कर्त्तव्यपथ

15-02-2022

कर्त्तव्यपथ

डॉ. अखिलेश पालरिया (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सरिता अपने काम में लगी रही। उसने घड़ी की ओर देखा, काम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। 

उसने टी.वी. के सामने बैठे अपने पति, सास-ससुर व ननदों पर एक दृष्टि डाली। सभी कॉमेडी सीरियल देखने में मगन थे और बीच-बीच में ठहाके भी लगा रहे थे। उनमें से शायद किसी को भी यह अहसास न था कि इस घर की बहू अकेले सुबह से रात तक रसोई में ही खपी रहती है।

यह कोई आज की बात नहीं, हर रोज़ की कहानी थी। उसे सास-ससुरजी से कोई शिकायत नहीं, उनकी तो उम्र है आराम करने की। पति भी दिन भर ऑफिस में काम करके थके हुए घर आते हैं। बड़ी ननद का भी वह आदर करती है लेकिन दोनों छोटी ननदें? उसे खीझ हुई कि उनको आदेश चलाना, बेसिरपैर की पंचायती करना, लोगों में मीन-मेख निकालना और पूरे दिन काम में लगी रहने के बावजूद उस पर दोषारोपण करना तो आता है पर अपने भीतर झाँकने की फ़ुर्सत नहीं! वे खाने-पीने-सोने, कोसने-झिड़कने में तो माहिर हैं पर हाथ बँटाने व प्रेम के मीठे बोल बोलने में नहीं...उफ!

बड़ी तो बड़ी, छोटी ननदें भी सरिता पर उसी तरह अधिकार जमाती हैं जैसे कोई मालिक अपने गुलाम पर...वह सीधी, सरल है, मुँहफट भी नहीं; जवाब देने में भी संकोची-संस्कारी है, क्या यह उसकी दुर्बलता है? 

बहू, यह रोटी फूली नहीं, ठीक से बनाया करो, दाल भी बराबर घुटी नहीं . . . सरिता, मेरे कपड़े प्रेस नहीं हुई, कब करोगी इन पर इस्त्री . . . क्या यार भाभी, आप रोज़-रोज़ कम मिर्च की सब्ज़ी बना देती हो . . . न इसमें तराई है, न टेस्ट . . . और डाइनिंग टेबल पर तो मिट्टी भी जमी है! 

ये वे जुमले हैं जिन्हें शब्दों में परिवर्तन के साथ बदल-बदल कर बोला जाता है—घर के अधिकतर सदस्यों द्वारा . . . किसी को मिर्च-तेल कम चाहिए तो किसी को ज़्यादा . . . किसी को रोटी चाहिए तो किसी को पराँठा . . . किसी को पीने के लिए गर्म पानी चाहिए तो किसी को सादा और किसी को ठंडा . . . सरिता भाग-भाग कर काम करती है पर किसी को दया क्यों नहीं आती? 

घर की साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा-बर्तन के लिए तीन बार महरी रखी, तीनों बार सासू जी ने डाँट-डाँट कर भगा दिया पर भुगतना पड़ा सरिता को! 

सरिता के पैरों में ज़ंजीरें तो नहीं, लेकिन उसे लगता है कि वह क़ैद है . . . घर की चारदीवारी से बाहर निकलने को तड़पती रहती है—हरदम, हरपल जबकि तीनों ननदें तितलियों की तरह उड़ती रहती हैं . . . उसे अनुमति नहीं बाहर जाने की, क्योंकि 24 घंटों की हुज़ूरी कौन करेगा तब? उसे तो पीहर जाने के लिए भी गिड़गिड़ाना पड़ता है! 

बड़ी ननद पीहर में बैठी है क्योंकि वह सास-ससुर के लिए खाना बनाने को तैयार नहीं! 

सास-ननद की कानाफूसी सरिता समझती है, लेकिन चुप रहती है . . . 

एक बार उसने पति से पूछा भी, “दीदी की ससुराल में किस बात को लेकर खटपट है?” 

सुनकर पति हिमांशु को अच्छा नहीं लगा, “तुम्हें इन बातों में पड़ने की क्या ज़रूरत?” 

“क्यों, क्या वे मेरी कुछ नहीं लगतीं?” सरिता ने प्रतिकार किया।  

“तो सुनो, खोट उसकी सास में है जो बहू की क़द्र नहीं करती,” पति ने कहा। 

“सही बात है, दोनों को एक दूसरे की क़द्र करनी चाहिए।”

“मतलब?” पति का प्रतिप्रश्न। 

“बहू सास को माँ बराबर समझे और बहू को सास बेटी बराबर तो फिर कोई समस्या ही न रहे।”

“लेकिन जिस घर में ऐसा नहीं हो तो समस्या बनती है,” पति का प्रत्युत्तर।  

“आपको क्या पता, अपने घर में क्या होता है।”

“क्या होता है?” पति की भृकुटि तन गई। 

“नहीं मालूम? तो बताती हूँ . . .”

“मुझे नहीं सुननी . . .” पति का आवेशित स्वर। 

“क्यों नहीं सुननी? बहन की तो बड़े शौक़ से सुनते हैं! क्या पत्नी की कोई इज़्ज़त नहीं होती?” 

