मेरे गाँव के घर का द्वार

30-12-2014

मेरे गाँव के घर का द्वार

डॉ. अमिता शर्मा

मेरे गाँव के घर में एक छोटा द्वार था
जिससे आ जाया करते थे पाहुने
नाते के रिश्ते के जाने अनजान
घर के गाँव के और मेहमान
 
उसी दरवाज़े से आते थे गाँव के बच्चे
लस्सी लेने
ख़बरें देने
कि किसकी गाय ने
भूरा या कि काला जाया है
और कि रतिया की ससुराल से कौन आया है
ख़बर ये भी कि रतिया की रसोई में धुआँ है
पकवानों की बारी है
रतिया के ससुराल जाने की तैयारी है
  
इसी द्वार से आई थी माँ नई दुलहन बन कर
सज-धज कर सपने चुन कर
हल्दी लगी हथेली दीवार भर छापी थी
गज़ भर भर आँचल से देहरी नापी थी
इसी द्वार पर माँ ने मेंहदी रचे पाँवों
अनाज भरा कलसा पलटाया था
गाँव घर की सुहागिनों ने सुर से
सुख सौभाग्य का गीत गाया था
माँ घर की बहू हो गयी थी
दुनिया बसाने में सम्पूर्ण खो गयी थी . . . 
 
सूरज जागने से पहले किरण हो जाती
सूरज के सोते ही कुंडा हो जाती थी
उसके बाद घर अपना हो जाता था
माँ जगती थी घर सो जाता था
 
समय चलता रहा रूप बदलता रहा
पर माँ माँ रही, नहीं बदली
द्वार भी न बदला फिर दिन दोहराया
माँ ने फिर वैसा ही तोरण सजाया
इसी द्वार से किया बहू का गृह-प्रवेश
निज का और द्वार का हासिल निवेश
 
हर दिन होती दहलीज़ रोली
हर दिन सजती छोटी रंगोली
दहलीज़ पर कोई खड़ा न होता
बाहर होता या भीतर होता
द्वार गर्वित रहा द्वार चर्चित रहा . . . 
 
एक दिन
माँ नहीं रही
द्वार ने देखा माँ को लिए जाते
माँ ने न देखा द्वार अश्रु बहाते
 
अब द्वार न रहा वो द्वार
हो गया लोहे का बड़ा गेट
जिसके साथ ऊँघता रहता है एक चौकस कुत्ता। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें