पठान 

डॉ. पुनीत शुक्ल (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जून की उस चढ़ती दोपहर सन्नाटा जब अपने उस उरूज पर था कि सन्नाटे की भी अपनी एक प्रतिध्वनि सुनाई देने लग पड़े और गर्मी की प्रचंडता ऐसी कि धरती से लेकर आकाश तलक एक पक्षी भी नहीं चहक रहा था; ऐसे में गाँव के पूर्वी छोर पर स्थित उस प्राइमरी स्कूल की तरफ़ एक चरवाहा आम के एक फलदार वृक्ष के नीचे अपनी लाठी की टेक लिये खड़ा, एकटक अर्द्ध सैनिक बल (पी.ए.सी.) के उन तंबुओं की तरफ़ देखे जा रहा था जो एक रहस्यमयी ख़ामोशी और किसी अनहोनी के हो चुकने के परिचायक बने स्कूल के मैदान में अचल खड़े थे। अभी उस चरवाहे की संशित उत्सुकता का शायद समाधान भी न हो सका था कि गाँव के पश्चिमी छोर से गोली चलने की आवाज़ आई। जैसा कि फ़ौजियों के लिए सर्वविदित है कि आपात स्थिति में यह अविश्वसनीय तेज़ी का परिचय देते हैं, बस, इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए सिपाही आनन-फ़ानन में आवाज़ की दिशा में अपने-अपने अत्याधुनिक हथियार लेकर भागे। उन्हीं के पीछे, अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए गाँव के शिव मंदिर को पार करता हुआ क़रीब आठ वर्ष का एक अधनंगा लड़का, जिसे ज़्यादा डींगें हाँकने के चक्कर में गाँव वाले गटकन कह-कर पुकारते थे और कालान्तर में यही नाम उसकी अमिट पहचान बन गया; नंगे पैरों धूल भरी गली से होता हुआ तालाब की तरफ़ कुछ इस प्रकार मुड़ा जैसे कोई फ़ाइटर जेट हवा में कलाबाज़ियाँ करता हुआ अचानक ऐसे ग़ायब हो जाता है जैसे कभी था ही नहीं। इस अप्रत्याशित घटना और फ़ौजियों की आकस्मिक ड्रिल ने पूरे गाँव को हतप्रभ कर दिया था; सिफ़त इतनी रही कि उस दिन का यह धमाका किसी बंदूक से निकली गोली का नहीं अपितु शिवकुमार शुक्ल जिन्हें ग्रामीण यथाउम्र अपभ्रंश में शिकुमार भैया या चाचा कहकर पुकारते थे, के पुराने खंझड़ ट्रैक्टर के टायर फटने की आवाज़ थी। यह कोई आज की ही बात नहीं थी, अपितु पिछले लगभग तीन महीनों से कमोबेश इसी प्रकार की घटनाएँ होती चली आ रही थीं। 

ऐसा बिल्कुल नहीं था कि उक्त घटनाओं का कोई ठोस अतीत न था, शर्तिया था। अब से क़रीब साढ़े तीन माह पूर्व फरवरी के द्वितीय पखवाड़े की वो उदास शाम शायद ही उस छोटे से गाँव का कोई भी व्यक्ति कभी भूल सके। जैसा कि अक़्सर पाया जाता है कि फरवरी माह शीत एवं ग्रीष्म ऋतु के मध्य कड़ी का काम करता है; अतः उस शाम भी लोग अन्य आम दिनों की ही भाँति, दिनभर के कार्यों से निवृत्त होकर, शायद कुछ राहत के पल बिताने और मानसिक शान्ति की तलाश में अपने-अपने घरों की छतों पर आ जुटे थे। लोग आपस में बातें तो कर रहे थे किन्तु बातों में वो गर्मजोशी और पड़ोसी वत्सल्य न था। यहाँ तक कि आसमान भी अपने में एक अनोखी पीलिमा लिये इस मानसिक निर्जन का हवाला दे रहा था। कुछ लोग तो दबे मुँह बोल भी रहे थे, “आज न जाने कहे कउनो अनहोनी होएं का अंदेशा लागि रहा है।” ऐसी ही बातें करते, ढलती शाम और बढ़ते अंधकार के साथ लोग धीरे-धीरे अपने-अपने घरों में चले गए। रात की काली चादर ने शनै-शनै पूरे गाँव को अपने आग़ोश में ले लिया। 