“ससुराल में तो दो बात सुननी भी पड़ती है,” पति का त्वरित उत्तर।  

“तो यह बात बहन को भी समझा दो कि . . . एक तो इतने प्राणियों का काम और दूसरे रसोई व सफ़ाई में कोई मदद को तैयार नहीं! महरी को सासू माँ टिकने नहीं देतीं . . . मैं मशीन की तरह काम करती रहती हूँ लेकिन प्रशंसा तो दूर, अपनापन तक नहीं। 'यह कर दो, वह कर दो' के अलावा कुछ आता ही नहीं। और सुनो, मुझे 2-4 दिन के लिए पीहर जाना है, दो महीनों से गई ही नहीं। छोटी बहन की शादी की तैयारी चल रही है, फ़ोन पर बुलाते-बुलाते थक गए हैं। सब पूछते हैं, कब आ रही हो? लोकल होकर भी नहीं जा पा रही हूँ।” 

“लंच बनाकर शाम से पहले आ जाना,” पति का स्वर। 

“नहीं, मैं इस बार रहकर आऊँगी।”

“तो फिर मत जाओ।” 

“आपकी तीन-तीन बहनें हैं ना अभी तो। उन्हें भी काम आना चाहिए वरना ससुराल में कैसे निभाएँगी?” 

 “इसकी चिन्ता तुम मत करो,” पति के कथन में रिश्तों का दोगलापन साफ़ झलक रहा था। 

हिमांशु के ऑफ़िस जाते ही सरिता की मम्मी का फिर बुलावा आ गया, “शादी की ख़रीदारी करनी है, आ भी जा।” 

सरिता ने सासू माँ को बड़ी ननद की उपस्थिति के बीच जाकर कहा, “मुझे पीहर जाना है . . . “

“क्यों?” 

“शादी की तैयारियाँ चल रही हैं, मुझे बार-बार बुला रहे हैं,” सरिता बोली तो इस बार बड़ी ननद का स्वर उभरा, “शाम को आ जाना ज़रूर।” 

“नहीं दीदी, मुझे तीन-चार दिन तो रुकना ही होगा।” 

“अरे, फिर?” 

“आप सब हैं ना दीदी,” कहते हुए मैं मुस्कुरा दी और अपना बैग जमाने लग गई। 

उसकी बड़ी ननद सरिता के पीछे आकर बोली, “सरिता, समझो, तुम्हारा यहाँ रहना ज़रूरी है।” 

“क्यों दीदी, मैं इस घर की मुखिया थोड़े ना हूँ।” 

“बात मुखिया की नहीं, तुम्हारे बिना घर की सारी व्यवस्था चौपट हो जाती है,” बड़ी ननद ने बात सँभालने की कोशिश की। 

सरिता को भी कहने का अवसर मिल गया, “दीदी, काम एक व्यक्ति के कारण कहाँ रुकता है . . . आप भी तो इतने दिनों से यहाँ हैं तो क्या आपके बिना ससुराल में व्यवस्थाएँ चौपट हो गईं? सोचो, क्या पीहर जाने की इच्छा मेरी नहीं होती? आपकी तरह मैं भी तो एक औरत हूँ! आप पीहर में रह सकती हैं तो मैं क्यों नहीं? मेरा कर्त्तव्यपथ मुझे ससुराल की आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए तो प्रेरित करता ही है लेकिन पीहर पक्ष से भी विमुख नहीं कर सकता। मैं सबकी हूँ और सबके लिए समर्पित रहना चाहती हूँ।” 

इस बार सरिता के वक्तव्य को सुन कर बड़ी ननद कुछ बोल ही नहीं पाई, हतप्रभ भी रह गई। अब सिवाय चुप बैठने के उसके पास कोई चारा भी न था। 

सरिता के जाते ही रसोई की व्यवस्था चरमरा गई। नाश्ता/खाना कौन बनाए . . . खाना बना लिया तो बर्तन कौन मले . . . झाड़ू-पोंछा कौन लगाए . . . सबने राम-राम करते तीन दिन जैसे-तैसे निकाले। 

चौथे दिन नाश्ता करके बैठे रहे, लंच तो बनाया ही नहीं। सरिता की आस में सब बैठे रहे। शाम के झूठे बर्तनों के ढेर से भी सिंक भरा पड़ा था।  
सरिता दोपहर 3 बजे आयी तो सब पेट पकड़ कर बैठे हुए थे . . . पेट ख़ाली था लेकिन मन में आफरा था। 

सरिता को आते ही रसोई में जुटना पड़ा। 

जीवन की कशमकश के बीच साल भर बीत गया। इस दौरान सरिता ने एक सुन्दर से बालक को जन्म दिया तो उसे लगा, अब संघर्ष कम होगा। ऐसा हुआ भी जब घरेलू कामों के लिए एक महरी रख ली गयी। बढ़ते बच्चे के लालन-पोषण में समय पंख लगा कर उड़ता चला गया।  

कर्त्तव्य–यही नाम सुझाया था बच्चे का, बच्चे के दादा ने; जो सबको पसन्द आया। सरिता का बेटा कर्त्तव्य हँसता-मुस्काता बड़ा हुआ। न जाने कितनी बार गोदियों में उछलता-कूदता-झूलता वह माँ की गोद में सो जाता तो माँ सरिता अपनी प्यारी सी नन्ही जान को हौले से सुला देती, एक छोटा सा चुम्बन जड़ कर। 

