भावनाओं से पगीं, मन को हर्षातीं उल्लेखनीय लघुकथाएँ
डॉ. अखिलेश पालरियापुस्तक: परिवर्तन
लघुकथाकार: डाॅ. इन्दु गुप्ता
प्रकाशक: मंजुली प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण: 2021
पृष्ठ: 136
मूल्य: ₹ 400
फरीदाबाद (हरियाणा) निवासी एम.एससी. (रसायन विज्ञान), एम.एड., पी.जी.डी.एच.ई., एम.ए. (मानवाधिकार), एम.ए. (हिन्दी), पी-एच. डी., डिप्लोमा इन कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग, डिप्लोमा इन उर्दू सहित अन्य क्षेत्र में शिक्षाविद् डाॅ. इन्दु गुप्ता के 10 कथा संग्रह, 3 लघुकथा संग्रह, 1 बाल कहानी संग्रह, एक बाल कथा गीत संग्रह एवं पंजाबी में अन्य पुस्तकों के साथ अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित; समीक्ष्य लघुकथा संग्रह- ‘परिवर्तन’ मानव मन की भावनाओं को कुशलता से गूँथा हुआ पुलिन्दा है जो आदर्श के सुदृढ़ स्तम्भों पर शान से खड़ा दिखाई देता है जिसमें 132 लघुकथाएँ संगृहीत हैं।
डॉ. इन्दु जी की लघुकथाएँ विविधताओं से परिपूर्ण दर्पण की भाँति पारदर्शी हैं जिनमें कुछ तो आदर्श के मज़बूत फ्रेम में, कुछ यथार्थ के आवरण में डरावने, कुछ विशिष्ट तो कुछ सफ़ेद वस्त्रों में काले मन के जाने-माने चेहरे हैं . . .
इनकी लघुकथाओं में मर्यादित आचरण है तो परिवर्तन का सामंजस्य भी है और हैं मिट्टी की प्रतिमाओं में गढ़ी कोमल भावनाओं की दिव्य मानव आकृतियाँ जो मन को संतृप्त ही नहीं करतीं वरन् पाठकों को अपने पक्ष में करने की विनम्र पहल भी करती प्रतीत होती हैं।
पुस्तक की एक लघुकथा ‘सुनी-अनसुनी’ का कुछ पंक्तियों में सारांश यूँ है:
हमेशा बेटे से शिकायत रखने वाली माँ आज चुप थी और बुखार से तपती हुई अपने बिस्तर पर शांत पड़ी थी। जो बेटा माँ के चिल्लाने पर भी उसकी सुनता न था, सारा दिन धमा-चौकड़ी मचाता था; आज वही बेटा माँ के सिरहाने बैठा कभी माँ का माथा सहलाता तो कभी उसका भट्टी सा तपता हाथ दबा रहा था।
माँ बीमार आवाज़ में उसे हाथ से धकियाते हुए कहा रही थी, “जा रे, थोड़ी देर खेल आ।”
परन्तु बेटा उसे आज भी नहीं सुन रहा था। (पृष्ठ: 62)
उक्त लघुकथा में संवेदनाएँ अपने चरम पर हैं जो कहानी की जान हैं और लघुकथा का अंतिम वाक्य ‘पंचवाक्य’ बन कर लघुकथा को उत्कर्ष पर पहुँचा देता है।
हमेशा शिकायत रखने वाली माँ आज बेटे के अपनेपन से पिघल जाती है और वह चाहती है कि वह अपना मन खेलकूद में लगाए लेकिन बेटा . . . उसके लिए खेलकूद से अधिक माँ का ठीक होना है।
इसी तरह लघुकथा ‘चिरैया’ में मोहिनी द्वारा, जिसका विवाह कुछ दिनों बाद होना था, रिक्शे वाले बाबा से बीते दिनों न आने का कारण पूछने पर वह कहता है:
“कैसे आता बिटिया! मेरी बेटी का ब्याह जो था, बहुत दौड़-भाग रही। बेटियों की बड़ी ज़िम्मेदारी होती है, ज़िम्मेदारी क्या माँ-बाप के सर पर बोझ होती हैं, ये लड़कियाँ। उसे ब्याह के उसके घर भेज दिया है, अब वहाँ वह सुख से रहे अपने घर में . . . पैसे के क़र्ज़ का बोझ तो धीरे, तेज़ जैसे-तैसे उतर जाएगा।”
यूनिवर्सिटी के गेट पर रिक्शा से उतरी मोहिनी को न जाने क्या हुआ कि अचानक बाबा के गले लग कर रो पड़ी, “बाबा, मत कहो कि बेटियाँ माँ-बाप के सर पर बोझ होती हैं। ये तो आँगन की चिरैया होती हैं, जब अपनी चहक से आँगन को गुंजाने लगती हैं तो कंकरी मार कर उन्हें उड़ा देते हैं, उनके अपने सगे वाले और उसे मजबूरन अपनी प्यारी साथी चिरैयाओं को छोड़ अकेले उड़ जाना पड़ता है, दूर कहीं परायों के बीच।” (पृष्ठ: 33)
