ओ अपरिचित ! आओ हम तुम
स्व. राकेश खण्डेलवालवर्त्तिका के प्राण के उत्सर्ग की पहली कहानी
ज्योति की अँगड़ाइयों में दीप की ढलती जवानी
मैं अगर गाऊँ नहीं तो कौन इनको शब्द देगा
और फिर दोहराई जायेगी वही गाथा पुरानी
तो अपरिचित ! आओ हम तुम शब्द से परिचय बढ़ायें
कुछ कहो तुम, कुछ कहूँ मैं, साथ मिल कर गीत गायें
अर्चनी के मंत्र में जो गूँजता है वह प्रथम स्वर
साधना के केन्द्र के आह्वान का जो प्रथम अक्षर
जोड़ता जो एक धागा है, उपासक से उपासित
प्रीत की आराधना का एक जो है चन्द्रशेखर
इन सभी की बाँह को थामे हुए आगे बढ़ें हम
जा रही हैं जो गगन तक, सीढ़ियों पर पग उठायें
यज्ञ में संकल्प के जल से भरी वह एक आंजुर
देवता के पाँव चूमे फूल की जो एक पांखुर
नॄत्य में देवांगना के झनझनाता एक घुँघरू
रास को आवाज़ देती कुंज की वह एक बांसुर
कर गये प्रारंभ जो आधार की रख कर शिलायें
आओ उन पर हम नये प्रासाद मिल जुल कर बनायें
एक को आवाज़ दें हम, दूसरे को बीन लायें
शब्द यों क्रमबद्ध करके होंठ पर अपने सजायें
तार की आलोड़ना में मुस्कुराती सरगमों को
रागिनी में हम पिरोकर, स्वर सँवारें गुनगुनायें
हैं क्षितिज के पार जो संभावनायें चीन्ह लें हम
और उनसे ज्योर्तिमय कर लें सभी अपनी दिशायें
ओ अपरिचित आओ हम तुम शब्द से परिचय बढ़ायें
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