जीवन-पथ

15-12-2023

जीवन-पथ

डॉ. पुनीत शुक्ल (अंक: 243, दिसंबर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

इठलाती-इतराती सी ज़िन्दगी, 
बचपन को दुलराती सी ज़िन्दगी। 
माँ की उँगली मुट्ठी में दबाए, 
मुस्कुराती सी ज़िन्दगी। 
चिड़ियों की चहचहाट और पशुओं की रंभाहट में, 
ख़ुद को तराशती सी ज़िन्दगी। 
बड़े क़रीने से घुटनों चलते पैरों तक आने तक का सफ़र, 
किलकारी मारते पार लगाती सी ज़िन्दगी। 
हँसते-रोते-पैर पटकते, मुड़कर माँ को बार-बार तकते, 
अनमने, विद्यालय को जाती सी ज़िन्दगी। 
क-ख-ग-घ-ए-बी-सी-डी का अर्थ समझते, इमला लिखते, 
ज़िन्दगी की गणित का दरवाज़ा खटखटाती सी ज़िन्दगी। 
गुड्डा-गुड़िया, पोषम्पा और खेल-कबड्डी से, 
अपनों में अपनी जगह बनाती सी ज़िन्दगी। 
दादा-दादी, नाना-नानी की अमर कथाओं में, 
ख़ुद का प्रतिबिम्ब तलाशती सी ज़िन्दगी। 
 
यौवन की पहली सीढ़ी चढ़ते, 
प्यार की पहली पाती पढ़ते, 
ख़ुद ही ख़ुद से बातें करते 
नज़र आती सी ज़िन्दगी। 
उस शर्मीली मुस्कान की ख़ातिर, 
अपना सर्वस्व लुटाती नज़र आती सी ज़िन्दगी। 
स्कूल से कॉलेज की पगडंडी पर कभी फिसलती-कभी बहकती, 
ख़ुद को ख़ुद ही सँवारती-सँभालती सी ज़िन्दगी। 
जीवन की इस जद्दोजेहद में, कभी नमीं में-कभी कमी में, 
फ़ीकी-खोखली मुस्कान मुस्कुराती सी ज़िन्दगी। 
बच्चों की ख़्वाहिशोंकी ख़ातिर, कोट की रफ़ू और जूते की उधड़न 
छिपाती सी ज़िन्दगी। 
बेटी का ब्याह रचाने ख़ातिर, किसी महाजन की नाउम्मीद चौखट पर, 
ख़ुद को गिरवी रखकर आती सी ज़िन्दगी। 
अपनों की ख़ुशियाँ खरीदते-खरीदते, झुर्री भरे चेहरे और झुकी कमर का 
आलिंगन करती नज़र आती सी ज़िन्दगी। 
 
बच्चों की घुड़की और बिस्तर की लाचारी के पाशोपेश में उलझी, 
अपना दर्द छिपाती सी ज़िन्दगी। 
लंबी थकान मिटाने को और कभी न वापस आने को, 
चिर-निद्रा में जाती सी ज़िन्दगी। 
इठलाती-इतराती सी ज़िन्दगी, चिर-निद्रा में जाती सी ज़िन्दगी।

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