ग्रहण

डॉ. पुनीत शुक्ल (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

शहर की आपाधापी से कुछ दूर पुराने क़ब्रिस्तान से सटी इस्पात फ़ैक्ट्री के ठीक पीछे स्थित उस दोमंज़िला पब्लिक स्कूल के मुख्य द्वार पर अन्य आम दिनों की ही भाँति आज भी दोपहर डेढ़ बजते ही गहमागहमी शुरू हो गई थी। बच्चों को घर ले जाने के लिए रिक्शे, टेम्पो, बसों की लंबी क़तार के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता एवं रिश्तेदार भी अपने-अपने दुपहिया एवं चौपहिया वाहनों की चिल्ल-पौं शुरू कर चुके थे। गार्ड भोला भी अपनी नीली टोपी सँभालता हुआ और मुँह में सीटी दबाए हाथों के इशारों से गाड़ियों को एक क़तार में खड़े होने का इशारा करते हुए किसी विषैले सर्प की तरह फुफकार रहा था, जिससे मुँह में फँसी सीटी तेज़-और-तेज़ आवाज़ में बजे जा रही थी। कुछ ही देर में स्कूल के अंदर की तरफ़ से किसी अंतरराष्ट्रीय मैच में मिलने वाली जीत की ख़ुशी की ही भाँति चेहरे पर प्रसन्नता लिए हुए एवं उल्लासपूर्ण चीत्कार सहित किसी फर्राटा दौड़ के सबसे तेज़ धावक के ही समान विद्यार्थी बाहर की ओर आते दिखाई दिए। विद्यार्थियों का यह हुजूम समंदर में आए ज्वार का पर्याय प्रतीत हो रहा था। कुछ ही देर में अपने-अपने हिस्से के बच्चों को साथ लिए स्कूल का प्रत्येक वाहन एक-एक कर आँखों से इस प्रकार ओझल हो गया जैसे तेज बारिश के उपरांत घुमड़ते बादल आसमान से ग़ायब हो जाते हैं और सब कुछ यथावत हो जाता है। 

स्कूली-वाहनों के चले जाने के उपरांत भोला ने एक ठंडी साँस लेते हुए और साथ ही सरसरी निगाह चारों ओर दौड़ाते हुए जैसे ही स्कूल का मुख्य द्वार बंद करने हेतु हाथ बढ़ाया, उससे क़रीब एक फ़र्लांग की दूरी पर सड़क की दूसरी तरफ़ कटहल के एक बिना फलदार वृक्ष के नीचे एक पीले रंग की पुरानी बजाज चेतक स्कूटर लिए एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति खड़ा दिखाई दिया। सलेटी रंग की पैंट और आधे बाज़ू की बाहर निकली हुई सलवटों भरी सफ़ेद क़मीज़ पहने एक छरहरे बदन एवं खुलते हुए गेहुएँ रंग का अजनबी व्यक्ति स्कूल के मुख्य द्वार की तरफ़ अपलक ताकता दिखलाई दिया, जिसकी आँखों की शून्यता एवं रिक्तता को देखकर और शायद कुछ महसूस करके भोला कुछ समय के लिए जस-का-तस ठहर-सा गया; किन्तु न जाने क्यों, भोला उस अजनबी से कुछ पूछने की हिम्मत न जुटा सका एवं अपनी नज़रें उधर से फिराते हुए मुख्य द्वार को एक झटके के साथ बंद कर लिया। द्वार तो बंद हो चुका था लेकिन भोला का मन अब भी उसी ओर लगा हुआ था। लगभग दस मिनट बाद स्कूटर स्टार्ट होने और फिर विपरीत दिशा की ओर जाने की आवाज़ धीरे-धीरे विरल होते हुए कहीं गुम हो गई। वह व्यक्ति जा चुका था। यह क्रम अगले कुछ दिनों तक बदस्तूर जारी रहा; बदलाव कभी-कभी सिर्फ़ लिबास में आ जाता था। फिर एक दिन आख़िर भोला के सब्र का बाँध टूट ही गया; उसे अंदर ही अंदर यह प्रश्न खाए जा रहा था कि आख़िर वह भद्र-सा दिखने वाला व्यक्ति है कौन और क्यों प्रतिदिन अपने नियत क्रम के अनुसार स्कूल के मुख्य द्वार तक आकर बिना किसी को साथ लिए वापस चला जाता है! अपनी जिज्ञासा और अधीरता को विराम देने के उद्देश्य से भोला ने बग़ल से गुज़र रहे मिश्रा जी को रोकते हुए पूछा, “क्यों मिश्रा जी, आप उस व्यक्ति को जानते हैं क्या? 

