एक झोंपड़ा अपना भी हो . . .
डॉ. पुनीत शुक्ल
महलों की इस चकाचौंध में, एक झोंपड़ा अपना भी हो
प्रेम टपकता हो छप्पर से, मुख्य द्वार पर अपनापन हो
अर्थ विराजे शब्दों में, अरु मन से उपजे अभिनंदन पद
बाह्य सुसज्जा भले हो धूमिल, अन्तर्मन मकरंद भरा हो
महलों की इस चकाचौंध में, एक झोंपड़ा अपना भी हो
बत्तीस कमरे बावन खिड़की, कँगूरे हों भले सुसज्जित
किन्तु नियति ने रखे कबूतर, इनको चमन बनाने के हित
नहीं हैं बसते मनुज यहाँ पर, नहीं चहकती किलकारी है
नहीं सुवासित होते उपवन, नहीं बरसती जीवन सरगम
महलों की इस चकाचौंध में, एक झोंपड़ा अपना भी हो
नहीं चाहता धन का संबल, मैं चाहूँ बस मन का समतल
नहीं चाहता बँटवारा मैं, पुरखों की इस ख़्वाबगाह का
नहीं चाहिए मुझे कभी-भी क़त्ल किए वो स्वर्णिम सपने
जो देखूँ मैं स्वार्थपरक हो फीकी चमक-दमक को बुनने
महलों की इस चकाचौंध में, एक झोंपड़ा अपना भी हो
मुझे चाहिए आम की गुठली, भरी बाल्टी गीला गमछा
मुझे चाहिए बूढ़ी दादी, चाचा चाची भाई भतीजे
नहीं चाहिए मुझे और अब खड़ी दीवारें चुभती फाँसें
बंद हो तुरपाई रिश्तों की, भाव शून्य कोई मन न रहे अब
महलों की इस चकाचौंध में, एक झोंपड़ा अपना भी हो