उक्त लघुकथा में भी संवेदना अपने चरम पर है जो पाठक के हृदय को झकझोर देती है।
नारी सशक्तिकरण का दंभ भरती स्त्रियाँ रिश्तों का गला घोंटने से भी नहीं चूकतीं, यह लघुकथाओं—‘जोरू का ग़ुलाम’ व ‘उत्सव’ में बख़ूबी उद्घाटित किया है।
‘जोरू का ग़ुलाम’ का यह दृष्टांत देखिए:
भुनभुनाती-धड़धड़ाती हुई वे किचन में पहुँची तो वहाँ बहू मंजूषा दाल और सब्ज़ियाँ डोंगों में पलटती हुई साथ-साथ चपातियाँ सेंक रही थी और बेटा प्रणय सलाद काट रहा था, देखकर वे दाँत पीसती हुई ज़ोर से बड़बड़ाई, “हूं . .गधा . . जोरू का ग़ुलाम!” (पृष्ठ: 48)
लघुकथा ‘उत्सव’ का यह दृष्टांत भी देखिए:
“सच कह रही हूँ आंटी, आज मेरे लिए बहुत ही ख़ास दिन है . . . वो–मुझे तलाक़ मिल गया है आंटी, अब मैं आज़ाद हूँ।” कहकर अपनी दोनों बाँहें ऊपर हवा में खींच-खोलकर फैला दीं उसने . . . और चहकी, “उसी आज़ादी को पूरी तरह महसूस करने और उसका उत्सव मनाने के लिए, मैं सबको मिठाई बाँटने जा रही हूँ।” (पृष्ठ: 49)
इधर कन्या भ्रूण हत्या में लिप्त सास को लघुकथा ‘अलका जाग गई’ में सास-बहू के बीच परिवर्तन की कहानी कह रही है:
“यह बला तो इस घर में नहीं आएगी, चाहे मुझे तेरी ही जान क्यों न लेनी पड़े . . . ” हर बार की तरह मिट्टी का तेल और माचिस दिखाकर सास ने दबंगी दिखाई तो गिड़गिड़ाना भूल अलका अपनी सास पर पिल पड़ी, “मुझे हत्या ही करनी है तो अबकी बार बेटी की जगह सास की क्यों नहीं . . . ” (पृष्ठ: 43)
किन्नरों पर लिखी तीन लघुकथाएँ मानवीय दृष्टिकोण से बहुत ही मार्मिक बन पड़ी हैं।
लघुकथा ‘वापसी’ में लेखिका ने बहुत ही ज्वलन्त प्रश्न उठाया है:
“हैरानी की बात है कि अंग-दोषी यानी दिव्यांग तो अपनी अक्षमता के बावजूद समाज में स्वीकार्य हैं, परन्तु जननांग-दोषी नहीं, आख़िर क्यों?” (पृष्ठ: 30)
लघुकथा ‘भूल और सज़ा’ में भी उक्त प्रश्न अलग अंदाज़ में मुखरित हुआ है:
रमन के पिता ने माँ को समझाया, “उर्मिला यों ही ज़्यादा मोह मत कर रमन का, अब वह बड़ा हो रहा है और हम ठहरे इज्जतदार लोग, अभी तक तो घर की बात घर में ही छिपी हुई है। यदि समाज-बिरादरी को भनक लग गई तो सात पुश्तों तक भी इस कलंक का दाग़ मिटाएँ नहीं मिटना।”
दुनियादारी का पलड़ा भारी होते ही ममता की पकड़ ढीली पड़ गई और पूनमबाई की मुट्ठी की पकड़ के ज़ोर से घिसटता, रोता-चिल्लाता रमन माँ से फिर सवाल पूछ रहा था, “माँ, तुम तो कहती थी कि ‘भूल’ भगवान से हुई है, फिर सज़ा मुझे क्यों, माँ . . . मुझे क्यों?” (पृष्ठ: 42-43)
किन्नर आधारित तीसरी लघुकथा ‘उसका परछावां’ में सम्मान और संवेदना का विरोधाभास वैचारिक स्तर पर बहुत कुछ कह देता है:
मालकिन ने सुन्दर सेटों, मिठाई और पैसों से उसकी झोली भर के हाथ जोड़ विनती की, “आप लोगों की दुआएँ रब्ब के आशीर्वाद की तरह फलती हैं, आपका ‘सुलखना परछावां’ ख़ुशियों से भर देता है। हमारी बहू को आशीष दो कि उसकी गोद और हमारा सूना-आँगन किलकारियों और ख़ुशियों से भर जाए।”
बिमली की आँख से ढुलका गर्म आँसू आशीर्वाद देने के लिए उठे उसके हाथ की पुश्त पर गिरा तो वह लौट आई अपनी अँधेरी दुनिया में, अपना ‘सुलखना परछावां’ लेकर। (पृष्ठ: 32)
लघुकथा ‘दहेज़ की बलि’ में भी परिवर्तन की बयार बहती दिखाई देती है:
उम्मीद से कम दहेज़ के कारण रात को उन्होंने रमता को ख़ूब मारा-पीटा . . . आग लगा दी . . .