थोड़ा सा बड़ा हुआ तो माँ से चिपका रहता या घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में होता हुआ बालकनी में पड़े झूले पर सवार हो जाता।  

एक बार मम्मी-मम्मी करता हुआ माँ को पुकारा तो सरिता घबरा कर बाहर बालकनी में आयी तो बोला, “मम्मी, आप भी झूलो न मेरे साथ . . . “

सरिता यह भूल कर कि रसोई में गैस पर कुकर चढ़ा कर आयी है, बच्चे का मन रखने के लिए झूले पर बैठ गई और नन्हे बेटे की ख़ुशियों को द्विगुणित करने लगी। फिर कुकर की सीटी बजी तो उठ कर रसोईघर में आना पड़ा उसे। 

एक दिन बरसात हुई तो हैरान हो गया कर्त्तव्य। पूछा, “मम्मी, यह पानी कहाँ से आता है? क्या ऊपर कोई शॉवर है?” 

सरिता हँस पड़ी, “हाँ, बाथरूम की तरह आसमान में भी बड़े-बड़े बहुत सारे शॉवर हैं!” 

कर्त्तव्य ने ऊपर देखा तो कुछ दिखा नहीं। पूछा, “लेकिन मम्मी, कुछ दिखता तो नहीं; बताओ, कहाँ है शॉवर?” 

सरिता ने उँगली से इशारा किया, “ऊपर बादल देखे हैं? ये सब शॉवर ही तो हैं।” 

“सारे के सारे बादल शॉवर हैं?” 

“हाँ, बशर्ते कि उनमें पानी हो . . . जैसे ऊपर छत की टँकी में पानी ख़त्म हो जाता है तो शॉवर नहीं चलते ना?” 

“अच्छा, तो इनका स्विच कहाँ है? शॉवर चलाएँगे कैसे?” 

“यही तो मुसीबत है, ये बादल रूपी शॉवर भगवान जी की मर्ज़ी से चलते हैं, हमारी मर्ज़ी से नहीं,” सरिता ने समझाया।  

“मम्मी, मैं भगवान जी वाले शॉवर के नीचे नहाऊंगा।”  

सरिता ने रोका, “नहीं बेटे, छोटे बच्चे बड़े शॉवर के नीचे नहाने से बीमार पड़ जाते हैं।” 

कर्त्तव्य ने ज़िद पकड़ ली, “नहीं, मैं तो नहाऊँगा।” 

“हाँ, हाँ, नहा ले,” कर्त्तव्य की दादी ने कहा, “नहाने दे ना बहू।” 

फिर कर्त्तव्य नहाया तो नहाता ही रहा। 

शाम को ज़ुकाम हो गया था, बुखार भी। 

बुखार में ही कर्त्तव्य बोला, “मम्मी, मैंने आपका कहना न माना, इसीलिए बीमार पड़ा न? अब हमेशा कहना मानूँगा आपका।” 

सरिता भावावेश में बोली, “तू बहुत समझदार है, मेरे राजा बेटे।” 

जीवन में नये-नये अनुभवों को आत्मसात करते हुए कर्त्तव्य थोड़ा और बड़ा हुआ। स्कूल जाने के दिन आ गए थे। मम्मी के लाड़ले बेटे को जब कभी पक्षधर बनना पड़ता तो हमेशा मम्मी का हाथ थाम लेता। स्कूल से घर आने पर मम्मी को न पाता तो ढूँढ़ कर ही दम लेता था। 

पढ़ाई ख़ूब मन लगा कर पढ़ता और यथासम्भव मम्मी की परेशानियों को कम करने का प्रयास करता। कड़ी मेहनत का ही परिणाम था कि सैकण्डरी में ज़िले का टॉपर बना। इंजीनियर पापा बेटे को आईआईटी इंजीनियर बनाना चाहते थे लेकिन कर्त्तव्य वही बनना चाहता था जो उसे मम्मी बनते देखना चाहती थी। 

कर्त्तव्य ने अकेले में मम्मी के मन की ढाह ली, “सच-सच बताओ मम्मा, क्या चाहती हो आप कि मैं इंजीनियर बनूँ या डॉक्टर?” 

सरिता ने पूछा, “जो मैं बीमार पड़ गई तो इलाज डॉक्टर करेगा कि इंजीनियर? इंजीनियर बन जाएगा तो बेंगलोर जाकर वहीं का होकर रह जाएगा फिर मम्मी की याद थोड़े ना आएगी?” 

