क़िस्सागोई की भारतीय कहन परंपरा का सशक्त पड़ाव
डॉ. पुनीता जैन
रामायण, महाभारत, पंचतंत्र, हितोपदेश से लेकर पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों तक क़िस्सागोई भारतीय कथा या कहन परंपरा का शिल्प रहा है जिसकी वर्तमान हिन्दी कहानी या उपन्यास परपंरा ने चाहे अवहेलना की हो, आदिवासी कहानी व उपन्यासों में इसकी उपस्थिति सहज रूप से दिखाई देती है। राजस्थान की उपन्यासकार सुनीता घोगरा का ‘मताई’ (2020) नामक उपन्यास इसी क़िस्सागोई का अन्यतम उदाहरण है। आदिवासी रचनाकारों में एलिस एक्का, रोज़ केरकेट्टा तथा मंगल सिंह मुंडा इसी परंपरा की कड़ियाँ हैं, जिसे सुनीता घोगरा की उपस्थिति अधिक सशक्त व समर्थ बनाती है। राजस्थान के उपन्यासकार हरिराम मीणा यदि इतिहास और वर्तमान के पन्ने पलटते हुए मीणा, भील व बेड़ियाँ आदिवासी समाज के जीवन पर क़लम चलाते हैं तो सुनीता राजस्थान के भील आदिवासी समाज की क़बीलाई संस्कृति से परिचय कराने हेतु हमें दो सौ वर्ष पीछे ले जाकर समय के कई पड़ावों की यात्रा कराती हैं।
उपन्यास की इस यात्रा में वे अपने पुरखों को शामिल करते हुए मनु मनाथ (पड़ पड़ दादा), पेमा काका (पड़नाना), वेला (पिता), पारू (माँ) के साथ अतीत की ओर ले जाती हैं तो साथ ही कल्पना और यथार्थ जीवनानुभव का जीवंत दृश्य रचते हुए कोकी, कांति जैसे बच्चों के साथ कथा के सूत्र को वर्तमान तक विस्तार देती हैं। इन क़िस्सों को बुनने के लिए अपने निकट के संसार को चुनते हुए वे राजस्थान के बागड़ क्षेत्र (बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अमरावती जनपद) के जंगल, गाँव के भीतर तक, इतने मोहक रूप से ले जाती हैं कि पाठक अपने स्थान और समय को भूलकर उपन्यास के स्थान और समय में प्रवेश कर जाता है। दरअसल क़िस्सा कहने की कला हो और हो कथानुकूल भाषिक कौशल, तो पाठक को प्रवाह में बहने का प्रयास नहीं करना पड़ता। ‘मताई’ की उपन्यासकार इस कला में माहिर हैं।
ग्रामीण, क़स्बाई और शहरी लोक से सर्वथा भिन्न है जंगल की जीवन-पद्धति व परिवेश। क्या धरती माँ (मताई) को ख़ुश करने का कोई संस्कार हमारी मध्यवर्गीय चेतना में है! जंगल के निवासी भील आदिवासी क़बीले में यह सहज संस्कार के रूप में मौजूद है। भील आदिवासी क़बीला मताई (धरती माता) को अपना पूर्वज मानते हैं। वस्तुतः आदिवासी जीवन-शैली, जीवन-दर्शन, त्योहार, पूजा पद्धति प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का ही तरीक़ा है, “हे मताई, हम सब आपके आभारी हैं। आपने हमें रहने को ज़मीन, खाने को अनाज, पीने को पानी दिया . . . हमारी हमेशा रक्षा की। हमारे पशुओं को बीमारियों से बचाकर रखा, इसलिए आज हम सब फले (क़बीला) के कुटुंबवासी आपको सभी बातों के लिए धन्यवाद देते हुए सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा, अग्नि, पानी, आकाश, जंगल और हमारे पूर्वजों को साक्षी मानते हुए इस धूणी को प्रज्वलित करते हैं।” (पृष्ठ 35)
