आदिवासी संवदेना, संघर्ष और स्वप्न के उपन्यासकार: पीटर पॉल एक्का

01-02-2024

आदिवासी संवदेना, संघर्ष और स्वप्न के उपन्यासकार: पीटर पॉल एक्का

डॉ. पुनीता जैन (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मेन्नस ओड़ेअ के मुंडारी उपन्यास ‘मतुराअ कहनि’ (1920) के हिन्दी अनुवाद—‘चलो चाय बागान’ (1997) के पश्चात् आदिवासी उपन्यास जगत में मूलतः हिन्दी में सृजनरत पीटर पॉल एक्का की उपस्थिति इसलिए भी उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि उनके प्रथम उपन्यास ‘जंगल के गीत’ (1999) ने आदिवासी जीवन-जगत, संस्कृति को दर्शाने वाले उपन्यास के रचना क्रम को सतत बनाए रखा। जबकि कहानी और कविता के क्षेत्र में यह क्रम प्रायः बरक़रार नहीं रहा। कथाकार और उपन्यासकार के रूप में पीटर पॉल एक्का आदिवासी संस्कृति और चेतना के समर्थ हस्ताक्षर हैं। उनका रचना-कर्म आदिवासी समाज के स्वप्न और संघर्ष को स्वर देने की सजग-सचेत यात्रा है। हिन्दी में आदिवासी उपन्यास के रूप में ग़ैर आदिवासी रचनाकारों के उपन्यासों पर प्रायः चर्चा होती रही है किन्तु आदिवासी लेखकों के उपन्यास इस चर्चा के केन्द्र में कम ही रहे हैं। इसका एक कारण संभवतः आदिवासी रचनाकारों की रचनाओं का बड़े प्रकाशकों से प्रकाशित न होना या प्रचार-प्रसार का अभाव है। जबकि आदिवासी रचनाकारों की मौलिक, यथार्थ अनुभव-भूमि की प्रामाणिकता व सार्थकता ‘चलो चाय बागान’ जैसे प्रथम उपन्यास द्वारा ही स्पष्ट हो जाती है। आदिवासी जन-जीवन व संस्कृति, संघर्ष और चिंताओं का जीवंत प्रतिबिंबन उनकी मौलिक अभिव्यक्ति में है अतएव यह हिन्दी उपन्यास जगत के लिए सर्वथा अछूता और विशिष्ट वस्तु-संसार है। 

साहित्य, समाज और राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी समुदाय केन्द्र में है। किन्तु तात्कालिक स्वार्थगत दृष्टि से इतर वास्तविकता यह है कि इस समाज की स्थिति, संघर्ष और संकट प्रायः अनदेखे, अनसुने रह जाने को विवश है। साहित्य में वे यदि एक उत्तर आधुनिक अस्मितागत विमर्श हैं तो समाज में एक पिछड़ी जनजाति भर हैं तथा राजनीति उनकी उपयोगिता को मतपत्र तक सीमित कर देती है। बस्तर, छोटा नागपुर से लेकर सुदूर पूर्वोत्तर तक जंगल-पहाड़-नदियों के गीत गाने वाले आदिवासियों पर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनैतिक स्तर पर निरंतर प्रहार, वर्तमान परिदृश्य का कटु सत्य है। पूर्वोत्तर यदि सैन्य हस्तक्षेप और सांस्कृतिक प्रहार के चलते संघर्षरत है तो बस्तर से लेकर झारखंड, उड़ीसा तक के आदिवासी समाज के स्वाभाविक घर उनके जंगल-ज़मीन के नीचे छिपी अथाह खनिज संपदा पर सत्ता और पूँजी की कुदृष्टि बनी हुई है। इस स्वार्थी दृष्टि की अभीप्सा, ग्रहों-उपग्रहों तक की ज़मीन के नीचे की खनिज-संपदा को लील लेने को उद्यत है। इन वृहत् योजनाओं-परियोजनाओं का विरोध प्रगति में अवरोध की तरह देखा जाता है। वस्तुतः विजेता द्वारा लिखित इतिहास में उत्पीड़ित, उपेक्षित के विद्रोह नेपथ्य में धकेल दिये जाते रहे हैं। जब उलगुलाल, धरती आबा, दिकु जैसे शब्दों से उपभोक्तावादी वर्ग प्रायः अपरिचित है तब फूलो-झानो, सिदो-कान्हो या सोनी सोरी जैसे चरित्रों के संघर्ष से इनका अपरिचित रह जाना चकित नहीं करता। यही नहीं बिरसा मुंडा जयंती मनाती वर्चस्ववादी शक्तियाँ आदिवासी संस्कृति, इतिहास और उनके संकट व चुनौतियों को लेकर कितनी सजग है, यह प्रश्न अनुत्तरित है। विविध शक्ति केन्द्रों के लिए आदिवासी समाज की उपस्थिति का अकस्मात् महत्त्वपूर्ण हो जाना इसी कारण चौंकाता है। आदिवासी रचनाकारों के उपन्यास इस समुदाय के यथार्थ परिवेश और समस्याओं से साक्षात्कार कराते हुए व्यापक फलक पर आदिवासी जीवन-जगत की परतें खोलने का प्रयास करते हैं। 

