते थे।
कबीर पंथ में अनेक बृहदाकार ग्रंथ मिलते हैं। कबीर का समय और युग की मानसिकता को समझने के पश्चात इन ग्रंथों का महत्त्व आसानी से समझ में आ सकता है। ‘कबीर मंशूर’ जो मूलतः उर्दू में लिखा एवं छपा था, इसका वृहद् संस्करण 25 अप्रैल 1927 में छपा था, जो ‘बड़ा कबीर मंशूर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। इसके पहले दो बार स्वामी परमानन्द जी ने इसे लिखा था। तब इसके पृष्ठों की संख्या 350 से अधिक नहीं थी। इस ग्रंथ का कबीर प॔थी साधुओं में बड़ा सम्मान है।
‘मंशूर’ शब्द अरबी भाषा का है जो ‘नशर’ शब्द का बहुवचन है। ‘नशर’ शब्द का अर्थ है—ज्योति या प्रकाश। इस प्रकार से ‘कबीर मंशूर’ का अर्थ हुआ ‘कबीर की ज्योतियाँ’।
इस ग्रंथ में स्वामी परमानन्द जी लिखते हैं, “वह कबीर सारे जहाँ का गुरु, पीर अपनी बुज़ुर्गी और जलाल ख़ुद आप ज़ाहिर करता है और जब चाहे छुपा लेता है।” ग्रंथ का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए स्वामी जी लिखते हैं, “इस दुनिया के आदमजात बेख़बर है कि ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? माया क्या है? ख़ुदा क्या है बंदा क्या है? ख़ुदा परस्ती क्या है और बुत परस्ती क्या है सब इस पुस्तक में स्पष्ट किया गया है।”
कबीर जीवन भर हिन्दु मुसलमान एकता के लिए सबसे अधिक ठोस काम करनेवाले क्रान्तिकारी महापुरुष थे। उनका व्यक्तित्व रहस्यमय था। हिन्दु उन्हें महात्मा समझते थे और मुसलमान उन्हें पीर या औलिया मानते थे। वे अपने आलौकिक व्यक्तित्व के बल पर मानवीय गरिमा की पुनः स्थापना करना चाहते थे।
‘कबीर मंशूर’ में हिन्दुओं की मूर्तिपूजा के पीछे की श्रद्धा को भी समझाया गया है। मीरा का उदाहरण देकर बताया गया है कि कृष्ण की मूर्ति को भोग लगाकर उसने विषपान भी कर लिया तो उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ।
‘कबीर मंशूर’ में आदम के जन्म से पृथ्वी पर मनुष्य के विकास का भी चिंतन किया गया है। जल प्रलय और ‘नूर की किश्ती’ की घटना और ‘मत्स्यपुराण’ की घटना का तुलनात्मक चित्र दिया गया है।
कबीर के जीवन की कई चमत्कारिक घटनाओं का वर्णन महात्मा परमानन्द जी ने किया है। जैसे कि सिकंदर लोदी के जीवन की घटना। सिकंदर लोदी एक बीमारी से ग्रस्त हो गया था जिससे उसके पूरे शरीर में जलन का अनुभव होता था। कबीर ने उन्हें इस जलन से मुक्ति दिलाई जिससे इस क्रूर शासक का हृदय परिवर्तन हो गया। नानक, दादू, गोरखनाथ आदि संतों से कबीर साहब के वार्तालाप को भी इस ग्रंथ में दर्शाया गया है। ‘कबीर मंशूर’ में अनेक कबीर ग्रंथों का समावेश भी है। इसमें अनेक विलक्षण घटनाओं का वर्णन भी है। अद्भुत भाषा ग्रंथ की विशेषता है।
अगर हमें कबीर के विचारों को भली भाँति आत्मसात करना है तो हमें कबीर के समय को, कबीर की भाषा और भावों को समझना होगा।
भाषा मूलतः संस्कृति का एक अंग है और संस्कृति अपने को भाषा के माध्यम से जितना अभिव्यक्त करती है, उतना शायद ही किसी और माध्यम से करती हो। जिस ससकिरत को कूप जल और भाषा को कबीर बहता नीर कहते हैं उस कबीर की काव्य-भाषा आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में ‘पंचमेल खिचड़ी’ है। इसी भाषा को परवर्ती संत कवियों अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है, “चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।” (चिंतामणि भाग–2) शुक्ल जी के अनुसार रहस्यवाद के दो रूप हैं। (1) साधनात्मक रहस्यवाद (2) भावनात्मक रहस्यवाद। कबीर में ये दोनों प्रकार के रहस्यवाद पाए जाते हैं। साधनात्मक रहस्यवाद में साधक अज्ञात प्रियतम को जानने का प्रयास करता है। कबीर में इस रहस्य की अनुभूति भी है। इसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों जटिल है। इस संदर्भ में कबीर ने जीव, जगत, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्तवृत्ति के विषय में आत्मालोचन किया है। जैसे:
