महाराष्ट्र का आदिवासी स्वर: भगवान गव्हाडे

01-12-2021

महाराष्ट्र का आदिवासी स्वर: भगवान गव्हाडे

डॉ. पुनीता जैन (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

महाराष्ट्र के आंध आदिवासी, युवा कवि भगवान गव्हाडे का 'आदिवासी मोर्चा' नामक काव्य-संग्रह 2015 में प्रकाशित हुआ है। भगवान गव्व्हाडे के विचार और संघर्ष-चेतना पर महाराष्ट्र के उत्पीड़ित दलित वर्ग के संघर्ष का स्पष्ट प्रभाव है। इस कारण उनके काव्य-स्वर में आक्रोश और प्रतिकार की उपस्थिति है। उनकी कविता में आदिवासी समाज के अभाव, विस्थापन, आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष के कई चित्र मिलते हैं। प्रकृति, आदिवासी पहचान, आधुनिकता से उसके संघर्ष के साथ ये कविताएँ अपने वर्तमान परिवेश के प्रति अत्यंत सजग हैं। वे एक सचेत कवि हैं, जिनकी कविताओं में अपने समुदाय के अस्मिता-बोध युगीन-संदर्भ और उसके कारण उत्पन्न जीवन-संघर्ष की बेचैनी एक साथ मौजूद हैं। शहरी परिवेश में अतीत की स्मृतियों के माध्यम से ये कविताएँ आदिवासी जीवन, घर-बार, परिवार से परिचय कराती हैं तो वहीं अपनी पहचान को लेकर मुख्यधारा की इतिहास-दृष्टि के सम्मुख वे कई सटीक प्रश्न रखती हैं। सजगता और सृजनात्मकता को साधते हुए वे ‘उलगुलान’ को अपना कर्मक्षेत्र बनाते हैं और अपने लक्ष्य समता, बंधुता, विश्वशांति पर सचेत दृष्टि रखते हैं। उनकी काव्य-रचना इस ‘वैचारिक लड़ाई के महासंग्राम’ की यात्रा है, जिसे वे प्रकट भी करते हैं। 

प्रकृति और आदिवासी समुदाय का अनन्य रिश्ता है। भारत के किसी भी प्रदेश से सम्बन्धित आदिवासी समुदाय का लेखन इस ओर स्पष्ट संकेत करता है। झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश या महाराष्ट्र—किसी भी राज्य के आदिवासी रचनाकार की रचनाओं में प्रकृति के सान्निध्य में विकसित आदिवासी संस्कृति और समाज की छवियाँ उसकी विशिष्ट पहचान स्थापित करती हैं। भगवान गव्हाडे महाराष्ट्र की भूमि और संस्कृति के प्रभाव के बीच आदिवासियत और प्रकृति की अनन्यता को कविता में मुखर स्वर में प्रस्तुत करते हैं। जंगल के वृक्ष-पौधों, पहाड़, नदियों, पशु-पक्षियों की उसके जीवन में अनिवार्य उपस्थिति है:“पेड़ के तने में बसी है/ हर एक आदिवासी की आत्मा/ टहनियों में दौड़ता है/ खौलता हुआ लहू / हर पत्ते-पत्ते में / लहराती है उसकी साँसें / फूलों की महक में / धड़कता है उसका मासूम दिल।”1 आदिवासी जीवन और प्रकृति के इस गहन और अनन्य सम्बन्ध को समझे बिना कोई भी व्यवस्था जंगल के उजड़ने, पहाड़ और जंगलों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा असीम खनिज-दोहन के लिए उनके सुपुर्द करने, बिजली परियोजनाओं के लिए पहाड़-नदियों की तबाही के वास्तविक अर्थ और आदिवासी जीवन पर उसके दुष्प्रभाव को नहीं समझ सकती। एक तरफ़ वैश्विक संगठनों व देशों द्वारा पर्यावरण की चिंता की तमाम घोषणाएँ हैं और दूसरी ओर आदिवासी समाज का जंगल बचाने का सामान्य आग्रह—जिसे प्रायः अनदेखा कर कथित विकास के मार्ग का अवरोध बता दिया जाता है। आदिवासी कवि जब आदिवासी संस्कृति के मर्म को समझाते हैं तब इस पूरे संदर्भ के साथ ही उसे समझने की ज़रूरत को सम्मुख रखते हैं। भगवान गव्हाडे की ये पंक्तियाँ इसी को प्रमाणित करती हैं:“हमारा घर जंगल-ज़मीन / हमारा संसार खेत-खलिहान / हमारी संतान पशु-पक्षीधन / हमारा आँगन हरे-भरे धान / . . . हमारे माता पिता धरती और आसमान / हमारे देवता सूर्य चन्द्र ग्रहमान / हमारा विज्ञान ऋतुचक्र गतिमान /हमारी समता स्त्री पुरुष एक समान।” 2 ये पंक्तियाँ कविता ही नहीं बल्कि, आदिवासियत की उद्घोषणा है। 

