दार्शनिक नारी मन की जीवन्त कहानियाँ

15-06-2022

दार्शनिक नारी मन की जीवन्त कहानियाँ

डॉ. अखिलेश पालरिया (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)


कहानी-संग्रह: ‘पंख: जिनसे कोई उड़ा था’
कथाकार: डॉ. रूपा पारीक
प्रकाशक: पार्वती प्रकाशन, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष: 2021
पृष्ठ: 120
मूल्य: ₹ 250

एम.एससी. (भौतिक शास्त्र), एम.एड., पीएच.डी. कथाकार, कवयित्री, समीक्षक डॉ. रूपा पारीक भौतिकी में अध्यापन के बाद शैक्षिक अनुसंधान में एवं परियोजना अधिकारी के बतौर कार्य करते हुए साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपना परचम फहराने में सफल रही हैं। 

कहानी संग्रह—‘पंख: जिनसे कोई उड़ा था’ शीर्षक पर दृष्टि पड़ते ही पाठक उक्त पुस्तक के सम्मोहन में बँध सा जाता है। संग्रह की 15 कहानियों से गुज़रते हुए पाठक दार्शनिकता में डूबे नारी मन को पढ़ते हुए सुखद अनुभूतियों से आत्मसात होता है जहाँ वह लेखिका द्वारा उठाये अनेक प्रश्नों से कभी व्याकुल हो उठता है तो कभी आनन्द की असीम धारा के साथ बहता चला जाता है। ऐसे ही प्रश्नों में से एक बानगी देखिए:

“शोषण की बात को नारी से जोड़ना ज़रूरी तो नहीं। कौन है शोषित? जो कहीं किसी दृष्टि से कमज़ोर पड़ता है। शक्ति, सम्पत्ति, सत्ता के असंतुलन से शोषण का प्रारंभ होता है। स्त्री को शोषित और पुरुष को अहंकारी व शक्ति का केन्द्र बता देने से बात पूरी नहीं हो जाती। वास्तव में स्त्री का स्त्री द्वारा, पुरुष का पुरुष द्वारा, स्त्री का पुरुष द्वारा और पुरुष का स्त्री द्वारा भी शोषण होता है। यहाँ रिश्ता नौकर-मालिक, सास-बहू, पिता-पुत्र, घर के कमाऊ सदस्य और आश्रित सदस्य आदि में से कोई भी हो सकता है। जब कभी एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य मानकर उसे उसकी इच्छा से जीने का हक़ नहीं देता है, वही शोषण है।” 
 (लेखकीय अपनी बात: पृ. 6) 

लेखिका की शब्द शक्ति के साथ कल्पना शक्ति व तर्क शक्ति भी सुदृढ़ है। साथ ही हर बात के मर्म तक पहुँचने की सूक्ष्म दृष्टि भी है। 

डॉ. रूपा जी की कहानियों के केन्द्र में रिश्तों का गहन जीवन दर्शन है जो उन्हें दार्शनिक अंदाज़ में शब्दों का भावों के साथ मिलकर बनी सशक्त अभिव्यक्ति की लेखिका बनाता है और पाठकों को उनकी लेखनी का क़ायल भी। 

इस संदर्भ में निम्न कथोपकथन द्रष्टव्य हैं:

“क्या ईमानदारी से काम करने से बदतमीज़ी से बात करने का हक़ मिल जाता है?” (पृ. 10) 

“लानत है इस ओहदे पर जिसने मुझे अपने ढंग से जीने-उठने-बैठने से रोक दिया है।”  (पृ. 20) 

“सहो-सहो, कुछ मत कहो, रोओ नहीं। यह मूलमंत्र वह भूली नहीं है। लेकिन यह 'सहना' तो पीड़ा को सहने के लिए है, अत्याचार को नहीं।” (पृ. 57) 

“औरत उदास भी अपने मन से नहीं हो सकती, यह भी उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है।” (पृ. 66) 

“एक ही केन्द्र से जुड़े वृत्तों की परिधि समानान्तर है। क्या उन पर अलग-अलग ही चलना है या कि थोड़े समय के लिए साथ चलती रेखाएँ जिनके केन्द्र भिन्न-भिन्न हैं। शायद उसे ऐसे वृत्त की तलाश है जिसकी परिधि और केन्द्र उसके जीवन वृत्त में एकमेव हों . . .।” (पृ. 84) 

“मुझे भी सुरक्षित रहना है तभी तो सबकी सुरक्षा कर सकूँगा। चारों तरफ़ असुरक्षा के माहौल में अपने जीवन से मोह बढ़ गया था।” (पृ. 98) 

“मौत की खिल्ली उड़ाने वाला ही शायद भरपूर जी सकता है।” (पृ. 103) 