पीटर पॉल एक्का एक ऐसे उपन्यासकार है जिनके प्रथम उपन्यास ‘जंगल के गीत (1999) में आदिवासी संस्कृति के जीवंत और विस्तृत दृश्यों के समानांतर उनके ऐतिहासिक संघर्ष की उपस्थिति है तो ‘सोन पहाड़ी’ (2012) में आदिवासियों के जंगल ज़मीन तक पहुँची विकास परियोजनाओं, दिकुओं की उपस्थिति, शोषण, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और प्रतिरोध की सुदृढ़ आवाज़ है, साथ ही इसमें भविष्य की एक सुंदर कल्पना, एक यूटोपिया है। ‘पलास के फूल’ (2012) में भी इसी तरह जीवन-संघर्ष के साथ संभावनाओं के दृश्य पिरोए गये हैं, उपन्यास के अंत में लेखक की रूमानी कल्पना, वस्तुतः आदिवासी समाज के लिए आशा पूर्ण दृष्टि व भावी स्वप्न है। ‘मौन घाटी’ (2013) उपन्यास में आदिवासी समाज अन्याय, अत्याचार को मौन तरीक़े से सहते जाने की जगह अपने भय और चिंताओं का अतिक्रमण कर संघर्ष के मैदान में उतर जाने को उद्यत दिखता है, यहाँ उपन्यासकार की दृष्टि राजनैतिक चेतना को महत्त्वपूर्ण क़दम की तरह देखती है। इन चारों उपन्यासों में ‘जंगल के गीत’ पीटर पॉल एक्का का प्रतिनिधि उपन्यास है, जिसमें आदिवासी समुदाय अपने वर्तमान, इतिहास से प्रेरणा ग्रहण कर प्रतिरोध द्वारा समानता, न्याय हेतु प्रयासरत है। आदिवासी समाज का सशक्त पक्ष उनका समृद्ध सांस्कृतिक जीवन है, जिसके विस्तृत दृश्य इस उपन्यास में मिलते हैं। पीटर पॉल एक्का इस उपन्यास में आदिवासी संस्कृति व सांस्कृतिक संस्थाओं की गतिविधियों, पर्व-त्योहार, जीवन-विधि, अभाव, प्रकृति के सानिध्य के सुख-दुख, स्त्री शोषण, ज़मींदारों के अन्याय और आदिवासियों की दुर्बलताओं के साथ ही उनकी विद्रोही चेतना व संघर्ष को, कई स्तर पर दिखाते हुए उनकी स्थिति, परिवेश को दृष्टि के केन्द्र में लाते हैं। 

