अपने सिरहाने के पत्तों को हवा देता रहा
स्व. राकेश खण्डेलवाल
अपने सिरहाने के पत्तों को हवा देता रहा
अपनी उरियानी को शोलों की कबा देता रहा
आयेंगी इक दिन बहारें, पाल कर ऐसा भरम
जलजलों को अपने घर का रास्ता देता रहा
भीड़ में बिछुड़ा हुआ फिर भीड़ में मिल जायेगा
नाउम्मीदी के शहर में भी सदा देता रहा
जो मेरी अँगनाई से नज़रें बचा कर मुड़ गये
मैं उन्हीं अब्रों को सावन की दुआ देता रहा
गुम न हो जाये मेरी पहचान इस सैलाब में
शेर लिख कर अपने होने का पता देता रहा
दौर में ख़ामोशियों के चुप न हो जाये कहीं
मैं फ़न-ए-इज़हार को रंगे-नवा देता रहा
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