बात उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर ज़िले की बिंदकी तहसील में स्थित एक छोटे किन्तु आत्मविश्वास से लबरेज़ गाँव की है जो असफेरे में औसेरीखेरा के नाम से प्रसिद्ध है और मेरी जन्मभूमि भी है। यहाँ के लोग होली के त्योहार से लगभग पंद्रह दिनों पहले से उड़ने वाली फाग में बड़े ही जोश के साथ ढोलक की थाप पर ऊँचे स्वर में गाते हैं: 

“खेरे कै लज्जा राख भवानी
तोरी शरण ढोलक बाजै। 
काहे कै ढोलका बने ढोलका न होएँ। 
कै मन चश्मा लाग भवानी
तोरी शरण ढोलक बाजै।” 

यहाँ ‘खेरे’ शब्द का प्रतीकात्मक प्रयोग ‘औसेरीखेरा’ गाँव के लिए ही हुआ है। लोगों में एकता ऐसी कि हिन्दू-मुस्लिम लगभग सभी त्योहार, बिना किसी भेदभाव के साथ मिलकर मनाते थे। गाँव में एक शुक्ल ख़ानदान भी था जिनके पुरखों ने आज़ादी के पूर्व के भारत में इसी गाँव में रहते हुए असफेरे के सात गाँवों में ज़मींदारी की थी। पंडित शिवनंदन लाल शुक्ल, जो मूलतः ज़मींदार थे और एक बहुत कुशल वैद्य भी, लोगों से कैसे भी इलाज का किसी भी तरह का कोई मेहनताना नहीं लिया करते थे। अतः लोकप्रियता भी उसी के अनुरूप थी। नतीजा यह कि किसी भी छोटी या बड़ी झड़प या आपसी रंजिश को लेकर कभी कोई गाँव वाला पुलिस थाने का दरवाज़ा नहीं खटखटाता था; अपितु, सीधे शुक्ल जी के दरबार में गुहार लगाता था। शुक्ल जी की क़ानूनी दक्षता एवं निर्णय लेने की क्षमता का तो मालूम नहीं, किन्तु ग्रामीणों के मन में एक अटूट विश्वास था तभी पलट-पलट कर आते रहते थे और यही विश्वास आज़ादी के बाद भी काफ़ी समय तक बदस्तूर बरक़रार रहा। बहरहाल, किसी भी विश्वास की अटूटता को बरक़रार रखने के लिए दोनों ही पक्षों का निष्ठावान बने रहना अपेक्षित है; जो हुआ भी। वैद्यकी की कमान ज़मींदार साहब के सबसे बड़े पुत्र यानी मेरे दादा श्री कृष्ण कुमार शुक्ल जी ने निःशुल्क सेवा की परिपाटी को जारी रखते हुए सँभाल ली, और सामाजिक सामंजस्य को दुरुस्त रखने का बीड़ा मेरे छोटे दादा श्री राजकुमार शुक्ल जी ने उठाया। शुक्ल परिवार की आर्थिक सम्पन्नता के विषय में तो कुछ ख़ास टिप्पणी नहीं कर सकता, किन्तु हाँ, रुआबदार अवश्य रहा। ज़मींदार साहब ने सीमित आवागमन के साधनों के उस युग में अपने लिए क्रमशः रामप्यारी एवं सुंदरकलिया नामक हथिनियाँ और कल्लू नामक एक घोड़ा और एक घोड़ी (जिसका नाम वर्तमान पीढ़ी शायद भूल चुकी है) पाले हुए थे, जो लंबे समय तक परिवार के रसूख़दार होने का प्रतीक बने रहे। मैं शायद उन चुनिन्दा सौभाग्यशालियों की वो आख़िरी पीढ़ी