उपन्यास के प्रारंभिक तीन अध्यायों में इसी मताई को शिकार अर्पित करने के लिए युवक-युवतियों के अलग-अलग दलों की शिकार यात्रा के क़िस्से बुने गये हैं। रोज़ केरकेट्टा, एलिस एक्का की कहानियों की तरह सुनीता घोगरा की कथा में जंगल और आदिवासी जीवन का सहज सहजीवी, सखाभाव युक्त सान्निध्य है। जंगल के यथार्थ में उसका सुरम्य और भयोत्पादक दोनों रूप यहाँ मिलते हैं। जंगल के अद्भुत सौंदर्य के सजीव दृश्य के साथ उसके सघन रहस्य को भी वे उद्घाटित करती हैं। आदिवासियों का जंगल में शिकार हेतु जाना, जंगल पार करके एक गाँव से दूसरे गाँव या क़बीले तक सुख-दुख में सम्मिलित होने जाना या अपने खेत तक जाना आदि उनकी दिनचर्या में शामिल हैं। जंगल का कोमल व कठोर रूप, विविध ध्वनियाँ, वृक्ष-लताएँ, जीव-जन्तु, झरने-नदियाँ, पक्षीवृंद उनके जीवन के अभिन्न हिस्से के रूप में उपन्यास में चित्रित हैं। “यह जंगल में बसने वाले ही जानते हैं कि जंगल को देखकर नहीं उसे सुनकर, उसे सूँघकर ही पार किया जा सकता है। जंगल में हर कोई अपनी आवाज़ से ही अपना पता देता है। जंगली जानवर अपने गुर्राने से रात के सन्नाटे को चीरते हैं तो नदी अपनी कलकल की आवाज़ से . . .” (पृष्ठ 11) यह उपन्यास जंगल के अनदेखे रहस्य से अत्यंत समर्थ रूप से पाठक का परिचय कराता है। याद रखना होगा यह वही जंगल हैं जिन पर पूँजीवादी व्यवस्था की कुदृष्टि है। सुनीता इसी जंगल की उन तहों को खोलती हैं जहाँ निसर्ग का खुला पटल है, स्वस्थ सामाजिकता और समृद्ध संस्कृति है, जो स्वाभाविक रूप से मानवीय मूल्यों की समर्थक है।
सुनीता घोगरा आदिवासी जीवन-शैली को दर्शाने के लिए उसके ज़मीनी यथार्थ के निकट जाकर उसे जीवंत अभिव्यक्ति देती हैं। आदिवासी जीवन की दिनचर्या में शामिल गतिविधियों, रोज़मर्रा के कार्यों, विशिष्ट अवसरों के विधि-विधानों के साथ ही प्रथाओं-कुप्रथाओं, मान्यताओं को स्वाभाविकता के साथ दर्शाते हुए वे उनके अन्तर्विरोधों तक भी पहुँच बनाती हैं। आदिवासी परिवार जहाँ क्षुधा शांत करने हेतु छोटे पशु-पक्षियों का शिकार करने जंगल जाते हैं, वहीं जंगल के पशु-पक्षियों के साथ आत्मीय रिश्ता भी रखते हैं। अकारण मार दिये गये पशुओं की वे विधि-विधान से अंत्येष्टि कर मृतात्मा की शान्ति हेतु प्रार्थना करते हैं, शोक व्यक्त करते हैं तथा क्षमा-याचना कर उन्हें अपने पूर्वजों में सम्मिलित कर लेते हैं। रमती नामक युवती द्वारा ग़लती से वानर को मार दिये जाने या बच्चों की रक्षा हेतु अजगर पर तीर चलाने के बाद यह क़बीला रोते हुए उनकी मृत्यु के लिए प्रायश्चितस्वरूप भजन, पूजन करता है, उनका अंतिम संस्कार कर बारह दिन तक शोक ज्ञापित करता है। वे शिकार करते हैं, शिकार बनते भी हैं और उनके अकारण मारे जाने पर क्षमा-याचना भी करते हैं। सुनीता इन दृश्यों के द्वारा उनके सांस्कृतिक मूल्यों को स्वाभाविक रूप से