आदिवासी समाज में मनुष्य, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का परस्पर संवाद उन्हें एक परिवार बनाता है। प्रकृति से संवाद करती उनकी कविताओं में वृक्ष, पहाड़, नदियों के साथ गहरी आत्मीयता व्यंजित होती है: “पेड़ों से की गुफ़्तगू और / प्राणियों से किया वार्तालाप / ली ख़बर पहाड़ पर्वत की / पूछा नदियों का हाल-चाल / सुनी धड़कन खरगोश की / महसूस की चींटियों की पदचाप।”3 प्रकृति से संवाद और आत्मीयता में ही अपना चारों धाम देखने वाली इस दृष्टि में संपूर्ण सृष्टि के लिए जगह है। 

आदिवासी संस्कृति से सर्वथा विलग आधुनिक संस्कृति है, जो प्रकृति के प्रति संवेदनहीन ही नहीं, क्रूर भी है। प्रकृति के अति शोषण, दोहन और विनाश ने वर्तमान में मानव-जाति पर संकट खड़ा कर दिया है। आदिवासियत का वैशिष्ट्य ही प्रकृति और सृष्टि के प्रति उदारता और सघन संवेदनशीलता है। भगवान गव्हाडे परिवेश और युगीन-स्थिति पर दृष्टि रखते हुए मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखते हैं और प्रश्न करते हैं:“कितने हो चुके हैं हम संवदेनाशून्य / फेंकते हैं कंकड़ विश्राम करते पानी में / और तोड़ते हैं उसका मौन . . . । / करते हैं स्पर्श शर्मीले पौधे को / सिहरते हुए सिमट जाते हैं पत्ते पत्ते / पर क्या हमें पता है यह / कि होता होगा उसका भी विनय भंग।”4 महामारी संभवतः उसी ‘विनय भंग’ की मुद्रा है, जिस ओर कवि-दृष्टि संकेत करती है। 

जंगल, नदी, पेड़-पौधों, पहाड़ के विनाश पर आदिवासी समुदाय का विवश होकर विस्थापित होना, उनकी संस्कृति, भाषा, गीत-संगीत और पहचान की विलुप्ति का कारण बनता है। भगवान गव्हाडे ने ‘वैश्वीकरण’ की असली शक्ल के रूप में इस विनाश-लीला के दृश्य अपनी कविता में रचे हैं। उनकी कविता में प्रकृति, पहाड़ स्वयं रोकर अपने हालात बयान करते हैं। जिन झरने, नदियों ने मनुष्य को नवजीवन दिया, उसी को इस मानव जाति ने मैला कर प्रदूषित किया है। 
 जंगल के निकट बसे गाँव और वहाँ का प्राकृतिक परिवेश आदिवासी समुदाय का स्वाभाविक रहवास है। इस स्वाभाविक परिवेश से विस्थापित होने का दर्द इन कविताओं में अभिव्यक्ति पाता है: “ज़ब्त कर लिए गये/ पुरखों द्वारा मिले जंगल ज़मीन / सुना है कि सरकार / बसाना चाहती है कोई / उस पर महानगर / . . . आज स्वप्न पर भी / लगी है पाबंदी / विचारों पर पड़ गया है ताला / भावनाओं की जला दी है होली।”5 एक तरफ़ इन कविताओं में अधिकारों के लिए मोर्चा सँभाले, शहरों की ओर बढ़ते आदिवासी हैं जिन्हें यहाँ अजनबीपन और पुलिस की लाठियाँ मिलती हैं, वहीं नागर परिवेश वहाँ का अकेलापन, प्रकृति से अछूती कृत्रिम जीवनशैली, अपराध और अमानवीय स्थितियाँ इन कविताओं में जगह बनाती हैं। ऐसे परिवेश में आदिवासी समुदाय की मनःस्थिति का यह सूक्ष्म-चित्र है: “आँखे सह न सकी डीमर हॅलोज़न की चकाचौंध/ हमने देखी थी सूरज की रोशनी / और देखा था चाँद तारों / जुगनुओं का टिमटिमाता उजाला / कान सुन न सके/ मोटर गाड़ियों के तेज़ हॉर्न / हमने सुना था पंछियों का मधुर स्वर/ हरे भरे पत्तों की सरसराहट / बारिश की रिमझिम बूँदों की आहट / संसद भवन के प्रांगण में जब पहुँच गया मोर्चा / बरस पड़ी पुलिस कर्मियों की अनगिनत लाठियाँ।”6 इस आत्म-संघर्ष, अन्तंर्द्वन्द्व तथा स्मृतियों से उत्पन्न बेचैनी के पीछे पहचान का संकट है। अस्मिता की तलाश करता यह समुदाय सम्मान की सीधी-सरल ज़िन्दगी चाहता है, किन्तु विकास की असीम भूख के कारण जंगल, गाँव, आदिवासी संस्कृति का विनाश ज़मीनी सच्चाई है। ऐसे में आदिवासी समुदाय की माँग व्यवस्था द्वारा प्रायः अनसुनी रह जाती है:“मुझे तलाश है सदियों से / अपने अस्तित्व अपने मनुष्य होने की /गर्दन को सीधी कर सकूँ / ऐसे अपने सम्मान की / . . . अपनी ज़मीन से किया बेदख़ल हमें / मुझे तलाश है अपने जंगल की।”7