हूँ जिन्होंने छप्पर डालने के लिए बिना जात-पाँत और धर्म की दीवारों के, लोगों को एकजुट होते और सफलतापूर्वक छप्पर डलने पर एक भेली गुड़ या बताशों के साथ ख़ुशियाँ मनाते देखा; गाँव की किसी भी बेटी या बेटे पर पूरे समाज का एकाधिकार देखा; गाँव की किसी भी बेटी की डोली उठवाना पूरे गाँव की ज़िम्मेदारी बनते देखा और किसी के जनाज़े में धर्म और सम्प्रदाय से परे पूरे गाँव को शरीक होते हुए देखा। आज भी बचपन की कुछ धुँधली मीठी यादें चलचित्र की भाँति जीवंत हैं, जिनमें से एक ज़िक्र ठाकुर चंदिका सिंह की बड़ी बेटी गुड्डी की शादी का है, जिसमें तुन्नु दादा (जो पंडित जी के नाम से भी जाने जाते थे) को सुबह से शादी के लिए तैयार की गई रसोई में बैठकर कद्दू (सीताफल) काटते हुए देखा और वहीं बग़ल में बैठे मेरे पिता श्री आनंद शुक्ल को आलू छीलते हुए पाया; अपने ताऊजी जो मुन्नू दादा के नाम से जाने जाते थे और समसामयिक राजनीति में एक ख़ासा स्थान रखा करते थे, को सभी का मनोरंजन और उत्साहवर्द्धन करते देखा। अपने बड़े पापा (ताउजी) श्री अशोक शुक्ल के किसी प्रसंग में ‘बकरी’ के स्थान पर ‘मादा बकरी’ कहकर संबोधित करने पर ग्रामीणों को बिना किसी दुराव के ठिठोलियाँ करते और हँसते-हँसाते देखा। बड़े भाई के कालरा हो जाने पर गाड़ी का इंतज़ाम न होने की स्थिति में छोटे भाई यानी मेरे चाचाजी श्री अश्वनी शुक्ल को देवमई गाँव को धमकाते देखा। इसी प्रकार की अनगिनत सुनहरी यादों को अपने में समाहित किए हुए मैं और मेरे हमजोलियों ने बाल्यावस्था से युवावस्था और फिर शनै-शनै प्रौढ़ावस्था में दस्तक दे दी और साथ ही समयान्तराल के साथ-साथ बदल गयीं बहुत-सी पुरानी मान्यताएँ और सामाजिक मूल्य। अब तो देर शाम तालाब के उस पार से किसी गोरेलाल, घस्सू या सेरसैया की कच्ची झोंपड़ी के बाहर पड़ी चारपाई से दुनिया की तमाम मुश्किलों से परे वो उन्मुक्त लोकगीत शायद ही सुनने को मिलें जो पूरे गाँव के लिए लोरी का काम किया करते थे और इन्हीं के सहारे लोग अपने-अपने तनाव भूलकर नीले आसमान तले मीठी नींद के आग़ोश में चले जाया करते थे; दिनभर खेतों में काम करते रहने की थकान ही कूलर और एयर-कंडीशनर का काम कर दिया करती थी। कुछ ख़ास तो शायद नहीं, किन्तु चंद पंक्तियाँ आज भी विस्मृत भावों में कहीं साँसें ले रही हैं, जिनमें बुंदेलखण्ड के महान योद्धाओं ‘आल्हा-ऊदल’ की वीरता का वर्णन किया गया है:

“आल्हा-ऊदल बड़े लड़इया
जिनसे हारि जाय तलवार
किटकौं-किटकौं बजै मँजीरा
तबला घुमुकि-घूमुकि रहि जाय . . .” 