दिखाती हैं। आदिवासी युवाओं पर हमला करने वाला साँड़ यदि घायल हो जाए तो वे जड़ी-बूटी लगाकर उसका उपचार करते हैं। अपने खेत की रक्षा करते हुए पेमा काका भयातुर होने के बावजूद घायल शेर द्वारा मदद की अपेक्षा करने पर उसके पैर से काँटा निकाल घाव पर जड़ी बूटी लगाते हैं और जब तक वह स्वस्थ नहीं हो जाता, पूरे गाँव और परिवार के विरोध और समझाइश के बावजूद उसका उपचार करते हैं। यही नहीं वे उसके लिए तीतर, मछलियाँ, ख़रगोश का शिकार कर भोजन की व्यवस्था भी करते हैं। भय के बीच स्नेह का यह अनोखा रिश्ता है, जहाँ मदद और दर्द की भाषा को शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती। सुनीता इस रिश्ते के ताने-बाने को सजीव रूप से बुनती हैं, जिसमें हिंसक पशु भी कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु लंबे समय तक पेमा काका के खेत में तीतर से लेकर हिरण तक के शिकार को भेंट कर प्राणियों के मध्य विकसित नैसर्गिक स्नेह सम्बन्ध को निभाता है।
प्रेमचंद की सुविख्यात कहानी ‘पूस की रात’ के चरित्र हल्कू और जबरा के स्नेहिल रिश्ते को जानने वाला हिन्दी का पाठक सम्भव है पेमा काका और घायल शेर के इस रिश्ते को सहज स्वीकार न कर पाए, किन्तु इससे इतर यह समझना ज़रूरी है कि जंगल के नैसर्गिक निवासी आदिवासियों का वहाँ के जीव-जंतुओं से आमना-सामना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा है। आक्रमण और बचाव के साथ ही जंगल से दोनों पक्ष का समान रिश्ता है फलतः परस्पर सहजीवी रिश्ते का वे उसी सहजता से निर्वाह करते दिखते हैं। यह उपन्यास ऐसे विविध घटनाक्रमों, क़िस्सों व परिस्थितियों का सजीव पिटारा है। यहाँ शेर पेमा काका से मदद माँगता है, यदि वह भूखा नहीं है तो बेहोश युवती बदी को गुफा के बाहर पाकर भी आक्रमण नहीं करता है, बल्कि सहजता से अपने शावकों को उस पर कूदते-फाँदते, खेलते देखता है या मनुष्य के उपकार के बदले स्वयं शिकार करके उसे उपलब्ध कराता है। पालतू पशुओं से घुला-मिला या शेर को पिंजरे के पीछे देखने के आदी शहरी समाज की संदेह की दृष्टि के बावजूद सुनीता घोगरा की यह कृति प्राणिजगत के बीच स्नेह सम्बन्ध को स्वाभाविक और सहज दिखाकर उसे प्राथमिकता से स्थापित करती है। यहाँ वानर वेला नामक बालक को दलदल में धँसने से बचाते हैं, तो विशाल पक्षी अटली की रक्षा करता है। सुनीता जितने रोचक तरीक़े से इन रिश्तों को कथा में बुनती हैं उतने ही रोमांचक रूप से नागमणि लाने के क़िस्से को भी प्रस्तुत करती हैं। ‘मताई’ नामक अध्याय में तो लेखिका जंगल व उसके प्राणिजगत के सम्बन्धों के अद्भुत दृश्यों को जीवंत कर देती हैं। रोमांच, रहस्य व तिलिस्म के जादुई संसार में ले जाते हुए वे एक अनदेखे संसार के चित्रों की शृंखला से साक्षात्कार करा देती हैं।