‘जंगल के गीत’ उपन्यास के केन्द्र में पहाड़ की तराई में बसा तुंबा टोली का उराँव समाज है। प्रारंभिक दृश्य ही खद्दी (सरहुल) उत्सव की तैयारियों के साथ करमा, जित्तन के विद्रोह, बिरसा मुंडा के सान्निध्य व प्रभाव को दर्शाता है। इसी दीर्घ दृश्य को बुनते हुए उपन्यासकर करमा और करमी, जित्तन और जित्तनी के परस्पर अनुराग के साथ उनमें सामाजिक चेतना के भाव को रेखांकित करता चलता है। अपनी संस्कृति, पर्व-त्योहार, परंपरा, गीत-नृत्य संगीत से गहरे जुड़ाव व समाज में इसकी अनिवार्य उपस्थिति को दर्शाते हुए उपन्यास आदिवासी जीवन-जगत, रीति-मान्यताओं, धुमकुड़िया (कुँवारे युवकों का केन्द्रीय स्थल), पेल्लो एड़पा (कुँवारी युवतियों का केन्द्रीय स्थल) अखड़ा जैसे सांस्कृतिक केन्द्रों और सामाजिक विधि-विधानों के सजीव दृश्यों को प्रस्तुत करता है। वस्तुतः पीटर पॉल एक्का का यह प्रथम उपन्यास ही उनकी सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है। आदिवासी समुदाय का सांस्कृतिक जड़ों से गहरा जुड़ाव उनके संघर्ष और विद्रोह का आधार है, वे इसकी रक्षा करना चाहते हैं, यह संस्कृति व मूल्य उन्हें प्रकृति से नैसर्गिक रूप से जोड़ते हैं। पीटर पॉल एक्का की प्रारंभिक कहानियों में ईसाइयत का स्पष्ट प्रभाव है किन्तु प्रारंभिक उपन्यास में ऐसा नहीं है। 

सामान्यतः फ़ादर पीटर पॉल एक्का नाम भर पढ़ें तो कल्पना में स्वाभाविक रूप से ईसाई व्यक्तित्व की छवि आकार लेती है किन्तु यह सामान्य सोच जहाँ नाम को ईसाइयत सें जोड़ती है वहीं एक्का उपनाम उनकी आदिवासी पहचान को पुख़्ता करता है। उनकी कहानियों की रचना-यात्रा में यह अंतर स्पष्ट दिखाई देता है किन्तु उपन्यास लेखन के क्षेत्र में उनकी आदिवासी अस्मिता का स्वाभाविक प्रतिबिंबन ‘जंगल के गीत’ में हुआ है, जहाँ वे आदिवासी संस्कृति, समाज व चेतना के साथ स्पष्ट रूप से जुड़ते हैं। 