फिर आख़िर 1990 के दौर में एक समय ऐसा भी आया जब शहरों की संकीर्ण अर्थवादी और भौतिकतावादी खोखली आधुनिकता ने मेरे उस प्यारे से भोले-भाले गाँव को अपनी जकड़न में ले लिया। अब गाँव से उच्च शिक्षा हेतु या किन्हीं अन्य उद्देश्यों से आस-पास के शहरों को पलायन कर गए बच्चे, जब कभी छुट्टियों में घर वापस आते या छुट्टियाँ पूरी करके जाते तो पहले की तरह आस-पड़ोस के कुछ चिह्नित घरों में जा-जाकर बड़ों का आशीर्वाद लेने की प्रथा समाप्त करते जा रहे थे। दशहरे के त्योहार में मेहमानों और आगुन्तकों के लिए बड़े ही क़रीने से सींक में पिरोए पान के बीड़ों, सौंफ़ और बीड़ी-सिगरेट से सजाया गया वो स्वागत-थाल अब सजा का सजा ही रह जाता है; होलिका दहन की अगली सुबह, होलिका दहन वाले स्थान पर संचित वो पवित्र राख लोगों के आने, एक-दूसरे को राख स्नान करवाने और राख उड़ाकर एक-दूसरे का अभिवादन करने का इंतज़ार ही करती रह जाती है। शायद कोई एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना अपनी भ्रांतिपूर्ण स्वनिर्मित खोखली सामाजिक हैसियत की तौहीन समझने लग गया था। रेडीमेड स्वेटर और बाज़ार के डिब्बा बंद अचार ने दादी-नानी के उस आनुवांशिक कौशल का गला घोंट दिया था जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती चली आ रही थी। आपसी झगड़ों में रपट (एफ.आई.आर.) करने का प्रचलन बढ़ता जा रहा था। परिवार से लेकर चौपालों तक ईर्ष्या और द्वेष घर कर चुके थे। अब कोई भी गाँव का लड़का या लड़की, पूरे गाँव का बेटा या बेटी नहीं रह गया था। हद तो यह कि कई बार हमें छोटे बच्चों से पूछना पड़ जाता था कि, “कहे बउवा, तुम्हार पापा को आहीं’? यही वो दौर था जब पहली बार इंसान और इंसानियत से कुछ क़दम आगे बढ़कर धर्मगत शब्द दिलों में घर कर रहे थे और इन्हीं वैचारिक बदलावों का नतीजा थी वह मनहूस शाम और गाँव में अर्द्ध-सैनिक बल (पी.ए.सी.) का जमावड़ा। अब गाँव की अदालतें शुक्ल जी के दरबार तक सीमित नहीं रह गई थीं; लोग शायद समय से पहले और आवश्यकता से अधिक पढ़-लिख गए थे; तकलीफ़ रह गई तो बस इतनी कि उनकी तथाकथित पढ़ाई-लिखाई वैचारिक सम्पन्नता की न होकर मानसिक विपन्नता की ही साबित हुई। शायद इन्हीं सामाजिक एवं वैचारिक मतभेदों का समाकलित उत्सर्जन फरवरी माह की वो मनहूस शाम साथ लेकर आई थी, जो शाम से रात में बदलते-बदलते न केवल एक ज़िन्दगी को निगल गई बल्कि हमेशा के लिए पुरखों द्वारा रखी गई एकता और सामाजिक सौहार्द की उस मज़बूत नींव को भी बुरी तरह झकझोंर गई।