शिकार करने से लेकर नागमणि प्राप्त करने हेतु जाने तक यह उपन्यास जंगल के भीतर के ऐसे जीवंत बिम्ब उपलब्ध कराता है जो आश्चर्य, उत्साह, भय और रोमांच से पाठक को अभिभूत कर देते हैं। इन दृश्यों से उपन्यास पढ़कर या इस अद्भुत संसार की यथार्थ यात्रा द्वारा ही गुज़रा जा सकता है। ‘नागमणि’ और ‘मताई’ अध्याय इस दृष्टि से सर्वाधिक चमत्कृत करते हैं। यह अध्याय क़िस्सागोई, कल्पना, निसर्ग के अनछुए, अनदेखे सौंदर्य व रहस्य के साथ अद्भुत वृहदकाय जीवों की गतिविधियों व जंगल की सघनता में समाए रहस्यों की रोचक अभिव्यक्ति करता है। भोपाजी भी इस उपन्यास का ऐसा ही तिलिस्मी चरित्र है जो वास्तविक या काल्पनिक जैसा भी है, रोमांचित करता है और उत्सुकता जगाता है। जादुई विद्या व जड़ी-बूटियों के जानकार इस करिश्माई व बहुरूपिया चरित्र को गढ़कर उपन्यासकार अपने क़िस्सों के साथ पढ़ने वाले को बाँध लेती है। इन्हीं चमत्कृत करते दृश्यों के समानांतर वे आदिवासी संस्कृति, जड़ी-बूटियों, वनक्षेत्रों की जानकारी अर्थात् प्रकृति विषयक ज्ञान-परंपरा तथा उनके साहस व कर्मठता से भी परिचय कराती चलती हैं।
उपन्यास की कथात्मक बुनावट में जंगल-जीवन के वास्तविक अनुभवों के साथ इसकी सघनता में बसे रहस्य-रोमांच का वह मिला-जुला रूप है जो इसे केवल रोचक ही नहीं बनाता बल्कि सब विस्मृत कर इसमें डुबकी लगाने को विवश कर देता है। यहाँ कई शीर्षकों में विविधवर्णी क़िस्से पिरोये गये हैं। इनमें भरपूर रंजकता और आकर्षण है। क़बीले से जुड़े प्रायः सभी पात्रों के अपने अपने जीवनानुभव व क़िस्से हैं। इनमें पेमा काका जैसे वरिष्ठ चरित्र हैं तो कांति, वेला, पारू जैसे बच्चों के साहस, जीव-जंतुओं व जंगल के साहचर्य की रोचक कथाएँ भी हैं। साथ ही रामा, अटली, कावा, बदी, सोमी, रमती जैसे युवाओं की जीवन-यात्रा के दुर्गम-सुगम पड़ाव उतनी ही जीवंतता से यहाँ आकार लेते हैं।
आदिवासी जीवन का जंगल से सान्निध्य जाना माना तथ्य है। किन्तु यह उपन्यास इस सान्निध्य के अंतरंग क़िस्से बुनता और सुनाता है। कथा के प्रवाह में डुबो देने, उसके आकर्षण में बाँध लेने वाली आख्यानपरक शैली की यह प्रस्तुति सतत कुतूहल बनाए रखती है। इस कथात्मक प्रवाह में छोटे से लेकर विशाल पशु-पक्षी हैं, वृक्ष-लताएँ है, झरने और खाइयाँ हैं, गुफाएँ हैं, विकट यात्राएँ व अद्भुत अनुभव हैं। यहाँ युवतियाँ सोमी, अटली हो या बदी-वे साहसी हैं, तीरंदाज़ी में प्रवीण, तैरने में कुशल और जंगल के संगीत, गहन अंधकार, जीव-जंतुओं से लेकर जड़ी-बूटियों तक से वाक़िफ़ हैं। वे घने जंगल में शिकार कर सकती हैं, बिना रास्ता जाने अकेले (बदी जैसे चरित्र) यात्रा कर सकती हैं, ख़रगोश, जंगली सूअर, मछलियों का शिकार कर, वहीं पत्थर घिसकर आग जला व शिकार भूनकर क्षुधा शांत कर सकती हैं, पहाड़ से गहरी नदी में कूद कर, तैरकर, बारिश और घने अंधकार से जूझकर जंगल में अगले पड़ाव की यात्रा कर सकती हैं। वे गीत, नृत्य, वादन में पारंगत हैं, सुदूर से पानी लाने से लेकर घरेलू कार्य, शादी-ब्याह व अन्य सांस्कृतिक कार्यों में कुशलतापूर्वक सहज भागीदारी करती है। वे स्त्रीवाद के अर्थ में कितनी मुक्त हैं, इससे उनका वास्ता नहीं। वे खुलकर जीती हैं, वे सशक्त हैं, न्यायप्रियता व समानता को नैसर्गिंक अधिकार के रूप में प्राप्त करती हैं।