“आत्महत्या भी एक तरह की हत्या ही तो है जिसमें हत्यारा होता है समाज जो किसी की ख़ुशी छीन लेता है या फिर शारीरिक-मानसिक शोषण की ओर ढकेल देता है।” (पृ. 112) 

“शोषण के ख़िलाफ़ पहला क़दम है अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना, स्वयं पर गर्व करना। ज़रूरतें पूरी की जा सकती हैं मगर विलासिता एक ऐसा दलदल है जिसमें हम गहरे धँस जाते हैं।” (पृ. 114) 

लेखिका की क़लम से कई बार शब्द इतने मार्मिक फूटते हैं कि उन भावों के समक्ष पाठक का हृदय उनकी दासता स्वीकार कर लेता है। 

कहानी—‘घर से दूर’ का यह प्रसंग भाव-विभोर कर देता है:

सुशोभन के लौटने का दिन पास आ रहा था। घर लौटने का दिन। उसने मन ही मन तैयारी की थी-माँ को क्या बताना है, क्या नहीं। वह किस-किस को समझाए कि किसने क्या अधिकार खोया-वह कैसे जाने कि कौन अपने दिल में कौन सी पीड़ा छुपाए बैठा है-क्या उसमें साहस है? उसका सिर सुन्न हो रहा है। उसे माँ की शान्तनु के प्रति आकांक्षाओं की ज़िम्मेदारी ख़ुद अपने ऊपर लेने के लिए तैयार होना है। 

लौटने के दिन गाड़ी के समय तक भैया वापस नहीं आए थे। सुशोभन ने एक पर्ची लिखकर टेबल पर रख दी। लिखना तो वह चाहता था, “माँ को आपका इंतज़ार है। आप आइएगा।” पर लिखा उसने, “मैं घर लौट रहा हूँ। मैं हूँ माँ के पास। आप निश्चिंत रहें।”

उसके गले में यह कैसा दर्द है। वह हाॅस्टल से निकल पड़ा। कहीं देर न हो जाए, उसे घर लौटना है। (पृ. 110) 

डॉ. रूपा पारीक की कहानियों का स्तर ऊँचा है। इन्हें समझने के लिए इनकी कहानियाँ पाठक का भाषा पर अधिकार की अपेक्षा रखती हैं। 

संग्रह की बेहतरीन कहानियों में ‘पंख: जिनसे कोई उड़ा था’, ‘शिल्पा मैडम’, ‘तुमने ठीक किया माँ!’, ‘अनुत्तरित’, ‘किस पर गर्व करूँ’, ‘घर से दूर’ आदि का नाम लिया जा सकता है। 

संग्रह की शीर्षक कहानी—‘पंख: जिनसे कोई उड़ा था’ दार्शनिकता का पुट लिए बाल मनोविज्ञान पर मन को भिगोती सी, आँखों को नम करती कहानी है। कहानी के बीच-बीच में बालक के मन में उठे भाव कहानी की आत्मा हैं। 

इस उत्कृष्ट कहानी में लेखिका की लेखनी से शब्द नहीं, जादू की फुहारें बरसी हैं . . . अद्भुत शब्द-कौशल! 

स्त्री विमर्श की कहानी—‘तुमने ठीक किया माँ!’ में स्त्री के लिए शिक्षा के महत्त्व को दर्शाती सुन्दर कहानी है जिसके अन्त में पाठक के आँसू रुकते नहीं। अनुत्तरित कहानी में स्त्री की व्यथा का मार्मिक चित्रण हृदय को व्यथित करने वाला है। लेखिका ने संग्रह की अंतिम कहानी—‘पोस्टमार्टम’ में प्रश्न किया है कि संवेदनाओं का बुद्धिमत्ता से क्या सम्बन्ध है? उन्होंने इस काल्पनिक कथा के माध्यम से भविष्य की कल्पना की है कि उस यांत्रिक दुनिया में जीवन पर पूरी तरह उपकरणों का नियंत्रण हो जाएगा। पीड़ा, भूख, दुःख, असाध्य रोग, विकलांगता, मृत्यु सब बेमानी हो जाएँगे। काव्य को तो सबसे पहले समुद्र में डुबोया जाएगा। 

सुन्दर कहानियाँ अद्भुत लेखनी की प्रत्यक्ष गवाही देती प्रतीत होती हैं। 

पुस्तक की भूमिका में श्री नंद चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि रूपा जी की कहानियों में एक चमकती, प्रसन्न ज़िन्दगी की चाहत ही केन्द्रीय भाव है। 

कहानी की भाषा प्रभावी व रोचक है। भाषा शैली विशिष्ट व दार्शनिकता का पुट लिए है। संवाद जानदार हैैं। 

कहानी का मुद्रण उत्कृष्ट है। प्रूफ़ की त्रुटियाँ न के बराबर हैं। 

पुस्तक पठनीय एवं पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने वाली है। 

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