सरहुल, करमा उत्सव के जीवंत दृश्यों, उत्सव की गतिविधियों के विस्तृत वर्णन से सजे ‘जंगल के गीत’ उपन्यास में सांस्कृतिक संस्थाओं में उमंग, उत्साहपूर्ण सहभागिता, नृत्य-गीत, बुझावल (पहेलियों) और जीवंत संवाद के साथ सामूहिक जीवन-शैली के उल्लासपूर्ण दृश्यों का साक्षात्कार ही उसके पूर्वार्द्ध को आकार देता है। गीत-संगीत और वादन यहाँ ‘आनंद’ को रचते हैं तो बुझावल आदिवासी समाज की कल्पना शक्ति व भाषा कौशल एवं सृजनात्मकता का उदाहरण हैं। यहाँ प्रकृति के सान्निध्य में पर्व मनाते, ढोल-माँदर-नगाडे़ के ताल पर नृत्य करते, गीत गाते अकुंठ और सक्रिय आदिवासी उपस्थितियाँ हैं तो साथ ही जंगल के इन रहवासियों के जीवन की अनगिनत कठिनाइयाँ, असुरक्षा और चिंताएँ भी हैं। झरिया के पुत्र पुधना को भेड़िये द्वारा उठा लिये जाने का दृश्य हो या कड़ी मेहनत से धान उपजाने के बावजूद मालगुजारी, लगान के कारण मंडुवा की ही रोटी खा पाने की विवशता-जीवन की कठिन स्थितियों से संघर्षरत आदिवासी समाज के कई दृश्य इस उपन्यास में विन्यस्त हैं। पुत्र को खो देने के बाद विधवा व अकेली झरिया भौजी को पुगना द्वारा अपनाने पर गाँव वालों का इस निर्णय का स्वागत करना विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति तो है ही, मानवीय संवेदना के प्रति आदिवासी समाज का नैसर्गिक झुकाव भी है। इस समाज की वास्तविक समस्या और असंतोष का कारण आंतरिक नहीं, बाहरी व्यवस्था का हस्तक्षेप है। गंदूरा, करमा में यही असंतोष, प्रतिरोध का रूप धारण करता है। जिसके विद्रोही स्वर का संकेत इन पंक्तियों में स्पष्टतः मिलता है, “यह भी कोई ज़िन्दगी हुई। धान-चावल हम पैदा करें। और खाते रहें गोंदली-गोड़ा भात, मंडु़आ की रोटी, महुआ लाट्ठा। दिकु आकर हम पर शासन करें, लूटें, बेबस, लाचार कर दें और हम मुँह फाड़े सबकुछ देखते रहें, सहते रहें, घुट-घुटकर जीते रहें। गुलामी-बेठ बेगारी करते रहें। शुरू से ही सही क़दम उठाए होते तो आज ऐसी नौबत नहीं आती।” (जंगल के गीत-पृष्ठ 70, सत्य भारती प्रकाशन, राँची) 

‘जंगल के गीत’ उपन्यास में तुंबा टोली के लोगों की संस्कृति, जीवन-संघर्ष, बहुस्तरीय शोषण और स्वाभाविक प्रतिरोध को जगह मिली है। ज़मींदार चैतूसिंह का गाँव में आगमन, मुर्गा-दारू उड़ाने के साथ एतवारी पर कुदृष्टि की प्रतिक्रियास्वरूप करमा व उसके साथी युवक-युवतियों द्वारा उसकी पिटाई की घटना हो या तुंबा टोली और पीठ पड़हा गाँव का परस्पर वैमनस्य या इन्हीं गाँव के गंदूरा और परवती के प्रेम को दोनों ही गाँव द्वारा जुर्माने के बाद स्वीकृति दिया जाना—ये उपन्यास आदिवासी जीवन की आंतरिक स्थितियों और द्वन्द्व के साथ ही दिकुओं के गाँव में प्रवेश से उत्पन्न विसंगत स्थितियों (दारू का व्यसन, गाली-गलौच, लड़ाई) व स्त्रियों के शोषण व संघर्ष पर भी दृष्टि डालता है, ये सभी दृश्य यथार्थ-अनुभव से उपजे हैं। उपन्यास के प्रेमी युगल करमा-करमी, जित्तन-जित्तनी प्रेम की जगह बिरसा मुंडा की सीख अनुसार सामाजिक जीवन की कुरीतियों, रूढ़ परम्पराओं से भिड़ने का माद्दा दिखाते हैं। गाँव में धान रोपनी का कार्य परंपरागत रूप से ज़मींदार द्वारा पूजा कर प्रारंभ किया जाता रहा है किन्तु करमा के विरोध पर ‘कादलेटा’ उत्सव के साथ विधि-विधान से रोपनी शुरू कर दी जाती है। करमा अपने गाँव को आगे ले जाने का इच्छुक है—यह स्वप्न आदिवासी समुदाय का स्वप्न है जो स्वायत्तता और स्वांवलंबन को प्राथमिकता देता है। करमा का यह कथन आदिवासी समाज की इच्छा और स्वप्न को दर्शाता है, “जब से फगुवा और गंदूरा धुमकुड़िया से चले गये, सँभालने वाला हमें, जित्तन को छोड़कर कौन रह गया है। तुम्हें भी तो गाँव की लड़कियों को चलाना है। तुम, जित्तनी, बीनको नहीं संभालोगी तो कौन संभालेगा। गाँव को ऊपर उठाना है। उधर देस आज़ाद होगा तो हम भी आज़ाद हों। तब सब कुछ अपना होगा-खेत, खलिहान, जंगल। तब बेठबेगारी नहीं करना होगा। हम जंगल का राजा होंगे, जंगल के गीत गाएँगे, नाचेंगे, हंड़िया पीएँगे, साल भर धान का भात खाएँगे।” (जंगल के गीत, पृष्ठ 113-114) 