यह उपन्यास आदिवासी समाज के सांस्कृतिक पक्ष को उद्घाटित करते हुए उनकी परंपराओं, मान्यताओं, पर्व, मेले, नृत्य-संगीत व अन्य विधि-विधानों के पर्याप्त संदर्भ उपलब्ध कराता है। कथा के विविध संदर्भ दर्शाते हैं कि यहाँ बिना किसी वर्जना के युवक-युवतियों को पसंद के साथी से विवाह करने का अधिकार स्वाभाविक रूप से प्राप्त हैं। मेलों में ऐसे स्वैच्छिक मिलन को बड़े-बुजुर्गों की स्वीकृति प्राप्त है। यदि रामा नामक युवक अटली नामक युवती को उठाकर ला सकता है, तो वाली नामक युवती अपनी पसंद के युवक काउड़ा के साथ स्वेच्छा से जा सकती है, उठाकर लाई गयी युवती की रज़ामंदी न मिलने पर उसे ससम्मान उसके घर पहुँचा दिया जाता है। यहाँ कावा को पसंद करने पर बदी घने जंगल से संघर्ष करते हुए सुदूर यात्रा कर सकती है। परस्पर सहमति, स्वतंत्रता, लैंगिक समानता उनके जीवन मूल्य हैं। स्त्री के साहस पर प्रश्न करने पर पूरा स्त्री पक्ष प्रश्नात्मक हो विरोध दर्ज करता है, जिसमें गाँव के मुखिया, बड़े-बुजुर्गों का साथ सहज ही मिल जाता हैं बल्कि वे युवक के ऐसे विचारों पर आश्चर्य व असहमति द्वारा न्याय के पक्ष में सटीक निर्णय दे तत्काल हस्तक्षेप करते हैं। स्त्री स्वायत्तता के मूल्य को बनाए रखने की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हैं। सुनीता घोगरा इस उपन्यास में स्त्री के प्रति भेदभाव पर मुखरता से हस्तक्षेप करते हुए सोमी को बदी के पक्ष में खड़ा कर कावा की शंकालु वृत्ति पर प्रश्न खड़ा करती हैं, “तुम्हें क्या लगता है कि तुम लोग जब मन चाहे किसी कुवाई को उठाकर ला सकते हो, पर कोई कुवाई अपनी मर्ज़ी से नहीं आ सकती, क्यों? उसकी मर्ज़ी कोई मर्ज़ी नहीं है क्या? तुम करो तो सब सही हो जाता है, वही काम कुवाई करें तो ग़लत।” (पृष्ठ 95) यह प्रश्नाकुलता स्त्रीवादी आंदोलन का परिणाम नहीं है बल्कि जंगल के सान्निध्य में नैसर्गिक समानता को मानने वाले आदिवासी समाज व संस्कृति का स्वाभाविक मूल्य हैं, जिसको कथा में गूँथने का सचेत प्रयास उपन्यासकार ने किया है।
सुनीता घोगरा कथा को बुनते हुए आदिवासी समाज की दुर्बलताओं व अन्तर्विरोधों पर भी दृष्टि डालती चलती हैं। बदी को घने जंगल में संबंल देने वाली विधवा स्त्री डायन प्रथा के कारण जंगल में निर्वासित जीवन जीने को विवश है। ‘झगड़ा’ ऐसी कुप्रथा है जो विवाह तय करने के बाद लड़की वालों द्वारा अन्यत्र विवाह कर देने पर उन्हें दंडित करने वाला कृत्य है। इसी क्रम में किसी विधान में जमाई की बलि चढ़ाने की परंपरा को एक युक्ति द्वारा ख़त्म होते हुए दर्शाकर लेखिका इस कुप्रथा में हस्तक्षेप करने की