“ठीक है मम्मा, मुझे नहीं बनना इंजीनियर, डॉक्टर ही बनूँगा अब तो।” 

नीट की मुश्किल परीक्षा कड़ी मेहनत से उत्तीर्ण कर ली उसने। मेडिकल कॉलेज में उसका जिगरी दोस्त बना संकल्प जिसके पिता विश्वविद्यालय के संस्कृत संकाय में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे। जैसा संस्कारी व गुणी कर्त्तव्य था, वैसा ही संकल्प भी था। दोनों मित्रों की जोड़ी कॉलेज में हिट हो गई। दोनों का रिश्ता प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया जब दोनों को एम बी बी एस करने के बाद प्री पी जी में सफलता से एम डी में प्रवेश मिल गया। 

सरिता चाहती थी कि बेटे की शादी हाउस जॉब के बाद ही हो जाए क्योंकि पी जी में तो दो साल से अधिक बाक़ी थे। 

इस बीच बड़ी ननद की लड़की के विवाह में शहर से दूर एक क़स्बे में जाना पड़ा। कर्त्तव्य को बहुत मुश्किल से तीन दिन की छुट्टी मिल पायी। पूरे परिवार को साथ लेकर वह बहुत दिनों बाद कार में प्रफुल्लित मन से ड्राइविंग सीट पर बैठा। 

80-85 के दादी-दादा व 50-55 के मम्मी-पापा को लेकर कर्त्तव्य रवाना हुआ। सबका मन उल्लास से भरा हुआ था। शहरी वातावरण से दूर क़स्बाई जीवन में पली-बढ़ी भुवा की लड़की बहन की शादी से मन ख़ुश था कर्त्तव्य का। 

अपने गन्तव्य पर पहुँच कर सब लोग वैवाहिक कार्यक्रमों में व्यस्त हो गए। 

जून माह की भीषण गर्मी में मायरे का कार्यक्रम सम्पन्न होते ही अचानक मौसम ने पलटी मारी और देखते ही देखते क़स्बे को चहुँ ओर से काले बादलों ने घेर लिया। बारिश शुरू हो गई थी जो धीरे-धीरे तेज़ होती गई। इससे मौसम एकदम सुहावना हो गया। 

घंटे-डेढ़ घंटे की वर्षा के बाद क़स्बे में चारों ओर पानी ही पानी हो गया लेकिन प्यासी धरती ने जल्द ही सारा जल सोख लिया था। कुल मिलाकर अब लू के थपेड़ों से कुछ दिनों के लिए राहत मिल गई और आँधी से भी छुटकारा मिलने की गारंटी। 

देर शाम जब अँधेरा घिरने को आया, सबको क़स्बे के एकमात्र ख़ूबसूरत मैरिज गार्डन में एकत्रित होना था। 

कर्त्तव्य फिर से मम्मी-पापा व दादी-दादा को कार में बिठा कर विवाह-स्थल तक पहुँचा। गार्डन इस समय सुन्दर रोशनी से नहा रहा था। भीतर पहुँचने से पहले सबको कार से उतार कर कर्त्तव्य को पार्किंग के लिए कुछ दूरी तक जाना पड़ा।  

पार्किंग स्थल के लिए जहाँ जगह मिली, वहाँ घुप्प अँधेरा था। कर्त्तव्य कार को एक ओर लगा कर ज्योंही कार से उतरा, बाहर ज़मीन गीली थी, जगह भी साफ-सुथरी नहीं थी। तभी उसे तेज़ दर्द हुआ और वह हैरान हो गया और चीख के साथ ही उसे एक साँप तेज़ी से जाता दिखाई दिया। वह घबरा कर तुरन्त कार में फिर से बैठा व कार को पुनः वहीं ले गया जहाँ उसकी मम्मी उसकी अब तक प्रतीक्षा कर रही थी। शेष सब गार्डन में प्रवेश कर चुके थे। 

हड़बड़ाहट में उसने कहा, “मम्मी, पापा को जल्दी बुलाओ, मुझे कोबरा साँप ने काट लिया है!” 

उसके पापा आए तब तक उसने राहगीर से अस्पताल की लोकेशन के बारे में जानकारी ले ली और वह रुमाल को काटी जगह के कुछ ऊपर बाँधने में सफल हो गया था।  

हाहाकार के बीच उसे अस्पताल ले जाया गया लेकिन वहाँ सर्पदंश के ए एस वी इंजेक्शन उपलब्ध नहीं थे। शहर की ओर लौटते हुए वह मम्मी के बदहवास चेहरे और कार दौड़ाते हुए पापा को लाचारी से देख रहा था। उसके शिथिल होते स्वर के बीच पीछे की सीट पर वह अपनी मम्मा की गोद में सिर छुपाए था तथा सरिता आँखों से नीर बहाती उसका माथा सहला रही बहुत बेबस नज़र आ रही थी। दुर्भाग्य से शहर के अपने अस्पताल पहुँचते-पहुँचते कर्त्तव्य का शरीर निर्जीव हो चुका था।  

सर्पदंश की यह बहुत अनहोनी व हृदयविदारक घटना थी। चंद घंटों पहले इसी अस्पताल से हँसी-ख़ुशी निकले कर्त्तव्य के शरीर में अब जान नहीं बची थी। उसके माँ, पापा का रो-रोकर बुरा हाल था और दादा-दादी तो क़स्बे में ही छूट गए थे। काल की क्रूर गति ने एक हँसते हुए परिवार की ख़ुशियों को हमेशा के लिए लील लिया था। 

अगले पन्द्रह दिनों तक संकल्प अपने प्रिय दोस्त कर्त्तव्य के परिवार पर हुई त्रासदी से उन्हें उबारने का भरपूर प्रयास करता रहा। यद्यपि यह कार्य असम्भव था लेकिन उसकी उपस्थिति ने घावों पर मरहम लगाने का कार्य तो किया ही था। वह जानता था, दिल के इस ज़ख़्म को भरना असम्भव को सम्भव बनाने जैसा था। 