आदिवासी समाज प्रकृति के प्रांगण में उसके कोमल और कठोर दोनों रूपों के साथ समवेत रूप से जीवन जीने का आदी है। पहाड़ी इलाक़ों के निकट जंगल साफ़ करके गाँव बसाने, खेती की ज़मीन तैयार करने वाले आदिवासियों के लिए एकतरफ़ जंगल उनकी आजीविका है, दूसरी तरफ़ जंगली जानवरों के आक्रमणों का भी उन्हें सामना करना पड़ता है। शिकार दोनों ओर से होता है और परस्पर सान्निध्य में रहने के भी दोनों ही आदी हैं। हाथियों द्वारा खड़ी फ़सल को रौंद डालना ऐसी समस्या है जिसका सामना करने के पश्चात् तुंबा टोली के लोग ज़मींदार से मालगुजारी की माफ़ी चाहते हैं और उसकी धमकी के बाद उदास लौट आते हैं। यह स्थिति करमा, जित्तन जैसे युवाओं में प्रतिरोध की भावना जागृत करने के लिए अनुकूल है। उनका मंतव्य भी स्पष्ट है “अपना अधिकार लेना होगा, आवाज़ उठाना होगा। धरती आबा ने भी वैसा ही मंत्र दिखाया था। जंगल काटकर खेत-खलिहान हम बनाएँगे, खेती हम करेंगे, हल हम चलाएँगे-और ये दिकु पैसे के बल पर धोखे से हमारा सबकुछ छीन लेंगे, ज़मीन ले लेंगे, हमें धांगर बना देंगे, बेठबेगारी कराएँगे, सताएंगे, मारेंगे, पीटेंगे, हमारी बहू-बेटियों की इज़्ज़त से खेलेंगे, हम विवशता में ख़ून का घूँट पीकर रह जाएँगे। राजा-मालिक हम थे, अब धांगर बने हुए हैं।” (जंगल के गीत, पृष्ठ 120) प्रतिरोध के इस स्वर के प्रेरणा स्त्रोत आदिवासी इतिहास के धरती आबा बिरसा मुंडा है। करमा इन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर विरोध करता है और ज़मींदार के लठैतों द्वारा मारा जाता है। ध्यातव्य है कि संघर्ष करते हुए अधिकार प्राप्त करना और स्वप्न को साकार करने का प्रयास करना पीटर पॉल एक्का के आगे के उपन्यासों के चरित्रों का भी अभीष्ट रहा है। 