इस संघर्ष के समानांतर एक अन्य दृश्य भी है। एक बड़ा आदिवासी समाज शहर में बसकर, अपनी सांस्कृतिक भूमि से अलग होकर धीरे-धीरे उसकी चकाचौंध भरी भौतिक सुविधाओं से भरी ज़िन्दगी में डूब जाता है। भगवान गव्हाडे समुदाय की इस स्थिति, आत्मग्लानि या परिवर्तन पर भी दृष्टि रखते हैं। आदिवासी समाज अपने मौलिक परिवेश से छिटक कर कई संघर्षों से गुज़रता रहा है, जो वर्तमान में भी जारी है। उदाहरणातः मध्यप्रदेश का आदिवासी वाचिक साहित्य तो सहेजा गया किन्तु, सांस्कृतिक संक्रमण ने उनकी मूल पहचान को धूमिल किया है। यहाँ उनकी मूल भाषा, संस्कृति, जीवनशैली की उन्हीं के द्वारा अभिव्यक्ति अत्यंत कम है। इसके पीछे भी मुख्यधारा या प्रभुतासम्पन्न संस्कृति में समाहित होकर आत्मरक्षा की प्रवृत्ति है। भगवान गव्हाडे का काव्य इस ओर स्पष्ट संकेत करता है: “उखड़ती जा रही है ज़मीन से / एक एक जड़ें धीरे-धीरे / टहनियाँ थी कभी हरी भरी/ अब नहीं बैठता पंछियों का कारवाँ/ उजड़ गये हैं घोंसलें / . . . कई सालों से न देखा सूरज को उगते न डूबते हुए / जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी अब नहीं सुहाती आँखों को / महानगर की चकाचौंध रोशनियाँ कर देती हैं मदहोश / . . . शिकारियों के जाल से कभी/मुक्त किया था चिड़ियों, खरगोशों को / अब ख़ुद ही फंसता जा रहा हूँ इंटरनेट के महाजाल में।”8 यह सांस्कृतिक प्रभाव आदिवासियत की मूल पहचान, संस्कृति, जीवन-दर्शन और जीवनशैली को क्षीण करके उन्हें अपने साथ एकरूप कर लेता है। वर्चस्वशाली वर्ग की प्रवृत्तियाँ इस नये वर्ग द्वारा अपना ली जाती हैं। 