बीते पखवाड़े में उसने देखा, दोस्त की मम्मी के सुन्दर दमकते चेहरे को उस शाखा से टूटे गुलाब की भाँति, जिसे कितना भी सहेजो, उसे मुरझाना तो था ही। उसके पापा, दादा, दादी की सेहत भी बिगड़नी ही थी लेकिन उसके बढ़े हुए हाथों ने उन्हें वेन्टिलेटर की तरह जीवन प्रदान किया था। 

अगले दो साल तक संकल्प नियमित रूप से कर्त्तव्य के घर पर आता-जाता रहा। जो चेहरे उसे देख कर फफक उठते थे, अब मुस्कुराने भी लगे थे। यह देखकर उसे अच्छा लगा कि कर्त्तव्य की मम्मी जिन्हें वह आंटी कहता था, उससे खाने की ज़िद करतीं तो वह मना नहीं कर पाता था। 
एम डी में सफल होने पर उसने कहा, “आंटी, मैं इन दिनों रात-दिन डी एम में प्रवेश के लिए तैयारी में डूबा हुआ हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि सफल होऊँ। 

“मेरा आशीर्वाद है बेटे . . . भगवान से कर्त्तव्य के हिस्से की ख़ुशियाँ भी तुम्हारे लिए माँगती हूँ।” 

संकल्प अपनी आंटी के पैर छूकर गया तो अगली बार मिठाई के डिब्बे के साथ ही आया। उसने सबके मुँह में मिठाई अपने हाथ से ही डाली फिर कहा, “मुझे डी एम कार्डियोलॉजी में प्रवेश मिल गया है . . . मैं उसी पथ पर अग्रसर हूँ जिस पर कर्त्तव्य जाना चाहता था . . . मैं तो उसके सपने को उसके पथ पर चलकर पूरा कर रहा हूँ।” 

फिर अपनी आंटी से बोला, “आंटी, देहली से डी एम करूँगा . . . जब भी आऊँगा, आप सबसे मिलूँगा। कभी भी कोई हेल्थ या अन्य प्रॉब्लम हो तो फ़ोन कर देना।” 

“ठीक है, बेटे,” सरिता मुस्कुरा कर बोली फिर जोड़ा, “डी एम तो हो ही जाएगी लेकिन शादी तो कर लो, उम्र निकली जा रही है।” 

“आंटी, मुझे तो पढ़ने से ही फ़ुर्सत नहीं, आप ही लड़की देख कर फ़ाइनल कर देना। मैं ना नहीं करूँगा। मेरी पसन्द तो इतनी ही है कि गृहिणी ही हो, डॉक्टर नहीं!” 

“कर्त्तव्य भी यही कहता था . . . मुझे इतना सम्मान देने के लिए धन्यवाद बेटा। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है,” सरिता ने भावुक होकर कहा। 

“आंटी, कर्त्तव्य और मैं दोनों ऐसे दोस्त थे जो आहार-विचार-आचरण सबमें एक जैसे थे।” 

“अरे वाह, तब तो तुम मेरे बेटे ही हुए संकल्प। अब कर्त्तव्य तो रहा नहीं, लेकिन मैं उसकी छवि तुम्हीं में देखती हूँ,” कहते हुए सरिता की आँखों में आँसू छलछला आए। 

वहाँ घिर आए मौन को सरिता ने ही तोड़ा, “मैं तुम्हारी मम्मी से भी मिलना चाहूँगी बेटे।” 

सरिता के कथन पर संकल्प ने कहा, “आप मेरी मम्मी से नहीं मिल सकतीं।” 

“क्यों?” सरिता ने आश्चर्य से पूछा।  

“क्योंकि उन्होंने मुझे जन्म देते ही दुनिया को अलविदा कह दिया था,” संकल्प रुआँसा हो गया।  

“अरे, क्या कह रहे हो?” 

“हाँ आंटी, तभी तो मुझमें यह भावना घर कर गई कि यदि मैं पृथ्वी पर न आता तो शायद मेरी मम्मी आज जीवित होतीं। उनकी मौत के लिए मैं उत्तरदायी हूँ।” 

“ऐसा नहीं सोचते संकल्प। इसमें तुम्हारा क्या दोष है?” सरिता भावविह्वल होकर बोली। 

संकल्प अधिक देर रुक न सका। अपनी आंटी के पैर छूकर चला गया यद्यपि दिल्ली जाकर भी वह जब तब सबकी कुशल-क्षेम पूछता रहता। 
दिन गुज़रते गए और वह दिन भी आ गया जब संकल्प डी एम की डिग्री प्राप्त कर वापस लौटा। 

संकल्प के पापा इधर सेवानिवृत्ति प्राप्त कर चुके थे और बेटे के आते ही उन्होंने अपने बड़े से मकान की ग्राउंड व फर्स्ट फ़्लोर को हार्ट सुपरस्पेशियलिटी सेन्टर में रूपांतरित कर दिया था तथा द्वितीय तल को निवास में। हार्ट सेन्टर के नाम बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखवाया गया—माँ सुरभि स्मृति कर्त्तव्यपथ हृदय उच्च दक्षता केन्द्र। 