पठान, हाँ पूरा गाँव उस अधेड़ को इसी नाम से पुकारता था। इकहरा लंबा क़द, सुडौल शरीर, गहरा साँवला रंग, अंडाकार चेहरे पर सुसज्जित दो छोटी पैनी आँखों के बीच में उभरी लंबी नाक और लंबे-चिपके कान; किन्तु, इन सब से बढ़कर, पान के बीड़े से भरे मुँह पर सद्यः मुस्कान बिखेरते कत्थई होंठ। गाँव के किसी बच्चे, बूढ़े या युवा से शायद ही कभी चचा ने ग़ुस्से में या फिर तेज़ स्वर में बात भी की हो। टेरीकॉट कपड़े का घुटनों तक लटकता लंबा सफ़ेद कुर्ता, जो बस नाम का ही सफ़ेद हुआ करता था और बड़े-चेक की गहरे नीले रंग की लुंगी। पठान का एक स्वर्णिम इतिहास भी हुआ करता था। अंग्रेज़ी शासन के ख़त्म होने के काफ़ी समय बाद तक, जब तक ज़मींदार साहब जीवित रहे, पठान ने उनके अंगरक्षक के तौर पर बदस्तूर अपनी सेवाएँ जारी रखीं और असफेरे में अपनी अलग पहचान भी बनाई। बाद में पठान ने अपनी आजीविका चलाए रखने के लिए ताँगा चलाना शुरू कर दिया था। गाहे-बगाहे गाँव से बैठका (निकटतम बस अड्डा) तक की सवारी मिल ही जाया करती थी। पठान का एक बेटा भी था, ‘अल्ली’, जो क़द-काठी और रंग-रूप में पठान का ही प्रतिबिंब था और कमोबेश स्वभाव से भी; बस कभी-कभी कुछ ग़ुस्सा कर लिया करता था। क्रोशिया का काम की हुई काले या हरे रंग की छेददार सैंडो बनियान और वैसी ही बड़े चेक वाली लुंगी अल्ली की पहचान बन चुकी थी। अपने अब्बा के नक़्शे-क़दम पर हू-ब-हू खरा उतरने के लिए अल्ली ने बहुत ही कम उम्र से पान का बीड़ा चबाना शुरू कर दिया था। पठान की एक बेटी भी थी, जिसके विषय में कहने को कुछ ख़ास है नहीं क्योंकि बहुत ही अल्प आयु में उसका निकाह हो गया था और वह अपने ससुराल चली गई थी। आगे चलकर पठान ने अपने बेटे अल्ली का निकाह जहानाबाद नामक पास के क़स्बे में एक मुस्लिम परिवार की लड़की से किया था। बस, यहीं से पठान के माध्यम से फरवरी की उस शाम की इबारत लिखी जा चुकी थी। असल में जिस लड़की से अल्ली का निकाह मुकर्रर हुआ था, आगे चलकर सुनने में आया कि निकाह से पहले उसके नूरहसन नामक एक आपराधिक प्रवृत्ति के युवक के साथ सम्बन्ध थे; शायद एकतरफ़ा या फिर . . . ख़ैर, जो भी था, वह निकाह के बाद भी जारी रहा। नूरहसन अल्ली की पत्नी से मिलने आता-जाता रहा। जब पानी सिर के ऊपर से होकर जाने लगा तब पठान ने अंकुश लगाने की चेष्टा की; किन्तु, शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नूरहसन को यह रोक-टोक गवारा न थी। उसने पठान को अपने रास्ते से हटाने का मन बना लिया था, किन्तु शायद यह साज़िश मात्र एक पठान के क़त्ल की ही नहीं थी अपितु यह क़त्ल था उस सामाजिक समरसता और भाईचारे का जिसने गाँव में बसने वाली विभिन्न जातियों एवं धर्मों को एक भावनात्मक माला में पिरोया हुआ था। 

हम तीनों भाई-बहन घर का जीना उतरकर आँगन में पहुँचे ही थे कि माँ ने खाना खाने के लिए रसोई से आवाज़ लगाई। अभी चूल्हे से निकलकर थाली में पहली रोटी आई ही थी कि साथ आई गोली चलने की तीक्ष्ण आवाज़ और अपने साथ लाई एक दर्द भरा कोहराम। पठाइन चाची की वो सहमी-डरी चीख आज भी कानों में गूँज रही है जो गुहारकर कह रही थी, “अरे लई गे-लई गे, बदमशवा इनका लेहें जात हैं।” सहसा मम्मी के मुँह से निकला, “पापा कहाँ हैं, जल्दी अंदर बुलाओ।” मैं भाई-बहनों में सबसे बड़ा होने के नाते घर के मुख्य द्वार की तरफ़ भागा कि तभी सामने से पापा चेहरे पर कुछ तनाव की रेखाएँ लिए आते दिखाई दिये। इससे पहले कि हम कुछ पूछ पाते या पापा कुछ बोल पाते, चार-पाँच गोलियाँ और चलीं और शुरू हुई ललकारों की फ़ेहरिस्त। पापा बोले, “अरे कुछौ न आए, डेराएँ की कउनो बात नहिआय; आपसी रंजिश के चलत बदमशवा पठान का जहाँ तक अवस्थी जी के ट्यूबवैल के पास वाले नाले के रास्ते सुजावलपुर (पड़ोसी गाँव) कइती लेहें जात हैं, कुछ धमका-धुमकू के मारि-कूटि के छोड़ि द्याहैं।”