दरअसल अस्मितामूलक आंदोलन के भीतर भी कई दुर्बलताएँ देखी जा सकती हैं। भगवान गव्हाडे इस ओर भी संकेत करते हैं। वे पाते हैं कि जो दलित या आदिवासी आंदोलन एक समतामूलक समाज की स्थापना चाहता है वह भी ‘उपजाति’, ‘गोत्र’ की बातों में उलझ जाता है या बाबा साहब के नारे लगाकर ‘अमीर’ बन जाता हैं। उनका काव्य ऐसी छद्म क्रांतिकारिता के सम्मुख कठोर प्रश्न खड़े करता है। 

सामान्यतः वर्चस्वशाली वर्ग के प्रभाव और जीवनशैली को अपनाने वाला समूह छोटा है। एक बड़ा समूह शोषण और उत्पीड़न का शिकार तथा संघर्षशील है अथवा यथास्थिति को स्वीकार कर बदहाल है। श्रेष्ठतावादी सामाजिक व्यवस्था प्रायः उत्पीड़ित की भूमिका पर दया करके उसके इसी रूप को बनाए रखने में अपना हित देखती है। दूसरी ओर इस प्रभुतावादी संरचना में शोषित वर्ग भी इतना धँस जाता है कि उसी में ढलकर सामान्य संघर्ष-चेतना को भी भुला देता है। भगवान गव्हाडे का काव्य इस यथास्थितिवाद को भी रेखांकित करता है: “दायरे और कठघरे की / ज़िन्दगी में सीख लिया है जीना / गुज़र बसर करना / अपनी औक़ात जानकर / नहीं की पार कभी हमने लक्ष्मण रेखा।”9 यह मानसिकता शोषण उत्पीड़न को स्वीकार कर लेने की है। 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों की स्थिति का दीर्घ इतिहास दर्शाता है कि धर्म, जाति, सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं ने इस स्थिति को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय समाज व्यवस्था में शोषित वर्ग अपनी स्थिति के लिए पूर्वजन्म और कर्मफल को मान्यता दे कर प्रभुत्वशाली वर्ग की कृपादृष्टि, अनुग्रह और दया पाने में अपना सौभाग्य मानता रहा है। आदिवासी समाज व्यवस्था अपनी भिन्न पहचान रखती है किन्तु सांस्कृतिक संक्रमण ने यहाँ भी ऐसी स्थितियों को जन्म दिया है। वस्तुतः सुरक्षा की यह प्रवृत्ति एक बड़े शोषित वर्ग को लंबे समय तक यथावत बनाए रखने की दोषी होती है। “ . . . वे उत्पीड़ित जो प्रभुत्व की उस संरचना के अनुसार, जिसमें वे धँसे हुए हैं, अपने को ढाल चुके हैं और उसी के होकर रह गए हैं, स्वतंत्रता की लड़ाई तब तक नहीं लड़ सकते, जब तक वे उसके लिए ज़रूरी जोखिम उठाने में स्वयं को असमर्थ महसूस करते हैं। इसके अलावा, अपनी स्वतंत्रता के लिए किया जाने वाला उनका संघर्ष उत्पीड़क को ही नहीं, बल्कि उनके अपने उत्पीड़ित साथियों को भी ख़तरनाक लगता है, जो संघर्ष छिड़ जाने पर और अधिक दमन की आशंका से भयभीत रहते हैं। अपने भीतर स्वतंत्र होने की आशंका को खोज लेने वाले जानते हैं कि इस आकांक्षा को यथार्थ में तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक यही आकांक्षा अपने साथियों में न जगाई जाए। लेकिन जब तक उन पर स्वतंत्रता का भय छाया रहता है, तब तक न तो वे इसके लिए कोई अनुरोध करते हैं और न इस सम्बन्ध में दूसरों के अनुरोध को सुनते हैं। . . . वे स्वतंत्रता से उत्पन्न होने वाली सृजनात्मक सहभागिता की तुलना में, यहाँ तक कि स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले प्रयास की तुलना में भी, अपनी स्वतंत्रता रहित स्थिति की अनुवर्तिता से मिलने वाली सुरक्षा को बेहतर समझते हैं।”10 हाशिये के सुविधाभोगी वर्ग द्वारा अपने वृहत् शोषित वर्ग की अनदेखी तथा शोषण, ग़रीबी, अशिक्षा ऐसी स्थितियों को उत्प्रेरित करती हैं। 