वहाँ रमता अपने पति जहेश को कमर से कसकर पकड़े हुए थी और दोनों आग की लपटों में घिरे हुए बेतरह जल रहे थे। जहेश ख़ुद को छुड़ाने के लिए लगातार उसे मार रहा था। रमता की डायन जैसी नन्द और राक्षसी सास दोनों चिल्ला रहे थे, “कलमुंही छोड़ दे जहेश को . . . ”
पर रमता अपनी पकड़ को कसती हुई कह रही थी, “मैं कैसे छोड़ दूँ इन्हें, माताजी, फेरे लेते वक़्त हम दोनों ने हर सुख-दुःख में एक दूसरे का साथ देने का वचन दिया था . . . जहेश और आप भूल सकते हैं, पर मैं नहीं भूली।” (पृष्ठ: 44)
इधर समाज में परिवर्तन की बयार ऐसी भी कि लड़की वाले दहेज़ न माँगने के कारण रिश्ता ठुकरा देते हैं, लघुकथा ‘आउटडेटेड’ में।
रिश्तों के मर्म पर: ‘दिल से . . .’, ‘चींटी’, ‘बच्चों, मैं नहीं हूँ . . . ’, ‘उसकी भक्ति’, ‘हमारे माँ-पिताजी', ‘रैगिंग अभी तो शुरू हुई है . . . ’ ग़रीबी पर: ‘मजबूरी का कफन’, भ्रष्टाचार पर: ‘अनिष्ट’, ‘आह! वे तो काट ही दिए जाएँगे न . . . ’ बलात्कार पर: ‘पेशा’, साथ ही विविध विषयों पर व्यंग्य लघुकथाएँ ‘विरासत’, ‘गिद्ध’, ‘आत्माभिमानी’, ‘आदमी और हाथी’ बेहतरीन बन पड़ी हैं।
विद्वान लेखिका की विविध स्थानीय भाषाओं पर भी पकड़ गहरी है। उनकी यह विविधता पाठकों को मुग्ध करती है तो कभी आशय से विमुख भी कर देती है। जैसे यह पंक्ति:
“अरे बैनर्जी बोदी, अपना क्यामोन आपको? आपनार पाँच फोड़, पैसा तो, शौब जीनिशटा रेडी बोएंगे, आरो की देबो आपनार के।” (पृष्ठ: 100)
वहीं लेखिका के शब्द कौशल की यह बानगी देखिए:
मगर दहेज़ी शादी के लालच की चाशनी में भीगी-मचलती मन-आत्मा को हर बार सामाजिक प्रतिष्ठा और छवि की चींटियाँ चाट जातीं। (पृष्ठ: 97)
डाॅ. इन्दु गुप्ता जी की लेखन शैली विशिष्ट, कसावट लिए हुए, परिपक्व, भाव-प्रवणता की कसौटी पर खरी, साथ ही रोचकता से परिपूर्ण, मन-प्राण पर अधिकार जमाने में सक्षम है।
कुल मिलाकर यह महत्त्वपूर्ण संकलन घर-बाहर के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाला सिद्ध होगा।
पुस्तक का मुद्रण उच्च कोटि का है। प्रूफ़ की त्रुटियाँ न के बराबर हैं।
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