आस्था घुल रही आज विश्वास में
स्व. राकेश खण्डेलवाल
ताल में ज्यों कमल पत्र पर से फिसल
ओस की बूँद लहरें जगाने लगी
नाम तेरे ने मेरे छुए जो अधर
सरगमें बज उठी हैं मेरी साँस में
बज रही आरती में जुड़ा शब्द हर
इक जुड़ा है हुआ एक ही नाम से
रंग भरती रही भोर तक है निशा
एक ही चित्र में सुरमई शाम से
एक ही गंध को भर के भुजपाश में
संदली ये हवा लेती अँगड़ाइयाँ
एक नूपुर की झंकार को थाम कर
गुनगुनाती रही रोज़ अँगनाइयाँ
एक आकार वह, स्वप्न से मूर्त हो
आ गया है अचानक मेरे पास में
बादलों के कहारों के कांधे चढ़ी
आई भूली हुई याद की पालकी
रूप की धूप में जगमगाती हुई
एक बिंदिया चमकती हुई भाल की
झीना परदा उड़ा एक पल के लिये
जागने लग पड़ी है मधुर भावना
प्रीत लिखने लगी है हृदय पर नये
एक अध्याय की आज प्रस्तावना
भाव के निर्झरों से उमड़ती हुई
आस्था घुल रही आज विश्वास में
रश्मियों से गुँथी गंध की वेणियाँ
इन्द्रधनुषी रँगे पंख मधुकीट के
कुन्तलों में मचलती हवा पूरबा
स्वप्न साकार करती है मन ढीठ के
पुष्पराजों की अँगड़ाईयों से अधर
जब खुले तो सुधा की बही जाह्नवी
हो गईं एक पल में तिरोहित सभी
जो सुलगती हुई प्राण में प्यास थी
चित्र जब से तेरे, पाटलों पर बने
रात दिन ढल गये, मेरे, मधुमास में
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