आज अनुभूतियाँ शब्द बनने लगीं
स्व. राकेश खण्डेलवाल
आँख की वादियों में फिसल कह गये
बात मन की, दो आँसू लरजते हुए
शब्द थे लड़खड़ाते हुए रह गये
होंठ की पपड़ियों पर अटकते हुए
साथ, तय कर लिया सुर ने देना नहीं
इसलिये गूँज पाई नहीं सिसकियाँ
कुछ लगा है गले में रुका रह गया
फिर भी आ न सकीं एक दो हिचकियाँ
जो न चाहा कहें, वो उजागर हुआ
सारी अनुभूतियाँ शब्द बनने लगीं
मन की संदूकची में रखे थे हुए
भाव सहसा निकल इस तरह से बहे
कोई भाषा की उँगली को पकड़े बिना
बोल बिन, थरथराते अधर ने कहे
एक पल में समाहित सभी कुछ हुआ
नभ का विस्तार, सारी चराचर धरा
एक ही अर्थ में सब निहित हो गया
शून्य की मुट्ठियाँ, थाल मोती भरा
स्वप्न सी आँख में पल रही हर घड़ी
आज बीता हुआ वक़्त बनने लगी
पंथ में जो उठे थे क़दम वे सभी
लौट कर भोर की आये दहलीज़ पर
नीड़ पाथेय की पोटली को उठा
ले गया था सहज आँख को मींच कर
राह थक सो गयी ओढ़ कर चादरें
और गंतव्य ने अर्थ बदले सभी
जो अभी है, नहीं वो कभी था हुआ
और शायद न हो पाये आगे कभी
भोर आते हुए सूर्य से हो विमुख
साँझ बनती हुई आज ढलने लगी
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