जीवन—झीनी झीना बीनी चिरिया
अष्टकवल दल चरखा डोलै सुषमन तार से बीनी चिरिया
वृहथ—अविद्या गगन मंडल घर कीजै
जगत—साधौ यह मुर्दों का गाँव
मन—अवधू मेरा मन मतवारा
परन्तु कबीर का प्रिय विषय भावनात्मक रहस्यवाद है। जिसमें कबीर ने भारतीय औपनिषदिक अद्वैतवाद एवं ईरानी सूफ़ी मत का समन्वय किया है।
भारतीय साधना पद्धति के तीन पक्ष हैं: (1) दीक्षा (2) विरह (3) परिचय।
दीक्षा: कबीर की रहस्यात्मकता का आरंभ गुरु दिक्षा से होता है। कबीर के गुरु का एक ही शब्द वाण कबीर को लगा:
“कबीर गूँगा हुआ बाउरा, बहरा हुआ कान
पाऊँ थे पंगुल भया सतगुरु वाँण
हँसे न बोले उन्मनी चंचल मेंल्ह्या मार।
कहै कबीर भीतरि भिद्या सतगुरु का हथियार॥”
विरह: दिक्षा प्राप्त कबीर की आत्मा राम की विरहिणी हो जाती है। रात दिन अपने प्रिय को पुकारते रहते हैं:
“रात्यूँ रूपी विरहिनी ज्यूस बचू को कुंज,
अंतर अणि प्रजल्या प्रगट्या विरहा पुंज।”
परिचय: रात दिन अपने हृदय को जलाकर जब विरहिणी कबीर की आत्मा अपने प्रिय को पुकारती है तो अंतत: प्रिय उनके घर पाहुन बनकर आते हैं और उससे भँवर डालते हैं फिर कबीर की आत्मा उससे मिलकर एकाएक हो जाती है:
“दुलहिनी गावहु मंगलाचरण। हमारे घर आए हो राजा राम भरथार॥”
कबीर की भाषा शैली में व्यंजना की प्रौढ़ शक्ति और काव्य गुणों का भंडार है। यद्यपि उनके विभिन्न शिष्यों के प्रांत भेद के कारण उनकी वाणी के विभिन्न रूप मिलते हैं जिनमें भाषा की एक रूपता नहीं मिलती है। सही शब्दों में कहा जाए तो उनकी भाषा में भावों को व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार—
“भाषा पर कबीर का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में कहना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया—बन गया तो सीधे सीधे नहीं तो दरेरा (धक्का) देकर। भाषा कबीर के समक्ष लाचार बन जाती है।” द्विवेदी जी पुनः कहते हैं, “व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में कबीर सबसे आगे रहते हैं। पंडित काजी, दोनों पर ऐसी, सीधी भाषा में ऐसी गहरी चोट करते हैं कि चोट सीधा मर्म तक पहुँचता है। कहते हैं:
“मेरे संगी दोई जणों, एक वैष्णों एक राम।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै राम॥”
अपनी आस्था और धर्म के प्रति अटल रहने के बावजूद भक्तिकालीन संत कवियों की सर्व-समावेशी दृष्टि को समझने के बाद भक्तिकालीन संत कवियों की भाषा की वह परत खुलने लगती है जिसे प्रायः सधुक्कड़ी कहा जाता है।
कबीर ने अपने ईश्वर को जिन प्रिय शब्दों के साथ सर्वाधिक स्मरण किया है वह शब्द है ‘साहिब’ उसके बाद उन्हीं नामों में ‘ग़रीब नवाज़’ शब्द मिलता है:
“साहब मेरा मैं साहब का”