संकल्प जब अपने केन्द्र के उद्घाटन का आमंत्रण पत्र लेकर अपने दिवंगत मित्र के घर आया तो सब लोग कार्ड देख कर पुलकित हो उठे। कर्त्तव्य के दादा-दादी व पापा-मम्मी की आँखें छलक उठी थीं।  

“कार्डियक सेन्टर का नाम कैसा लगा?” संकल्प के प्रश्न पर कर्त्तव्य के दादा बोले, “अति सुन्दर . . . तुमने अपनी प्यारी माँ व प्रिय मित्र का नाम अमर कर दिया है! अपने पोते के जन्म पर उसका नाम मैंने ही सुझाया था लेकिन इस नाम को अमर तुमने किया है संकल्प! तुमने सिद्ध कर दिया है कि मरने के बाद भी व्यक्ति जीवित रहता है, रह सकता है . . .” 

हिमांशु ने कहा, “मैंने दोस्त तो बहुत देखे हैं लेकिन तुम जैसा नहीं! धन्य हो तुम संकल्प।” 

सरिता नम आँखों से बोली, “संकल्प बेटे ने अपनी मम्मी व कर्त्तव्य के नाम को आलोकित करने का तो काम किया ही है, साथ ही कर्त्तव्यपथ नाम लोगों में यह विश्वास जगाने में भी समर्थ है कि संकल्प जैसे गिने-चुने डॉक्टर अपने कर्त्तव्यपथ पर चलकर आज भी सेवा-कार्य करने को कृतसंकल्प हैं।” 

संकल्प ने अनुरोधपूर्वक कहा, “कृपया ध्यान रहे, आप सबको लंच वहीं करना है और आप सब वहाँ वी आई पी की हैसियत से पूरे समय उपस्थित रहेंगे व उद्घाटन कार्यक्रम को गौरवशाली बनाने की महती कृपा करेंगे।” 

सब लोगों ने उसे आशीर्वाद दिया तो उसने जाने की अनुमति चाही। 

लेकिन सरिता ने कहा, “ऐसे कैसे जाओगे . . . मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारी पसन्द की खीर-मालपुए, पूरी व कचौड़ी बनायी हैं।” 

“तब तो डट कर खाऊँगा, आंटी,” संकल्प की स्वीकारोक्ति पर सरिता बोली, “खानी भी है और लेकर भी जानी है अपने पापा के लिए।” 

“जो आज्ञा आंटी,” नतमस्तक हो गया संकल्प। 

संकल्प ने तुरन्त फ़ोन मिलाया, “पापा, खाना मत बनवाना। आंटी आपके लिए पकवान भेज रही हैं। बस, मैं खाकर आता हूँ।” 

सरिता मुस्कुरा दी। 

उद्घाटन समारोह में संकल्प ने अपने पापा से सबका परिचय कराया . . . प्रवेश द्वार का फीता संकल्प ने कर्त्तव्य के दादाजी से कटवाया . . . बरामदे में अपनी दिवंगत माँ की प्रतिमा को माला पहनवायी अपने पापा से . . . मुख्य परामर्श कक्ष का फीता कटवाया अपनी आंटी सरिता से, जिसमें सामने दीवार पर कर्त्तव्य की हँसती-मुस्कुराती बड़ी ख़ूबसूरत बोलती तस्वीर लगी थी . . . तस्वीर के नीचे लिखा था, “हमेशा हँसते-मुस्कुराते रहेंगे तो दिल बीमार नहीं होगा . . .” 

सरिता तस्वीर के आगे खड़ी रह गई . . . संकल्प ने आंटी के पैर छुए तो सरिता ने उसे उठाकर गले से लगा लिया . . . एक साथ कई आँखें नम हो गईं . . .  

आगे बढ़े तो लैब का फीता संकल्प की दादी माँ ने और अन्त में प्रथम तल पर वार्ड का फीता अंकल हिमांशु ने काटा . . . फिर लिफ़्ट में दूसरे तल पर पहुँचकर सब लोगों ने अवलोकन किया उनके निवास का। 

अविस्मरणीय लंच लेकर मधुर स्मृतियों के साथ सब घर लौट रहे थे कि सरिता ने संकल्प के कानों में धीमी किन्तु मीठी आवाज़ में जैसे मिश्री घोल दी, “मैंने तुम्हारे लिए लड़कियाँ देखनी शुरू कर दी हैं . . . कोई पसंद आएगी तो बताऊँगी।” 

“हाँ आंटी, मेरी माँ अब आप ही हैं . . .” कहते हुए संकल्प ने हाथ जोड़ दिए।  

घर आकर शाम को संकल्प की बातें ही सरिता के मन-मस्तिष्क में घूमती रही थीं। कर्त्तव्य के निधन को पाँच साल हो चुके थे लेकिन सरिता को कार में पीछे की सीट पर लेटे कर्त्तव्य के जीवन का वह दारुण दृश्य बार-बार रुलाता था, जब वह बहुत ही विवश हो गई थी . . . उसे लगता, ज़िन्दगी की जंग कर्त्तव्य ने नहीं, स्वयं उसने हारी थी। न जाने कितनी बार वही दृश्य उसके सामने अंकित हुआ है।  

सरिता सोने को गई तो फिर कर्त्तव्य की याद सताने लगी थी . . . वह विचारमग्न हो गई। उसे भँवर से निकालने में संकल्प का बड़ा हाथ रहा है। वह न होता तो वह कैसे सँभलती? बहुत मुश्किल हो जाता तब तो! 