मिश्रा जी ने प्रश्न का जवाब प्रश्न से ही देते हुए कहा, “कौन, जो उस कटहल के बिना फलदार वृक्ष के नीचे पीली स्कूटर के पास खड़ा हुआ है? 

मिश्रा जी स्कूल में बड़े बाबू के पद पर कार्यरत थे जो तम्बाकू खाकर कहीं भी पीक कर देने के लिए पूरे स्कूल में मशहूर थे और आए दिन अपनी इसी हरकत की वजह से प्राचार्य की ताड़ना का सहज शिकार बन जाया करते थे, ने अपने चिर-परिचित अवधी अंदाज़ में जवाब भी स्वयं ही दिया, “अरे, कहे नहीं जनतेन, सरतियाँ जानत हन, ई तो अपने वर्मा जी आहीं, जो मुकुंदगढ़ कॉलोनी मा रहत हैं।” किन्तु यह तो भोला की शंका का समाधान न था; उसने और ज़ोर देते हुए पूछा, “अरे, वह तो ठीक है लेकिन क्या आप यह बता सकते हैं कि ये रोज़-रोज़ स्कूल क्या लेने चले आते हैं।” 

इस बार मिश्रा जी के चेहरे में ग़मगीन गंभीरता के भाव साफ़-साफ़ परिलक्षित हो रहे थे। उन्होंने अपनी मोपेड को स्कूल के मुख्य द्वार से सटाकर खड़ा किया और अपने मुँह में दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठा डालकर बड़े ही ज्यामितीय अंदाज़ में अपना मुँह टेढ़ा करते हुए खाई हुई तम्बाकू को बाहर झटका और खखारते हुए बोले, “अब का बतई भैया, सोचतै कलेजा फाटैं लागत है। बड़ा ही ख़ूबसूरत और होनहार बच्चा था इनका . . .। ‘सूरज’, हाँ, यही तो नाम था उसका; हर काम में अव्वल। बस, एक बार दसवीं में नंबर कुछ कम क्या आ गए और वर्मा जी ने बस यूँ ही कह दिया कि ‘बेटा, अगर कुछ और मेहनत कर ली होती तो और बेहतर नतीजा आ गया होता।’ बस, फिर क्या था . . . अब क्या कहें इन आजकल के बच्चों का!” तभी एकाएक पीछे से प्राचार्य महोदय की गाड़ी का हॉर्न तीव्र ध्वनि के साथ बजा। दोनों ही सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। भोला बड़ी ही कृतज्ञता के भाव के साथ भागकर मुख्य द्वार की तरफ़ गया और एक ज़ोरदार सलामी दी। गाड़ी प्राचार्य महोदय को लेकर बिना रुके स्कूल के मुख्य द्वार से बाहर निकल गई। 

गाड़ी के जाते ही भोला एक अधीर बालक के समान भागकर मिश्रा जी के पास आया और कुछ अधिक कौतूहलपूर्ण भाव के साथ बोला, “अरे मिश्रा जी, साफ़-साफ़ कहें, आख़िर हुआ क्या था?” 