आदिवासी कविता अपनी संस्कृति, भाषा, जीवन-दर्शन और स्वतंत्रता के लिए उठाई गयी आवाज़ है। प्रतिशोध, प्रतिहिंसा आदिवासी संस्कृति और विचार का हिस्सा नहीं है। हालाँकि भगवान गव्हाडे के काव्य-स्वर में ऐसे कई स्थान मिल जाते हैं जहाँ प्रतिशोध के भाव मिलते हैं। यहाँ ये कविता युगों से हुए अन्याय के विरुद्ध बदले की बात करती है: “ बदले की प्रतिहिंसा की / सबक सिखाने की / प्रतिशोध की आग से / खौलता हुआ रगों में दौड़ेगा खून।”11 आक्रोश का यह स्वर परिवर्तन के उद्दाम आवेग से पूर्ण है, किन्तु यह आदिवासी कविता की प्रकृति नहीं है। भगवान गव्हाडे की कविता का यह स्वर दलित विमर्श की आक्रोश और प्रतिकारयुक्त प्रस्तुतियों से प्रभावित है। उनके काव्य में यत्र-तत्र आंबेडकर, फुले का स्मरण भी मिलता है। महाराष्ट्र दलित-चेतना के प्रखर स्वर की जन्मस्थली रही है। इसलिए इस प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। इस प्रभाव की पुष्टि करती ये पंक्तियाँ उल्लेखानीय हैं: “किए जैसे कुकर्म वैसे ही होगी / पापों के फल की प्राप्ति / अब हमारा टूटेगा मौन / सिर चढ़कर बोलेगी क्रांति की धुन/ गूँजेगा आसमान में नारा / जय भीम/ जय शिवाजी /जय बिरसा।”12 क्रांति और विद्रोह के इस स्वर में उत्पीड़ित में उत्पीड़क बनकर प्रतिशोध लेने का भाव है, जो प्रतिहिंसा को जन्म देता है। आदिवासी जीवन-दर्शन प्रतिशोध, प्रतिहिंसा को नकारता है तथा सहजीविता को अपनी मूल प्रकृति बताता है। सहअस्तित्व का विचार प्रतिशोध, घृणा से सर्वथा विलग संपूर्ण सृष्टि के प्रति उदारता का विचार है। उत्पीड़क की प्रवृत्ति का आत्मसातीकरण उत्पीड़ित के आंदोलन को कमज़ोर करके उसके मूल विचार से उसे विलग करता है। आदिवासी संस्कृति में संपूर्ण सृष्टि की चिंता का भाव स्वीकृत हुआ है। अतः प्रतिशोध, प्रतिहिंसा और आक्रोश के कतिपय भाव प्रस्तुत होने के बावजूद इसे आदिवासी कविता का मूल विचार नहीं माना जा सकता। 

हाशिए के उत्पीड़ित समुदाय के काव्य में प्रश्नात्मकता कविता को निरंतर ओज देती रही है। इतिहास में आदिवासी पहचान की सम्माननीय उपस्थिति के अभाव पर भगवान गव्हाडे की कविता भी प्रश्न करती है। एकांगी इतिहास-दृष्टि पर प्रश्न उठाते हुए वे गायकों, राजनेताओं, कवियों, इतिहासकारों सभी के सम्मुख अपना प्रश्न रखते हैं: “तानसेन से लेकर भीमसेन तक / तुम्हारा सफ़र अद्भुत अलौकिक / पर आदिवासियों के / आदिम संस्कृति का राग/ क्यों नहीं अलाप सके अब तक / समय से पहले ही भैरवी गाकर उठ गये।”13 शाहू, फुले, आंबेडकर के नाम का राजनीतिक हित में उपयोग करने वाले राजनेता; रस, छंद, अलंकार की अधेड़बुन में डूबे कवियों और सामंती दृष्टि रखने वाले इतिहासकार; जो सिद्धू-कान्हू, बिरसा मुंडा, टंट्या भील और गुंडाधुर का बलिदान रेखांकित करने से चूक गये—ये सभी उनके प्रश्नों के घेरे में आते हैं। भगवान गव्हाडे का काव्य वाल्मीकि, एकलव्य, शबरी से लेकर अपने इतिहास के संघर्ष-प्रतीक बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, चुड़का सोरेन, गोविन्द गुरू, दशरथ मांझी के साथ-साथ महाराष्ट्र की भूमि के संत बसाजी, मुंगसाजी महाराज तक का स्मरण करता हैं। वे खाजा नायक, भीमा नायक जैसे धरती-पुत्र को जागृति का प्रतीक मानते हैं। इनके संघर्ष और उसकी स्मृति को आदिवासी लेखन धरोहर की तरह सँजोते हुए इतिहास की एकांगी दृष्टि पर सवाल करता है। भगवान गव्हाडे की कविता आदिवासी समुदाय की उपेक्षा, अन्याय पर ही प्रश्न नहीं करती वरन् युगीन यथार्थ पर भी दृष्टि रखती है। उनका काव्य देश की राजनीति, व्यवस्था, भ्रष्टाचार, धार्मिक पाखंड, भ्रूणहत्या, स्त्री-अत्याचार तथा राजनीतिक और सामाजिक विडंबनाओं पर सजग टिप्पणी करता है। लेखन में खोखली संवेदनशीलता और छद्म पर व्यंग्य करने से भी वे नहीं चूकते: “ बाढ़ ...... अकाल ... ॥ भूकंप ............ सांप्रदायिक रंगे / किसानों की आत्म हत्याएँ .......... कन्या भू्रण हत्याएं / बनती हैं शीघ्र कविताओं के विषय/ जिस तरह मीडियाकर्मी बनाते हैं उसे सनसनीखेज ख़बरें . . . ॥ ब्रेंकिंग न्यूज ......!!”14

