भावुक मन की रोचक, संस्कारी कहानियाँ
डॉ. अखिलेश पालरिया
कहानी संग्रह: अस्मिता
कहानीकार: नीलम सपना शर्मा
प्रकाशक: साहित्यागार, जयपुर
प्रकाशन वर्ष: 2021
पृष्ठ: 192
मूल्य: ₹300
साहित्याचार्य, शिक्षा शास्त्री, शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त जयपुर निवासी नीलम सपना शर्मा की अब तक प्रकाशित 5 पुस्तकों में तृतीय कहानी संग्रह ’अस्मिता' में संगृहीत 14 कहानियों में कहने को बहुत कुछ है जो भावुक मन से क़लमबद्ध होकर पाठकों को संवेदनाओं के विविध रंगों से न केवल रूबरू कराती हैं बल्कि अमिट स्याही से मन-प्राण को भिगो कर विचारमग्न करने में भी सक्षम हैं।
लेखिका की अनुभव दृष्टि व्यापक है जो कहानियों को रचने के दौरान मन में उपजे भावों को सिलसिलेवार गूँथ कर रोचकता, यथार्थवादी सोच व कल्पना की उड़ानों के सहारे मनभावन कहानियाँ गढ़ देती हैं जिनका असर देर तक बना रहता है। इन सबमें पाठकों का ज़ायक़ा कभी ख़राब नहीं होता बल्कि वे अन्त तक पढ़ने को विवश हो जाते हैं।
इस दृष्टि से पुस्तक की भूमिका में कुशल समीक्षक श्री सतीश व्यास 'आस' की निम्न पंक्तियाँ 'अस्मिता' की कहानियों की बहुत ही सटीक व्याख्या कर देती हैं:
“जिनके पास संवेदना का चुंबक है वे नीलम सपना जी की तरह बटोर लेते हैं, इन छोटे-छोटे लम्हों के बीच घट रहे क़िस्सों को। क़िस्से वेदना से शुरू होते हैं और प्रयासों और सुझावों से समाधान की ओर बढ़कर कहानी के रूप में ढलते जाते हैं। नीलम सपना जी की क़लम आँसुओं से भीगी क़लम है जिसने पहले-पहल वह सब दर्द माँड़ा है जिसमें अपनी आँखों के खारेपन की पीड़ा है। अब इनकी क़लम दूसरों की आँखों से झरते आँसुओं को अपनी क़लम में भरने लगी है।” (पृष्ठ: 13)
इन कहानियों में संवेदनाएँ हैं, बीजारोपण के बाद की प्रस्फुटित वांछित पल्लवित पौध के साथ उग आई अवांछित खरपतवार भी है जिसे पल्लवित होने से रोकने के लिए लेखिका अपनी क़लम को खुरपी की तरह काम में लेती हैं और खरपतवार का काम तमाम कर देती हैं।
सभी कहानियों में संवादों की भरमार है जो इन्हें विशिष्ट बनाती हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि कहानीकार ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति के ज़रिए कुछ विलक्षण पात्र अपनी कहानियों में गढ़े हैं जैसे, कहानी—'अपराजिता' में नायिका का ऑटो चालक के साथ लेखिका भी होना विस्मित करता है।
'अस्मिता' की नायिका अस्मिता, 'मदर्स डे' की नीला, 'निराश्रिता' की रश्मि, 'पुनर्मिलन' का देवेश, 'अपराजिता' की रोशनी या कोई और; लगभग सभी कहानियाँ आदर्शोन्मुखी यथार्थ की ओर बढ़ती दिखती हैं। 'दिल का बोझ' में भी रिश्तों की वास्तविक सच्चाई के ज़रिए लड़कियों को आगाह भी किया गया है।
नीलम सपना शर्मा जी की भाषा सरल व सुगठित है अतः आम पाठक वर्ग की पहुँच के भीतर है तथा उन्हें ख़ासा प्रभावित भी करती है।
कहानियाँ लंबी होने पर भी रोचक व मनमोहक बन पड़ी हैं तथा नई पीढ़ी को संस्कारित करने में अपना प्रभाव छोड़ती हैं।
संवाद बेहद असरकारक हैं। संवादों की एक बानगी देखिए:
“और बताओ, कैसी हो? तुम में तो कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया। भई, क्या बात है? तुमने उम्र को वहीं रोक रखा है। हमें भी तो इसका राज़ बताओ,” मैंने चुटकी ली।
सुनकर अस्मिता लजा गई।
बोली, “दीदी, आपकी मज़ाक करने की आदत गई नहीं अभी तक। अरे भई! वो आदत ही क्या, जो छूट जाए।”
“खैर, ये बताओ कितने बच्चे हैं तुम्हारे?”
“तीन हैं-दो लड़कियाँ और एक बेटा। बड़ी लड़की ने बी.टेक. कर लिया, छोटी डाॅक्टरी की पढ़ाई कर रही है और बेटा अभी बारहवीं का पर्चा दे रहा है।”
मुझे ’लड़की’ और ’बेटा!’ संबोधन से कुछ अटपटा सा लग रहा था
मैंने टोक ही दिया, “ये क्या बेटी को लड़कियाँ और बेटे को बेटा सम्बोधन कर रही हो! आख़िर छोटे क़स्बे में रहकर तुम्हारी सोच भी छोटी ही रही।”
इस बात पर वह सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह गई। (पृष्ठ: 18)
लेकिन उक्त संवादों को यूँ न लिख कर केवल एक पैरा में ठूँस दिया गया है जबकि संवाद की समाप्ति के बाद अगला संवाद अगली पंक्ति से आरम्भ होना चाहिए। संवाद भी बिना इन्वर्टेड काॅमा के हैं। ऐसा विशेषकर शुरूआती कहानियों में हुआ है। लेकिन ऐसा करने से पाठक को बात समझने में कहानी का प्रवाह प्रभावित होता है। प्रथम पाँच कहानियों में बड़े-बड़े पैरा बन गए हैं तथा प्रत्येक पैरा में कई-कई संवाद इसी तरह समायोजित हैं। इसके बाद छठी से बारहवीं कहानी में यह ग़लती सुधार दी गई है लेकिन सभी संवाद इन्वर्टेड काॅमा रहित हैं। अंतिम दो कहानियों में दोनों त्रुटियाँ सुधार दी गई हैं।
पृष्ठ 58 पर निम्न पंक्ति—“उसने अपनी जाँचें करवाईं तो पता चला कि ब्लड आर.एच. नेगेटिव है। ये तो गठिया के ही लक्षण थे।” बिना तथ्यों की पड़ताल किए लिख दी गई हैं जिससे पाठकों तक मेडिकल से जुड़ा ग़लत व भ्रामक संदेश पहुँचता है।
192 पृष्ठीय पुस्तक का गेटअप सुन्दर व कवर पृष्ठ आकर्षक है।
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