मिश्रा जी ने इस बार कुछ और अधिक गंभीर मुद्रा में एक लंबी साँस लेते हुए बोलना शुरू किया, “वर्मा जी के केवल एक ही संतान थी, बेटा ‘सूरज’, बहुत चंचल, बेहद हँसमुख; किन्तु पता ही क्या कि उस दिन न जाने कौन-सा काल उसके सिर पर सवार था कि पिता के मात्र इतना कह देने भर से सूरज बस इतना सा कहकर घर से निकल गया कि मैं अभी थोड़ी-सी देर में आता हूँ और अब आपको मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं रहेगी; पिता को लगा कि किसी पड़ोस के मित्र के पास गया होगा, अभी आ जाएगा। पर भैया, ये जाना भी कोई जाना था कि फिर कभी वापस आया ही नहीं। जब काफ़ी समय बीत गया तब वर्मा जी ने किसी अनिष्ट की आशंका से इधर-उधर तलाश करना शुरू किया। कुछ ही समय में सूरज के मिलने के सभी संभावित गंतव्यों को मँझा डाला, किन्तु वह कहीं नहीं मिला। थक-हारकर घर वापस लौटते वक़्त उड़ती हुई एक ख़बर कानों में पड़ी कि अभी-अभी एक लड़का मालगाड़ी से कटकर मर गया है। वर्मा जी के तो जैसे पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई हो, उनके पैर काँपने लगे। बग़ल में खड़े एक माल ढोने वाले लड्ढे पर पसर कर बैठ गए, पैर अभी तक शरीर का बोझ उठाने के लिए तत्पर न थे। एक ही पल में बहुत सारी मानसिक अटकलें चलचित्र की ही भाँति सामने से होकर गुज़र गईं। ये स्निग्धता तब टूटी जब दो राहगीर आपस में बात करते हुए चले जा रहे थे, ‘बहुत बुरी दशा थी भाई, चेहरा तो पहचान में ही नहीं आ रहा था।’ बस फिर क्या था, वर्मा जी के क़दमों में तो मानो बिजली-सी दौड़ गई। खड़े हुए और सरपट थाने की ओर तेज क़दमों से चल पड़े। आज शायद उनका मन शरीर से आगे भागकर जाना चाह रहा था, दिल की धड़कन इतनी तेज कि पास से गुज़रता हुआ व्यक्ति भी सुन ले। माथे पर उभरी चिंता की लकीरों के बीच पसीने की बूँदें किसी उफनती नदी का रूप ले चुकी थीं। जैसे ही थाना दिखाई दिया क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद और तेज़ हो लिये। थाने पहुँचते ही वर्मा जी जैसे फट ही पड़े, ‘सूरज-सूरज, मेरा साढ़े पंद्रह साल का बेटा सूरज, छरहरा बदन, लंबा क़द, घुँघराले बाल . . .’ वर्मा जी इससे पहले कि कुछ और बोल पाते, अधिकारी ने उनके कंधे पर हाथ रखा और सामने खड़ी गाड़ी की तरफ़ ले चले। गाड़ी चाबी के घूमने के साथ ही घरघराई और थाना परिसर की टूटी चारदीवारी को पार करते हुए सड़क की मुख्य धारा से जा मिली। 

“आज का यह सफ़र वर्मा जी के लिये किसी देशांतर यात्रा से कम न था। जीप शहर की तंग गलियों से होते हुए अंततोगत्वा जिस इमारत के सामने आकर रुकी वह एक सरकारी अस्पताल का मुर्दाघर था। चूँकि वर्मा जी गाड़ी में पीछे की सीट पर बैठे हुए थे, अतः इमारत के बाहर लाल अक्षरों में लिखी इबारत को पढ़ न सके थे; किन्तु जब वह जीप से उतरकर पीछे बनी इमारत की ओर मुड़े तो एक पल के लिए ठिठक कर गाड़ी का सहारा लेते हुए रुक-से गए; फिर न जाने कौन-सा एहसास उन्हें इमारत के अंदर की तरफ़ ले चला। ये पल शायद उनके लिए वैसे ही थे जैसे एक फाँसी के सज़ायाफ़्ता मुजरिम के लिए फाँसी की मुकर्रर तारीख़ और अपनी सेल से फाँसीघर तक का सफ़र। असल में वर्मा जी को लाश की शनाख़्त के लिए बुलाया गया था। इस पूरे प्रकरण में वर्मा जी का पड़ोसी और अज़ीज़ होने के नाते मैं भी उनके साथ ही रहा। हमें एक घोर अँधेरी कोठरी में ले जाया गया, जो कि सिर्फ़ एक छोटे बल्ब की सहायता से अपने जीवंत होने का प्रमाण दे रही थी, और वह बल्ब अपने ठीक नीचे रखी ख़ून से सनी उस स्ट्रेचर की तरफ़ इशारा कर रहा था जो कुछ ही समय पहले खिलखिलाती-मुस्कुराती एक कुसुमित ज़िन्दगी के बेजान शरीर को अपने में समेटे अचल और असंवेदनशील-सी रखी हुई थी। ये उस पिता के दर्द की अंतिम इंतेहाँ थी। जैसे ही वर्मा जी मेरे सहारे से उस स्ट्रेचर की तरफ़ बढ़े, वहाँ पहले से उपस्थित कर्मचारी ने बड़े ही सहज तरीक़े से लाश पर पड़े उस ख़ून से सने कपड़े को एक झटके में हटा दिया जो वर्मा जी के जीने के उद्देश्य को अपने में समेटे पड़ा हुआ था। जैसे ही चेहरे से कपड़ा हटा, पुलिस अधिकारी ने रूमाल से अपना मुँह ढँका और उल्टी रोकने का असफल प्रयास करते हुए औ-औ करता कमरे से बाहर चला गया। सिर्फ़ कपड़ों से ही पहचान सके थे, चेहरा तो बचा ही क्या था! वर्मा जी वहीं बेहोश होकर गिर पड़े थे, बड़ी मुश्किल से सँभाल सका था।

