मन को गुदगुदातीं, जगातीं शालीन व्यंग्य रचनाएँ

15-09-2022

मन को गुदगुदातीं, जगातीं शालीन व्यंग्य रचनाएँ

डॉ. अखिलेश पालरिया (अंक: 213, सितम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

पुस्तक: नाक का सवाल
व्यंग्यकार: बसंती पंवार
प्रकाशक: साहित्यसागर प्रकाशन, जयपुर
प्रकाशन: 2019
पृष्ठ: 144
मूल्य: 225

जोधपुर निवासी राजस्थानी व हिन्दी की वरिष्ठ साहित्यकार तथा राजस्थानी की पहली महिला उपन्यासकार बसन्ती पँवार के व्यंग्य-संग्रह में 43 व्यंग्य संगृहीत हैं। 

कहानी, कविता, लघुकथा की तरह व्यंग्य भी एक स्वतंत्र विधा है जिसे पढ़कर पाठकों के होंठों पर मुस्कान तैर जाती है लेकिन हक़ीक़त में व्यंग्यकार रचना में हास्यरस पैदा करके भी हास्य के पीछे छिपी पीड़ा को ही अभिव्यक्त करना चाहता है जो साफ़-साफ़ समाज की विकृति की ओर संकेत करती है। 

व्यंग्यकार को हम ‘शब्दों का शल्य चिकित्सक’ भी कह सकते हैं जो अपनी पैनी दृष्टि से समाज में रहने वाले दूषित मनःस्थिति वालों का पता लगा कर अपने तीखे धारदार शब्दों रूपी ‘स्कैल्पल’ से उसकी शल्य चिकित्सा करते हैं और शरीर से उस अवांछित ट्यूमर आदि को निकाल बाहर करते हैं ताकि समाज रूपी शरीर को नीरोग रख सकें। कहना होगा कि बसन्ती पँवार जी एक कुशल सर्जन की भूमिका में इस पुस्तक द्वारा 43 सर्जरी करने में सफल हुई हैं। 

इन ऑपरेशन्स के माध्यम से लेखिका ने समाज में व्याप्त विभिन्न विषमताओं को अच्छी तरह परख कर पाठकों को हँसाया-गुदगुदाया, साथ ही सीख भी दी है ताकि विषमताओं के विरुद्ध समाज के नवयुवकों को आगाह किया जा सके। कुछ विषमताएँ तो समाज में विकराल रूप में उपस्थित हैं जैसे, भ्रष्टाचार। 

बसन्ती जी के व्यंग्य-विषय विविधताओं से भरे हुए हैं। वस्तुतः जहाँ कहीं उन्होंने विकृतियाँ देखीं, वहीं अपनी लेखनी से व्यंग्य को उजागर करने में संकोच नहीं किया। 

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य—‘नाक का सवाल’ का अंश द्रष्टव्य है:

मेरी एक फ़्रेंड एक दिन अचानक आ धमकी और मुझसे बोली, “सुन, तू मेरी नाक रख ले . . .”

मैंने उससे कहा, “नाक रख लूँ! मैं क्या करूँगी, तेरी नाक रखकर, मेरे पास तो वैसे भी मेरी नाक है। मुझे नहीं चाहिए दो-दो नाक . . .”
“अरे, मेरा मतलब है, मेरी नाक . . .”
“देख, नाक कोई चीज़ तो है नहीं जिसे जब चाहे किसी को दे दी जाए। अगर मैं तेरी नाक करूँगी तो उसे काटना पड़ेगा और तू . . . तू नकटी . . . हो जाएगी। फिर तेरी नाक भी मेरे कोई काम आएगी नहीं। अगर मैं तेरी नाक को अपनी नाक पर सेट करवाती हूँ तो उसका ख़र्चा . . . फिर मैं दो-दो नाक वाली, दुनिया में एक अजूबा नहीं बन जाऊँगी?” 
“सुन तो सही, ये मेरी इज़्ज़त का सवाल है . . .”
“अरे! तू तो कमाल करती है। क्या तू शूर्पणखा है और मैं लक्ष्मण, जो तेरे नाक-कान काटूँ और फिर जिसे तू इज़्ज़त का सवाल बनाए। नाक और इज़्ज़त का क्या सम्बन्ध? नाक ले लूँ . . . ये कोई आसान काम है? नहीं, नहीं . . . मैं कोई नई रामायण की रचना नहीं करना चाहती, समझी ना।”
“तू मेरी बात समझ, मुझे कुछ रुपये उधार चाहिए, नहीं तो मेरी नाक . . .”
“ओह! तो यूँ बोल ना कि तू नाक मेरे पास गिरवी रख रही है। हद कर दी, ये भी कोई गिरवी रखने की चीज़ है? फिर ये मेरे किस काम की, बेचने पर फूटी कौड़ी भी मिलने वाली नहीं। रख भी लूँ तो क्या पता, तू लेने आएगी भी कि नहीं। ये पड़ी-पड़ी सूख भी जाएगी, छी . . . छी . . .”
और हमने नाक रखने से साफ़ मना कर दिया। इतने समय तक जो मेरी नाक का बाल थी, उसने नाक फुला ली। रिश्ता ख़त्म . . . 
हम सभी जानते हैं, किसी को उधार देकर उससे वापस लेना भी नाक का सवाल है। एक-एक पाई को नाक से निकलवाना, लोहे के चने चबाने जैसा है। (पृष्ठ: 138-39) 

लेखिका की पीड़ा पाॅलीथीन से लेकर भ्रष्टाचार तक गहरी है। उसमें भी उन्होंने हास्य का पुट परोस दिया है:

हम सोचते हैं कि पाॅलीथीन से पहले इस भ्रष्टाचार का भी कुछ किया जाना चाहिए क्योंकि कहा जाता है कि पाॅलीथीन को नष्ट होने में लगभग 461 वर्ष लगते हैं परन्तु भ्रष्टाचार के ख़त्म होने की तो उम्मीद ही नष्ट हो चुकी है। 
हम देखते हैं कि सबसे अधिक पाॅलीथीन का उपयोग, लोग-बाग सब्ज़ी लाने के लिए करते हैं। इसलिए हमारे विचार से कोशिश यह हो कि सब्ज़ियों के दाम इतने बढ़ा दिए जाएँ कि लोग-बाग सब्ज़ी हाथ में या जेब में रखकर ला सकें। (पृष्ठ: 135) 

लेखिका बसन्ती पँवार जी की पीड़ा निम्न पंक्तियों में भी घनीभूत हो उठी है:

लोगों द्वारा घर के बाहर चौतरी बनाने के नाम पर अतिक्रमण, सड़कों के किनारे ढाबे-दुकानें लगाकर अतिक्रमण, नेताओं द्वारा वोट हड़पना, कुर्सियाँ हथियाना; क़स्बा, गाँव, ढाणियाँ, दफ़्तर, नेताओं के दिलों में, अफ़सरों की जेबों में, बाबू के पैन में, चपरासी की टोपी में—क्या हर जगह तुम्हें हड़प संस्कृति का बोलबाला नज़र नहीं आता? (पृष्ठ: 72) 

लेखिका ने नैतिकता, स्वार्थपूर्ति, भाई-भतीजावाद, गिरते बदनसीब रिश्तों, मानवीय मूल्यों के क्षरण आदि विविध विषयों को अपनी लेखनी की नोक पर रखा है अतः संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय बन पड़ा है। 
पुस्तक का आवरण पृष्ठ, गैट-अप आकर्षक है। प्रूफ़ की त्रुटियाँ भी नहीं हैं। 

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