ख़्वाहिश . . .
डॉ. पुनीत शुक्ल
तेरे रहम की दरकार में
कुछ घाव ज़ेहन पर भी लिए
तेरी मदमस्त आँखों से
दो घूँट पीने की ख़्वाहिश लिए
हज़ारों अश्क तेरे दीदार की आरज़ू में पिये
रहम कर, मार दे, फ़ना कर दे मुझे
जीने का दर्द हमसफ़र
मौत से भी बदतर है
इतनी बेरहम न बन,
न अब और जीने की सज़ा दे मुझे
आशिक़ हूँ, मुरीद हूँ तेरे दीदार-ए-हुस्न का
अपनी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव कर, इक बसर दे मुझे
फ़क़ीरी जब-जब भी मेरे इश्क़ की
तेरे चेहरे से बयाँ होगी
ख़ुमारी तब-तब मेरे ख़्वाबों की,
तेरी इबादत के तौर पर अयां होगी
रहगुज़र बनकर चलता रहूँगा
मौत के बाद भी तेरे
आशना बनकर के साथ
चलते रहने का हौसला दे मुझे
मेरे दर्द-ए-दिल का जंगजू बन जा और
अपनी माँग का आफ़ताब बना ले मुझे