“अरे, आठवीं कक्षा तक यहीं तो पढ़ा था। वर्मा जी ख़ुद ही तो रोज़ स्कूल छोड़ने और लेने आया करते थे; कभी-कभी सूरज की मम्मी भी आ जाया करती थीं। सूरज के साथ सब कुछ ख़त्म हो गया; नहीं ख़त्म हो सका तो वर्मा जी का यह रोज़-रोज़ स्कूल आने-जाने का सिलसिला। आज भी कहीं, दिल के किसी कोने में उन्हें सूरज के होने का भ्रम है, जो उनके लिए दुनिया के सभी सत्यों से बड़ा सत्य है, जो अब शायद वर्मा जी के साथ ही जाए।” 

भोला का चेहरा फक हो चुका था, पैर लड़खड़ाने लगे थे; वह स्थिर खड़ा न रह पा रहा था। बस खुले मुँह से बिना कुछ बोले काफ़ी देर तक मिश्रा जी की ओर देखता रहा। मिश्रा जी भी कहकर शांत हो चुके थे, मानो मन से कोई बोझ उतर गया हो; मानो अतीत में कहीं खो से गए हों। तभी स्कूटर के स्टार्ट होने की घरघराहट ने दोनों के स्वकेन्द्रीकरण को भंग कर दिया और दोनों एक साथ आवाज़ की दिशा में पलटे। वर्मा जी स्कूटर को स्टार्ट करके पहला गेयर डाल चुके थे। स्कूटर धीरे-धीरे गतिशील होने लगा था, और उसके पीछे उड़ता धूल का गुबार भोला और मिश्रा जी को कुछ यूँ प्रतीत हो रहा था जैसे आज फिर से एक बार सूरज पूरे उल्लास के साथ अपने पिता के पीछे-पीछे भाग रहा हो और मानो कह रहा हो कि, “पापा, मैं तो पुत्र हूँ, मैंने आप को बीच राह छोड़ दिया तो क्या; आप तो पिता हैं, आप मुझे साथ लिए बिना कैसे घर जा सकते हैं।” इस विचार के साथ ही भोला का गला रुँध आया था और अश्रुओं के निर्बाध प्रवाह ने उसके दोनों कपोलों को भिगोना शुरू कर दिया था। उधर मिश्रा जी ने जेब से तम्बाकू निकाली, ताली की थाप देकर फूँक मार कर साफ़ की, फाँकी और अपनी मोपेड स्टार्ट करके धोती का एक छोर हाथ में दबाकर चल दिये; शायद आँसुओं को रोकने का असफल प्रयत्न कर रहे हों। 

अब भोला भी अपना टिफ़िन उठाकर, स्कूल के मुख्य द्वार पर ताला जड़कर घर की तरफ़ चल दिया था। रास्ते में सैकड़ों विरोधाभासी भाव एक साथ उसके मस्तिष्क में कोलाहल कर रहे थे। पता ही न चला कब इन्हीं विचारों में गुम वह अपने घर आ पहुँचा। जैसे ही नज़र उठाई, उसका सात वर्ष का बेटा बाहर चबूतरे पर बैठा पढ़ता दिखलाई दिया। भोला को देखकर उसके चेहरे में एक अनमोल मुस्कान दौड़ गयी और दौड़ गए उसके नन्हे क़दम अपने पापा की बाँहों का झूला झूलने के लिए। भोला ने भी अपने प्यारे बेटे रामू को कसकर अपनी बाँहों में भर लिया और सिर पर हाथ फेरते हुए भर्राए गले से बोला, “बेटा जीवन में जो भी करना चाहे, जैसे भी करना चाहे, अवश्य करना; ख़ूब तरक़्क़ी करना, आसमान में उगे सूरज की तरह चमकते रहना; किन्तु चाहे जो हो जाए, कभी ‘सूरज’ की तरह ढलना मत, कभी मत ढलना मेरे लाल, कभी मत ढलना। फिर वह रामू को गोद से उतारकर, सिर पर हाथ फेरता हुआ बिना कुछ बोले घर के अंदर चला गया, टिफ़िन को लकड़ी की एक पुरानी जर्जर टेबल पर रखा और अपनी चारपाई पर जा पसरा, शायद एकांत की तलाश में . . . 

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  • “पापा, मैं तो बेटा हूँ, मैंने आप को बीच राह छोड़ दिया तो क्या; आप तो पिता हैं, आप मुझे साथ लिए बिना कैसे घर जा सकते हैं?” -अत्यंत मार्मिक पंक्ति.

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