वह कर्त्तव्य से बातें करने लगी, “बेटे, तुमने दोस्त बहुत अच्छा बनाया . . . जैसे तुम्हें पता था, यह होने वाला है इसलिए पहले ही दोस्त ऐसा चुन लिया जो हमारी सार-सँभाल करता रहे . . . पर, तुम्हें पता है, मैं कितनी बार मर-मर कर उठी हूँ . . . तुम्हारे बिना जीने की चाहत तो न पहले थी, न अब है किन्तु जीना फिर भी अपने हाथ में नहीं होता किन्तु संकल्प जैसे लोग मरने भी नहीं देते, वे मन में जीने की उमंग भर देते हैं . . . हाथ फैला कर थाम लेते हैं दामन . . . बेटे, तुम होते तो तुम भी वैसे ही होते जैसा आज संकल्प है! हमारी तुम कितनी इज़्ज़त बढ़ा देते! मानती हूँ, अपना जाया न होने पर भी संकल्प ने आज क्या नहीं किया हमारे लिए . . . तुम्हारी तस्वीर जो उसने लगायी अपने परामर्श कक्ष में, वह तो मैंने पहले देखी भी नहीं थी . . . कितनी सुन्दर फोटो है वो-बिल्कुल बोलती हुई सी . . . उस फोटो को देखकर मेरा मन जितना ख़ुश हुआ, उतना ही रोया भी . . . काश, तुम जीवित होते! 

कितना सुन्दर नाम रखा है संकल्प ने अपने हाॅस्पिटल का . . . धन्यवाद देती हूँ मैं संकल्प को और तुम्हारी दोस्ती को! मुझे लगता है, तुम डबल रोल में अवतरित हुए थे पृथ्वी पर-एक कर्त्तव्य और दूसरे संकल्प के रूप में! इसीलिए, एक चला गया, दूसरा बच गया।  

सरिता सुबकने लगी, अपने बेटे कर्त्तव्य की याद में . . . मन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहा! फिर जाने कब नींद की आग़ोश में सो गई वह। 

इस बार राखी पर सरिता की दोनों छोटी ननदें आईं तो कर्त्तव्य के जाने के बाद पहली बार अपने पिता से प्रॉपर्टी को लेकर तक़ाज़ा करने लगीं। 

बड़ी ननद इसमें शामिल नहीं हुई क्योंकि बेटी की शादी को ही वह कर्त्तव्य की मृत्यु के कारण का निमित्त मानती थी। 

दोनों छोटी ननदें सम्पन्न थीं। दोनों का दूसरे शहरों में बढ़िया मकान था और दोनों के पति सरकारी सेवा में अधिकारी थे। 

दोनों बेटियों ने पिता का मन टटोला, “बाबूजी, इतने बड़े मकान का कौन होगा उत्तराधिकारी? कर्त्तव्य जीवित होता तो हम कुछ न कहतीं पर जब कोई नहीं तो आपको ही कोई निर्णय लेना पड़ेगा। आप अब 90 के हो, पीछे कोई झगड़ा न हो इसलिए बेहतर है, आप जिसको देना है, बराबर-बराबर बाँट दें . . . कुछ तो सोचा होगा आपने?” 

बाबूजी बोले, “मुझे तो तुम सभी प्रिय हो, तुम ही बताओ, क्या चाहती हो?” 
दोनों ननदों ने इधर-उधर देखा, कहीं भाभी सुन तो नहीं रही फिर तसल्ली होने पर बोलीं, “चूँकि मकान आपने बनाया है अपनी अर्जित कमाई से, तो इस मकान की हिस्सेदारी की रजिस्टर्ड विल लिखवा सकते हैं।” 

“तुम दोनों क्या चाहती हो, भविष्य में बहू अकेली रह जाए; हो सकता है बेटा भी न रहे तो उसे घर से बाहर निकलना पड़े? अरे, जिस बहू ने आजीवन इस घर-परिवार की बेहतरीन सेवा की हो, उसके हिस्से में मकान भी न आए और वह बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खाती रहे?” पिता ने दो टूक कहा तो बेटियाँ झेंप गईं, “नहीं, हमने ऐसा कब कहा बाबूजी? भाभी के जाने के बाद ही हिस्सेदारी होगी मकान की।” 

“रजिस्टर्ड विल के बाद तो नामित व्यक्ति बहू के जीते जी ही कमीना हो जाएगा क्योंकि बूढ़ी, अशक्त महिला में दम ही कितना सा होता है! यदि बहू निस्संतान है तो इसका लाभ उन लोगों को क्यों मिले जिन्होंने कभी बहू की सेवा ही न की हो? इसलिए कान खोल कर सुन लो, हमारे जाने के बाद इस निर्णय का अधिकार तो केवल और केवल बहू के पास ही होना चाहिए कि वह मकान किसको दे! हो सकता है, वह किसी संस्था को दान कर दे अथवा कोई वृद्धाश्रम ही खोल दे! रजिस्टर्ड विल में पहले से किसी तीसरे आदमी का नाम लिखने का अर्थ होगा, बहू का गला घोंट देना।” 