भगवान गव्हाडे की कविता में स्त्री के अस्तित्व-संघर्ष और स्वतंत्रता की चाह को भी स्वर प्राप्त हुआ है। ‘औरत’ कविता स्त्री की विविध भूमिकाओं, व्यक्तित्व के विविध आयामों को सामने रखकर स्त्री के महत्त्व को रूपायित करती है। स्त्री की श्रमशीलता, शृंगारप्रियता, संस्कृति की रक्षा करने की क्षमता के साथ उसमें रूढ़ियों को तोड़ने का साहस तथा नयी परम्परा को गढ़ने का माद्दा, ऐसे गुण है जिसे उनकी कविता रेखांकित करती है। स्त्री-पक्ष के साथ ही किसान की दयनीय स्थिति, दुःख-दर्द, संघर्ष, निराशा को भी उनकी कविता में जगह मिली है। उनकी कई कविताएँ माँ, पिता, नानी, किसान आदि जीवंत चरित्रों पर आधारित हैं। समाज के सफ़ेदपोश पाखंडी, दोगले चरित्रों को भी वे सामने लाते हैं। समाज के विविध चरित्रों की गहराई में झाँकती ये कविताएँ आदिवासी परिवार और समाज के कई जाने-अनजाने पक्षों पर प्रकाश डालती हैं। इस दृष्टि से माँ, पिता, नानी की स्मृति विषयक कविताएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। ‘सोनाई’ कविता ‘नानी’ की स्मृति में लिखी गयी है तथा उसके श्रम, प्रेम, उदारता, आत्मसम्मान, साहस को चित्रित करती है। जंगल से कंद-मूल, गोंद, महुए का फूल, जड़ी-बूटी, तेंदू और लकड़ियाँ बीनकर लाने वाली श्रमशील नानी सबको प्यार बाँटती और ध्यान रखती थी। वह परिवार के लिए कितनी अपरिहार्य थीं, इसका उत्तर ये पंक्तियाँ देती हैं: “धूप बारिश से बचने के लिए / बन चुकी थीं तुम खपरैल की छत/ . . . साधु संतों की वैराग्य भावना/ कहाँ से साध ली तुमने / संत विनोबा को पढ़े देखे बिना / कैसे हो गयी सर्वोदयी।”15 स्मृति को जीवंत करती ऐसी ही कविताओं में ‘माँ’ कविता भी उल्लेखनीय है। ये कविता न केवल एक आदिवासी स्त्री चरित्र को उकेरती है बल्कि परिवार में स्त्री की श्रमशीलता, प्रेम और उदारता को भी चिह्नित करती है। ‘नानी’ की तरह माँ के बहाने यह कविता आदिवासी स्त्री की दैनंदिनी को रूपायित करती है। माँ गर्मी में जंगल से महुआ, बिब्बा फूल, चारोली, कंदमूल बीन लाती है, अनाज बीनती, अचार-पापड़ बनाती है। बरसात में आँगन में विविध बीज बोकर लता बेलों को सँजोती है। सर्दी में सूखे मेवे के लड्डू बनाती, गुदड़ी सिलकर सबको ठंड से बचाती है। साल भर सबके लिए काम करने वाली माँ के लिए वे कहते हैं: “माँ तीनों ऋतुओं में /रखती ख़्याल घर-परिवार और मवेशियों-खेत-खलिहान का / तनखा पेंशन की अपेक्षा किए बिना / करती रहती अविरत सेवा / मान सम्मान पुरस्कार का सपना लेकर / नहीं जीती ज़िन्दगी भर।”16 माँ-पिता के कड़े श्रम और सबकी भलाई की चिंता यहाँ आदिवासी जीवन-दर्शन के रूप में प्रतिबिंबित है। इनकी स्मृतियों को संजोते हुए लिखे गये शब्द गहरी संवेदनशीलता से आपूरित हैं। ‘दस्तावेज़’ जैसी कविता में एक पुत्र माँ की इन्हीं स्मृतियों को संजोने की अभिलाषा व्यक्त करता है: ‘"माँ मैने भी / जतन कर /रखी हैं तुम्हारे द्वारा भेजी गयी /मनीआर्डर की वे तमाम रसीदें / जिसमें लगी है तुम्हारे /अंगूठे की पक्की मुहर / जो बन चुकी है / मेरे सुखी संपन्न / जीवन का दस्तावेज़।"17 