शायद उस समय तक स्थिति की गंभीरता का सटीक अंदाज़ा उन्हें भी न था। ख़ैर, पिता के आदेशानुसार मम्मी हम तीनों भाई-बहनों को लेकर घर के उस अंदरूनी कमरे, जिसे हम सब ‘खिड़की वाले कमरे’ के नाम से जानते थे और जिसे हम कुछ ख़ासा सुरक्षित महसूस किया करते थे, में लेकर चली गई और अंदर से दरवाज़े की कुंडी जड़ ली। हालाँकि, कमरे के ठीक बग़ल से होकर गुज़रने वाले गलियारे में लोगों की बदहवास भागदौड़ और आधी-अधूरी कानाफूसी शंका और भय के वातावरण को और भी प्रगाढ़ करती जा रही थी। तभी अचानक हमें अपने बाबा के छोटे भाइयों में से एक श्री अवधेश शुक्ल की ज़ोरदार ललकार सुनाई पड़ी और ललकार के साथ ही सुनाई दी राइफ़ल और बंदूकों की धाँय-धाँय। तभी गाँव का कोई व्यक्ति अवधेश बाबा, जो अपनी दुनाली बंदूक और गोलियों की पेटी लिए बदमाशों से दो-दो हाथ करने उनके काफ़ी नज़दीक जा पहुँचे थे, का हाथ पकड़कर जबरन उस घटनास्थल से वापस लाया; शायद, हवा के रुख़ के विपरीत, कोई वफ़ादार ही रहा होगा। फिर अचानक सब कुछ शांत हो गया और शायद शांत हो चुका था पठान की साँसों का ताना-बाना। चंद घंटों बाद पता चला कि दहशतगर्दों ने बदले की भावना से पठान को बड़ी निर्ममता से कुल्हाड़ी और फरसे से मारा था, बाद में जाते-जाते सिर पर गोली दाग दी थी। 

घटना की अगली सुबह मालूम पड़ा कि उस रात बदमाशों ने असफेरे के तीन गाँवों में कुल चार क़त्ल किए थे; सब अलग-अलग वजहों से। किन्तु, मुद्दा उस एक क़त्ल का विश्लेषण करना नहीं, अपितु विमर्श उस विश्वास और एका के क़त्ल का है जिसने गाँव वालों के स्वाभिमान को कमोबेश हमेशा के लिए समाप्त कर दिया था। अब मेरे पिता के लिए इद्दू मियाँ के यहाँ मीठी ईद के दिन सेवइयाँ और सूखे मेवे खाने जाना और ईदी देना इतना सहज न रह गया था जैसा उक्त घटना के पहले हुआ करता था; शायद कुछ कभी न भर सकने वाले घाव काफ़ी गहराई तक घर कर गए थे जो आज भी यादों में कहीं ज़िन्दा हैं। 

सख्त ज़रूरत है उन बिसराए छप्परों को मिलकर फिर से एक बार उठाने की, ‘मैरिज गार्डन’ की बेरूह शादियों से हटकर वापस किसी गाँव की बच्ची की शादी में अधिकारपूर्ण अपनी शिरकत दर्ज करवाने और सामाजिक संरक्षक होने की भूमिका निभाने की; दशहरे में फिर से एक बार एक-दूसरे का यथायोग्य अभिवादन करने, ईद की ख़ुशियाँ साथ साझा करने और धर्म और जात-पाँत से ऊपर उठकर समस्त भेद-भावों को समाप्त करते हुए होली के रंगों में डूब जाने की; ताकि, फिर से एक बार किसी ‘पठान’ को कोई दहशतगर्द क्षति न पहुँचा सके। 

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