कबीर ने तत्कालीन सत्ता की अनीतियों का भरपूर विरोध किया। व्यभिचारी प्रवृतियों के प्रति आक्रोश व्यक्त किया और तमाम पाखंड को अनावृत करने में ज़रा भी नहीं हिचके। लेकिन इन तमाम चीज़ों के बीच इस बात का उन्हें बराबर ख़्याल रहा कि अपनी किसी भी रचना में उन्होंने विरोधी धर्म के लोगों को अपमानित नहीं किया। कबीर की भाषा पर विभिन्न स्रोतों का प्रभाव देखा जाता है। सिद्ध साहित्य की अनेक प्रवृत्तियाँ कबीर साहित्य पर देखी जाती हैं। जैसे परंपरागत वर्ण व्यवस्था का विरोध, विभिन्न धर्म संप्रदायों की बाह्य पद्धतियों का खंडन, मुक्तक, पद, शैली, एवं सामान्य लोक भाषा को अपनाना आदि।
कबीर ने वैष्णव भक्ति अनेक तत्वों को ग्रहण किया। कबीर, गुरु परमानन्द जी के शिष्य थे। प्रेमानुभूति की तन्मयता के क्षणों में तो उनकी वाणी राम, हरी, गोविन्द का ही स्मरण करती है। उनके अंतर में तो वैष्णव भक्तों के अराध्य का नाम ही छुपा हुआ है:
“मेरे संगी दोई जणा, एक वैष्णव एक राम।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावे नाम।”
कबीर की वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं रमैनी, सबद, साखी। यह खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर एक समाज सुधारक, उच्च कोटि के रहस्यवादी कवि और सत्य के अन्वेषक थे। वे अपने मनोदगारों को सीधी, सरल जन साधारण की समझ में आ जाने वाली भाषा में ही व्यक्त करते थे। हृदय को स्पर्श करने की जितनी शक्ति कबीर की भाषा में है, उतनी अन्य किसी की भाषा में नहीं है।
हिन्दु मुसलमान एकता तथा सांप्रदायिक उन्माद का उन्मूलन करने के लिए कबीर साहब से ज़्यादा सार्थक और दृढ़ वैचारिक क्रांति कोई दूसरा संत नहीं कर सका। उनके उद्देश्य को पूरा करने के लिए कबीर पंथी साधुओं ने उनकी मृत्यु के तीन-चार सौ साल बाद तक इस काम का बीड़ा उठाए रखा और कबीर साहब की दिव्य पैगंबरी छवि निर्मित करने की कोशिश की।
कबीर मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटी के कवि, समाज सुधारक एवं संत माने जाते हैं, जिन्होंने आजीवन तत्कालीन समाज में व्याप्त आडम्बरों और कुरीतियों पर कुठारघात किया। कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वे अपने समय में थे। उनके चिंतन में गहराई और विचार दोनों ही हैं। कबीर की बातों को समझने के लिए खुले दिमाग़ के साथ साथ सच्ची और कड़वी बात सुनने की हिम्मत भी चाहिए। वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में युवाओं हेतु कबीर के मार्ग दर्शन और प्रेरणादायक विचारो का प्रचार-प्रसार अनिवार्य है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- कबीर: सांप्रदायिक उन्माद के उन्मूलक
- किसान विमर्श और साहित्य
- गिरीश कर्नाड ने नाटक विधा को उसकी समग्रता में साधा है
- डॉ. राही मासूम रज़ा का साहित्य और समकाल
- प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी के उपन्यासों में संवेदनशीलता “हवन” उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में
- प्रेमचंद रचित लघुकथाओं का वैशिष्ट्य
- बहुआयामी प्रतिभा की धनी : डॉ. मेहरुन्निसा परवेज़
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और नर्मदाशंकर लालचंद दवे के नाटकों में व्यंग्यात्मक सम्प्रेषण
- भाषा: मानवीय अस्मिता की परिचायक (गुजरात के परिप्रेक्ष्य में)
- मूल्यनिष्ठ समाज की संस्थापक – नारी
- मैं क्यों लिखती हूँ?
- रविदास जी का साहित्य
- लोक-कथाओं में बाल साहित्य
- सोशल मीडिया और देवनागरी लिपि
- ललित कला
- पुस्तक समीक्षा
- सिनेमा और साहित्य
- एकांकी
- अनूदित कहानी
- सिनेमा चर्चा
- कविता
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-