स्पष्ट है कि ‘जंगल के गीत’ उपन्यास काल और स्थान के विस्तार की जगह आदिवासी समाज के सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश और संघर्षपूर्ण स्थितियों पर अधिक व्यापकता से दृष्टि एकाग्र करता है। उपन्यास की संरचना के केन्द्र में संस्कृति के पश्चात् आदिवासी जन-जीवन में हस्तक्षेप के विरुद्ध प्रतिरोध का सशक्त स्वर है। यहाँ इतिहास-पुरूष बिरसा की प्रेरणा वह प्रस्थान है, जो आदिवासी जीवन-जगत के लिए एक स्वप्न रचता है। इसी स्वप्न हेतु संघर्षरत करमा और करमी का जीवनोत्सर्ग इस उपन्यास का अंतिम पड़ाव है, किन्तु यह स्वप्न यहीं नहीं ठहरता। अपनी औपन्यासिक रचना-यात्रा में पीटर पॉल एक्का की लेखनी आगामी तीनों उपन्यास में इस उत्सर्ग को पीछे छोड़कर स्वप्न को साकार करने हेतु जुट जाने वाले चरित्रों और स्थितियों को आकार देती है। यद्यपि इस प्रयास में उपन्यास की संरचनागत कृत्रिमता व आदर्शवादी प्रवृत्ति स्पष्ट दिख जाती है किन्तु इस रचना यात्रा का अभीष्ट स्पष्टतः सम्मुख आ जाता है। आदिवासी जीवन पर आधृत कोई भी साहित्यिक रचना इस समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति के चित्रण के बिना पूर्ण नहीं हो सकती। आदिवासी-जीवन मध्यमवर्गीय जीवन-विधि से सर्वथा विलग है। उसकी संस्कृति, ऐतिहासिक व वर्तमान स्थिति, परिवेश, द्वन्द्व व चरित्र शहरी, क़स्बाई जन-जीवन से अलग और स्वतंत्र है। पीटर पॉल एक्का ने इस परिवेश, स्थितियों और द्वन्द्व को निकट से देखा, अनुभूत किया है। साहित्यिक रचनात्मकता इसमें परिवर्तन नहीं ला सकती किन्तु मानवीय संवेदना को प्रभावित कर सकती है। इसलिए उपन्यासकार की लेखनी अपनी आगामी रचनाओं में इन स्थितियों व परिदृश्य में परिवर्तन हेतु एक यूटोपिया रचती है, यह उसका भावी स्वप्न है, जहाँ आदिवासी समाज का जीवन-यथार्थ समानता स्वायत्तता और न्याय से पूर्ण हो। इसी का परिणाम है कि ‘पलास के फूल’, ‘सोन पहाड़ी’ और ‘मौन घाटी’ नामक उपन्यासों के कथा-संसार में विसंगत स्थितियों, अन्याय, शोषण से संघर्ष करता आदिवासी समाज अपने स्वप्न को हक़ीक़त में उतारने में सफल दिखाया जाता है। 

‘पलास के फूल’ और ‘सोन पहाड़ी’ 2012 में लिखे गये उपन्यास हैं। ‘पलास के फूल’ का प्रमुख पात्र इंजीनियर आनंद है जिसकी नियुक्ति पहाड़ी अंचल में सड़क, पुल बनाने वाली योजना के अंतर्गत होती है। इसी तरह ‘सोन पहाड़ी’ में भी सुनील, जो स्वयं आदिवासी है, की नियुक्ति कोकिला परियोजिना के अन्तर्गत बाँध बनवाने व जल विद्युत योजना के लिए होती है। इन दोनों उपन्यासों में बाहर से आए चरित्रों की दृष्टि से आदिवासी अंचल की समस्याओं, जीवन, चरित्रों, घटनाक्रमों को रेखांकित किया गया है। ‘पलास के फूल’ में भी आदिवासी पर्व सरहुल, नृत्य, संगीत के संदर्भ है तो साथ ही सीधी-सरल जिंदगी-जीते आदिवासी चरित्र हैं, उनका शोषण करने वाले पात्र हीरालाल, झमकू, बनिया है, हंड़िया के नशे में बिगड़ते युवा है, अज्ञान और अंधविश्वास है, मड़ई (बाजार) में साहू द्वारा क़र्ज़ देकर आदिवासियों का शोषण क्रम है, जंगल के कट जाने, फारेस्ट गार्ड की नियुक्ति से आजीविका का विच्छिन्न होना है, सड़क और पुल निर्माण में मजूदरी करना, पुल का मेहराब गिरने पर मज़दूरों का काम पर न आना आदि इन समस्त स्थितियों के बीच आदिवासी जन-जीवन का दृश्य खींचा गया है। वापस लौटते समय आनंद द्वारा परवती को दिया गया साथ चलने का प्रस्ताव वह स्वीकार कर लेती है। ग्रामीण आदिवासी भी पुनः मज़दूरी हेतु अन्य स्थान की ओर निकल जाते हैं। समग्रतः यह संक्षिप्त उपन्यास आदिवासी इलाक़े की स्थिति का चित्रण करता है किन्तु इस उपन्यास की तुलना में ‘सोन पहाड़ी’ उपन्यास में लेखक अधिक खुलकर आदिवासी समाज की विषम स्थितियों और उनके सशक्त प्रतिरोध को सम्मुख रखने में सफल हुआ है। पहाड़ी इलाक़ों में बाँध व अन्य योजनाओं के फलस्वरूप विस्थापन और बार-बार उजड़ने का कष्ट यहाँ कथा के केन्द्र में है। साथ ही उसके विरुद्ध संघर्ष और आदिवासी चेतना को भी यह उपन्यास अधिक सजगता से आकार देता है। 

