अपनी अपनी खिड़कियाँ
डॉ. पुनीता जैनआओ!
आओ कभी मेरे घर!
मेरी आत्मा
मेरी दृष्टि में आओ
देखो मेरी खिड़की से यह संसार
देखो कि
इस तरह भी देखती है कोई दृष्टि
आओ देखो
मेरी आँखों में पानी का वह क़तरा देखो
जो बाढ़ के पानी की तरह
हिन्दू-मुस्लिम में भेद नहीं कर सका कभी
आओ देखो
मेरे हृदय का वह दोलन
जो भीड़ की आक्रामक वीभत्स आवाज़ों से
भयभीत था
एक नन्ही बालक-जान की तरह
आओ देखो
मेरे विचारों में पसरता अवसाद
मेरे अविश्वासों में पालथी मार ज़रा देर बैठो
देखो कितने नाख़ुश
कितने नकारात्मक हो चले हैं
हमारे देशकाल के
युवा चेहरे
देखो उनकी लुनाई की हत्या को /आँख
खोलकर देखो
आओ
और देखो
इतना भी न बोलो
विराम दो अपने
उद्दाऽऽम कथनों को
और सुन ही लो एक बार
वह मौन/ जो
जिह्वा के थमने पर ही
देता है सुनाई
संभव है इस मौन में
दिख ही जाए तुम्हें
घर के कोने में दुबका
अवहेलित
सहमा/कृशकाय
राख ओढ़ छिपी बैठी चिंगारी सा
कोई सत्य!
आओ
देखो कि तुम्हारी तरह नहीं देखते सब
ये करोड़ों - करोड़ लोग
सब देखते हैं अपनी तरह
सबका देखना/ देखो एक बार तुम
एक बार ही सही
देख लो/ सबकी/ अपनी अपनी खिड़कियाँ
अजानों - आरतियों के समानांतर खड़े
कुछ धरम / कुछ करम!
छोटे -बड़े की लंबाई नापने में असहज
कुछ अड़ियल इंसानी जातें!
औरत या आदमी की तरह
न सोच पाने को विकल
कुछ आत्माएँ।
देख लो एक बार
उनकी खिड़की से कैसी दिखती है
यह दुनिया
ताकि सबके /अपनी-अपनी तरह देखने से
इंकार न कर सको
तुम!