न घर के रहे, न घाट के हुए
जयचन्द प्रजापति ‘जय’
आख़िर मिल ही गया, नोबेल जिसको मिलना था। हिंदुस्तान के महान साहित्यकारों लड़ो और जी भरके लड़ो। जलन ईर्ष्या ख़ूब रख रहे थे। अपनी रचना को लेकर मुँह मियाँ मिट्ठू ख़ूब बन रहे थे। बड़ी-बड़ी तारीफ़ की टिप्पणियाँ कोई महिला पाठक कर देती थी तो महान साहित्यकार ख़ुद को मुंशी प्रेमचन्द मान लेते थे।
किसी अख़बार में कोई रचना छप क्या गयी जैसे पूरी दुनिया में उनकी साहित्य की तूती बोल रही है। महान लोग कहते थे नरम बने रहो, दिखावटी तेल, काजल न लगाओ पर मानते ही नहीं, लिख लो और वरिष्ठ साहित्यकार। दो चार समीक्षकों को बुला कर अपनी तारीफ़ ख़ूब फ़र्ज़ी करवाई है। दूर तक योग्यता दिखाओगे तब आँख खुलेगी। कितना दम है तुम्हारे साहित्य में।
मेंढक की तरह कुयें को ही सारी दुनिया मानकर बैठ गये हो। समुद्र की सैर करोगे तब साहित्य की अंतरंंग दुनिया की नब्ज़ पकड़ सकते हो। जब प्रेम, परोपकार, दुनिया के क्रूर सच को लिखकर साहित्य का आईना दिखाओगे तब साहित्य का मर्म दुनिया को समझा सकने में कामयाब हो सकते हो।
किसी महिला पाठक ने उनकी रचना पर तारीफ़ कर दी तो पूरा दिन उसी के ख़्यालों में बीत गया। कितनी सुंदर होगी। मेरी रचना पढ़कर उसके अंदर ज़रूर ज्वार-भाटा जैसा उद्गार उठा होगा। वह सोचती होगी किसी महान कवि की कल्पनाओं की क़लम से इस महान कविता का जन्म हुआ है। वह महिला पाठक ज़रूर अपने मन में मुझे बैठा रखी होगी।
अब वे साहित्यकार साहब पूरी दुनिया के वे सबसे क़ाबिल योग्य साहित्यकार हो गये हैं। संपादक कोई टिप्पणी सकारात्मक कर दे तो हफ़्तों फ़ेसबुक पर लीन हो जाते हैं।
तब से वे अपने को क़ाबिल स्वयं को मानने लगे। वे अब नोबेल के लिये एकदम फ़िट हैं। इन्हीं ख़्यालों में डुबो दी नइया, आपस की लड़ाई में सब लूट गये। सब बर्बाद करके आ गये। ले गया विदेशी। मलो हाथ। व्यर्थ की तकरार में न घर के रहे, न घाट के हुए।