अपने एकमात्र काव्य-संग्रह के माध्यम से भी भगवान गव्हाडे आदिवासियत के विचार, संस्कृति, प्रकृति, विस्थापन के दर्द, सामाजिक राजनीतिक युगीन-संदर्भ, स्मृति और इतिहास-दृष्टि को लेकर अपने विचार रखते हैं। उनकी कई कविताएँ तुकबंदी का उदाहरण हैं, किन्तु सृजनात्मकता की दृष्टि से भी उनकी कई कविताएँ प्रभावित करती हैं। मूलतः ये काव्य-प्रस्तुति आदिवासी पहचान को आकार देती है तथा स्पष्ट माँग रखती है: “हमें लौटा दो / हमारे पुरखों की संपदा / झरने सोते / माटी पानी पोखर तालाब / मुक्त हवा खुला आकाश / हमारे हिस्से की रोशनी / पेड़ पौधों का प्यार / लता बेलियों की ममता / जंगल पहाड़ का आधार।”18 

पुनीता जैन
प्राध्यापक-हिन्दी
शास। स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 
भेल, भोपाल
मो। 94250-10223

संदर्भ:

  1. आदिवासी मोर्चा (2015)-भगवान गव्हाडे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ 09

  2. वही, पृष्ठ 12

  3. वही, पृष्ठ 62

  4. वही, पृष्ठ 59

  5. वही, पृष्ठ 74-75

  6. वही, पृष्ठ 14

  7. वही, पृष्ठ 36

  8. वही, पृष्ठ 30/31

  9. वही, पृष्ठ 29

  10. उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र-पाओले फ्रेरे (1996), ग्ल्पी, दिल्ली, पृष्ठ-11

  11. आदिवासी मोर्चा-पृष्ठ 42

  12. वही, पृष्ठ 42

  13. वही, पृष्ठ 57

  14. वही, पृष्ठ 32

  15. वही, पृष्ठ 16/17/18

  16. वही, पृष्ठ 22

  17. वही, पृष्ठ 19/20

  18. वही, पृष्ठ 88

2 टिप्पणियाँ

  • 3 Dec, 2021 05:06 PM

    Dhanyawad pawar sir ji

  • आदिवासी जनजीवन पर आधारित डाॕ. भगवान गव्हाडे द्वारा लिखित कविता संग्रह की समीक्षा अप्रतिम है । समीक्षक ने शोषण के सभी पहलुओं का बारीकी से विश्लेषण किया है । वर्तमान में भी हम कह सकते हैं कि "क्या इनको भी रेखांकित किया जा सकता है ? या फिर इस स्वतंत्र भारत में आज तक पिछड़ी हुई कुछ जनजातियों को रेखांकित क्यों नहीं किया गया ? आज भी वे प्राथमिक सुविधाओं से कोसों दूर है। मौलिक समीक्षा के लिए पुनीता जैन जी को बहुत-बहुत धन्यवाद।

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