‘सोन पहाड़ी’ उपन्यास में प्रतिरोध केन्द्र में है। हरिगुलाम द्वारा फूलो के साथ ज़बरदस्ती करने के परिणामस्वरूप सुबह एक ज़हर बुझा तीर उसकी छाती को चीर देता है। सरकार का आश्वासन है कि बाँध के कारण ज़मीन डूब में आने पर ज़मीन, खेत, घर मुआवजे के रूप में दिया जाएगा किन्तु आदिवासी जानते हैं, ये आश्वासन कभी पूरे नहीं होते। जीतू-बिरसा द्वारा प्रतिरोध की आवाज़ मुखर करने पर वहाँ के प्रमुख करतार का आदिवासियों में फूट डालने का प्रयास सफल नहीं होता है, न ही सुनील की समझाइश का ही असर होता है। आदिवासी युवक भूखे मरने का प्रण करके, तब तक काम पर आना स्वीकार नहीं करते जब तक कि उनकी मुआवजे और पुनर्वास की माँग पूरी नहीं हो पाती। अन्ततः सोन पहाड़ी के ऊपर के इलाक़े में नया गाँव बसाने की योजना न केवल पूरी होती है बल्कि यह उपन्यास एक ऐसे स्वप्न को फलीभूत होता दर्शाता है जिसमें पुनर्वास के पश्चात् बसे गाँव में स्कूल, अस्पताल, सड़कें, खेल के मैदान, सांस्कृतिक केन्द्र आदि सब है। विविध विकासवादी योजनाओं के चलते गाँव उजड़ने की त्रासदी, विवशता के समानांतर यहाँ एक यूटोपिया आकार लेता दिखाया गया है, जहाँ पुनः बसा गाँव जीवनोपयोगी सुविधाओं से भरा-पूरा एक आदर्श गाँव है। वस्तुतः यह सुखांत लेखक का आशा भरा स्वप्न है। ‘जंगल के गीत’ उपन्यास का नायक ‘करमा’ जहाँ संघर्ष करते हुए मारा जाता है, “पलास के फूल’ का नायक विपरीत परिस्थितियों को अनुचित मानता है, वहीं ‘सोन पहाड़ी’ का नायक गाँव में परिवर्तन व नयी आशाओं को साकार होते देखता है। 