पिता का स्पष्ट जवाब सुनकर दोनों बेटियाँ सुन्न पड़ गईं किन्तु फिर प्रतिकार भी किया, “बाबूजी, हमने तो इसलिए कहा क्योंकि सरकार ने भी बेटियों को बराबर का हिस्सेदार माना है। यदि पिता की अचल नहीं तो चल सम्पत्ति ही मिलनी चाहिए।” 

“मैंने जो भी चल या अचल सम्पत्ति अर्जित की है, वह मेरी निजी है अतः सरकारी नियमानुसार इसे मैं किसी को भी देने के लिए स्वतन्त्र हूँ। रही बात अचल सम्पत्ति यानी मकान की, तो वह तो उसे ही मिलना चाहिए जो इस घर में रह कर मेरी आजीवन सेवा कर रही है। दूसरे, मेरी बेटियों के पास तो आलीशान मकान है अतः उन्हें इस मकान में हिस्सेदार बनाकर मैं इस मकान के साथ उनके दिलों में भी दरारें क्यों पैदा करूँ। मेरी चल सम्पत्ति के रूप में मेरे पास जो बैंक बेलेंस है, वह मेरी आवश्यकतानुसार मैं कभी दान करता हूँ, बहन-बेटियों को भी उसी में से देता हूँ और मेरी अन्य ज़रूरतों को भी पूरा करता हूँ। समस्त गहने मेरी पत्नी जिसे चाहे, बँटवारा करे, मेरा कोई दख़ल नहीं होगा।” 

पिता का उत्तर सुन कर दोनों बेटियों के स्वर मंद पड़ गए थे और राखी का उत्साह भी। राखी की थाली में उन्होंने बेटियों के लिए धनराशि तो रखी लेकिन अपनेपन की कमी का अहसास उन्हें खल रहा था। 

राखी बाँध कर तीनों बेटियाँ अपने-अपने घर चल दीं लेकिन उनके वृद्ध पिता को रात को ही सीने में जलन की शिकायत होने लगी थी तो उन्होंने बेटे हिमांशु को इस बाबत बताया। 

बेटा उन्हें तुरन्त संकल्प के पास ले गया। संकल्प ने उन्हें सभी आवश्यक जाँचों के बाद सही पाया तो कहा, “दादाजी, आप बिल्कुल स्वस्थ हैं। आपके हृदय संबंधी विकार नहीं मिला है। क्या घर में कोई तनाव की बात तो नहीं हो गई थी?” 

वे बोले, “आपका डायग्नोसिस एकदम परफ़ेक्ट है। ऐसा ही कुछ हुआ था।” 

“तो मुझे बताएँ, मुझसे तो आप कुछ छिपा भी नहीं सकते हैं, नहीं ना?” 

“तुम्हारा मित्र कर्त्तव्य नहीं रहा तो कल मेरी दो बेटियाँ चाहती थीं कि उन्हें मकान का उत्तराधिकारी बना दिया जाए। बस, मैंने विरोध किया तो मुझसे रूठ गईं।” 

“ओह . . . दादाजी, एक बात कहूँ?” 

“बोलो बेटा, तुम्हारा उपाय ही मेरे तनाव को दूर कर मुझे स्वस्थ रख सकेगा।” 

संकल्प ने कहा, “आप तो जानते ही हैं, कर्त्तव्य को अपनी मम्मी से कितना लगाव था। यहाँ तक कि उसने अंतिम साँस भी अपनी माँ की गोद में ही ली थी। दादाजी, मेरी मानें तो यह मकान आप अकेले आंटी अर्थात्‌ कर्त्तव्य की मम्मी के नाम कर दें . . . रजिस्टर्ड विल होने के बाद सारा चैप्टर हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। 

“वैसे भी आंटी ने आप सबकी बहुत सेवा की है लेकिन दुःख भी कम नहीं देखे . . . अब उन्हें और कष्ट नहीं झेलने दें।  

“एक बात और कह दूँ . . . पुरुष के मुक़ाबले स्त्री की आयु अधिक होती है, यह प्रकृति का नियम है। हाँ, अपवाद तो मिलते ही हैं। इस नियम के पीछे वैज्ञानिक कारण भी हैं। वैसे भी पति-पत्नी की आयु में पाँच साल का अन्तर तो मामूली बात है। इसलिए पीछे कोई संकट न आए, मकान का मालिकाना हक़ विशेषकर इस आयु में, घर में पत्नी के नाम और आपके सन्दर्भ में बहू के नाम ही होना चाहिए।” 

संकल्प की बात सुनकर कर्त्तव्य के दादा गद्‌गद्‌ हो गए। प्रसन्नता से बोले, “धन्यवाद बेटे, अब मेरे सीने  पर पड़ा बोझ उतर गया है . . . अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुमने मुझे कर्त्तव्यपथ बता कर मुझ पर बड़ा अहसान किया है! पुनश्च आभार।” 

“दादाजी, अपना आशीर्वाद दे दीजिये, आपका आभार कहाँ रखूँगा मैं?” 

उन्हें लगा, सूरज की किरणों ने चहुँ ओर प्रकाश फैला दिया है . . . प्रकाश ही प्रकाश, क्योंकि मन का अँधियारा भी पूरी तरह विलुप्त हो गया था।  
 

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