स्वतंत्रता लेती हैं। वे सचेत रूप से अमानवीय प्रथाओं को, कथात्मकता में बिना व्यवधान लाए समझदारी से एक दिशा की ओर ले जाती हैं। विविधवर्णी क़िस्सों में तार्किकता के साथ हस्तक्षेप करती हैं। उनके पात्र प्रश्न करते हैं, विश्वास अविश्वास, संशय करते हैं, किन्तु अपनी कबीलाई संस्कृति व मूल्यों के प्रति अडिग दिखते हैं। प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाने और उस पर भरोसा रखने की पूर्वजों की सीख को इस पृथ्वी के भविष्य के लिए सार्थक दृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
‘मताई’ उपन्यास में सुनीता घोगरा जिस तरह जंगल के रोम-रोम से परिचित कराती हैं, उसके रंगों, ध्वनियों, सघनता और वृक्ष-लताओं, जीव-जंतुओं को अपनी संवेदना के साथ बुनते हुए उसमें प्रवेश करती हैं, ठीक उसी कलात्मकता के साथ वे भाषा में भी प्रवेश करती हैं। उनके साथ उपन्यास की यात्रा प्रारंभ करें तो प्रत्येक क़दम पर जंगल को अपनी संवेदना में अनुभूत करते हुए उनकी भाषिक क्षमता, बिम्ब और काव्यात्मकता से परिचय हो जाता है। यहाँ कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में दर्शनीय हैं, “क़दमों के नीचे आई सूखी पत्तियों ने चुग़ली की।” (पृष्ठ 11); “लेकिन झुंड ने इस बार अपने ख़ौफ़ को आवाज़ नहीं बनने दिया।” (पृष्ठ 12); “झोपड़ियाँ हिल मिलकर रहना जानती हैं, सब पास-पास सटी हुई हैं।” (पृष्ठ 33); “झरना है कि उन्हें देखकर और मचल मचल जाता है, ये भी हो सकता है कि वह ढोल की तान पर थिरक रहा हो।” (पृष्ठ 65); “अटली के चेहरे पर भी हल्की मुस्कुराहट चली आई, न जाने उसने फूल से उधार माँगी है या भीतर से निकली है।” (पृष्ठ 73); “हरे-भरे रास्तों में बातों के फूल खिलते रहे।” (पृष्ठ 76) भाषा के इस लालित्य और प्रवाह को इसी जनपद में प्रयुक्त शब्द उसकी स्थानीय पहचान के साथ जोड़ते हैं। उपन्यास की भाषा में ये शब्द—ढूँढ़ी (झोपड़ी), कुवाई (लड़की), साटुआ (लकड़ी का चम्मच), वोर (दूल्हा), गमेती (गाँव का मुखिया) आदि भी सहज प्रवहमान होते चलते हैं।
वास्तव में यह उपन्यास भारतीय लोक की पुरातन कथा शैली क़िस्सागोई का भरपूर आनंद प्रदान करता है। उपन्यासकार का ज़मीनी अनुभव, रोचक और कौतुकपूर्ण प्रस्तुति कौशल तथा कथात्मक प्रवाह इस छोटे कलेवर के उपन्यास में भी जंगल तथा उसके निकट रहने वालों के समवेत, वृहत् और अपरिचित संसार से परिचय का द्वार खोल देता है। जो शहर के लोकेल ही नहीं गाँव, क़स्बे के लोक से भी जुदा है। जहाँ निसर्ग की पाठशाला में दीक्षित युवक-युवतियों, बच्चों-बुजुर्गों का नैसर्गिक संसार है, जहाँ लैंगिक समानता का सिद्धांत चाहे अज्ञात है किन्तु निसर्गगत समानता की सहजता स्वाभाविक रूप से प्रवहमान है। इनके सजीव क़िस्सों से बुना यह उपन्यास कथा सुनने-सुनाने के कौतुक की वह जीवंत कड़ी है, जो उपन्यास कला को पुनः अपनी भारतीय परंपरा की ज़मीन से जोड़ती है।