‘मौन घाटी’ (2013) उपन्यास के केन्द्र में अंबा घाट की पहाड़ियों में बसा कुसुमपुर गाँव है जहाँ के परिवेश में नये परिवर्तन प्रतिकूल परिस्थितियों को जन्म देकर आदिवासी जन-जीवन को कठिन बना देते हैं। मनसुख, सुब्बाराव, हरिया, जालसिंह शोषणकारी शक्तियाँ हैं जो न केवल ग्रामीणों का शोषण करते है बल्कि उनमें व्यसन और परस्पर वैमनस्य उत्पन्न करते हैं। यहाँ के आम आदिवासियों में बलात्कार और बच्चा जैसी चरम स्थितियों पर भी मौन रहकर सहने की प्रवृत्ति जड़ जमा चुकी है। इसी गाँव के शिक्षित युवा किशोर और रजनी इस विषम स्थितियों के विरुद्ध सामूहिक रूप से विरोध दर्ज कराने की प्रेरणा बनते हैं। किशोर का चुनाव में खडे़ होना और विजय प्राप्त करने से गाँव में उम्मीद की नयी किरण प्रस्फुटित होती है। 

पीटर पॉल एक्का के प्रथम उपन्यास का महत्त्वपूर्ण पक्ष संस्कृति और प्रतिरोध का भाव है, वहीं शेष तीन उपन्यास शोषण के कई स्तरों का चित्रांकन करते हुए विद्रोह को एक ऐसे मुक़ाम पर ले जाने की यात्रा हैं, जहाँ आदिवासी समाज स्वयं आगे बढ़कर संघर्ष करते हुए अपने अधिकार को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। यद्यपि सामाजिक, राजनैतिक परिदृश्य दर्शाता है कि वर्तमान में वस्तु स्थिति इससे भिन्न है। किन्तु एक रचनाकार द्वारा आदर्श स्वप्न की कल्पना उसकी रचना-यात्रा का अभीष्ट है। ‘मौन घाटी’ उपन्यास अन्याय को मौन रहकर सहते जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का आह्वान है। गाँव में दिकुओं के अनाचार, स्त्री शोषण, भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिक्षित आदिवासी युवा सभी को संगठित कर अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का प्रण करते हैं। राजनैतिक सक्रियता को यहाँ उपन्यासकार ने महत्त्वपूर्ण माना है। स्त्रियों के साथ बलात्कार और उसके पश्चात् हत्या जैसी क्रूरता की पुनरावृत्ति पर भी मौन साधे रहने वाले आदिवासियों को संगठित होकर, राजनैतिक रूप से अधिकार संपन्न होकर प्रतिरोध करने की आवश्यकता को रेखांकित करना दर्शाता है कि उपन्यासकार सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक चेतना के साथ राजनैतिक चेतना को भी आवश्यक मानता है। 

पीटर पॉल एक्का के उपन्यास आदिवासी संस्कृति के समानांतर वर्तमान परिदृश्य की प्रतिकूल परिस्थितियों पर भी ध्यान केन्द्रित करते हैं। किन्तु संस्कृति से इतर रोज़मर्रा के जीवन की छवियाँ, भाषा, परंपरा, प्रकृति, जीवन-शैली के विस्तृत और सूक्ष्म चित्रांकन का यहाँ अभाव है। लेखक की दृष्टि के केन्द्र में विषमताएँ, प्रतिरोध और भावी स्वप्न हैं। उल्लेखनीय है कि पीटर पॉल एक्का की यह रचना-यात्रा उपन्यास के व्यापक फलक, बहुस्तरीयता और सूक्ष्मता से इतर कितनी ही संक्षिप्त क्यों न हो, अपने उपन्यासों में कहीं भी उनकी दृष्टि आदिवासी समाज, उसके चरित्रों और परिवेश से विच्छिन्न नहीं होती और आदिवासी समाज को अधिकारों के प्रति सचेत करते हुए भविष्य के प्रति उम्मीद जाग्रत करने की चेष्टा करती है। 
 
पुनीता जैन
प्राध्यापक-हिन्दी
बाबूलाल ग़ौर शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय 
भेल, भोपाल मो। 9425010223
 

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