अनुपम शिल्प सौन्दर्य से युक्त भावुक कहानियाँ
डॉ. अखिलेश पालरियाकहानी संग्रह: सुन बाबुल मोरे
कहानीकार: निर्मला तिवारी
प्रकाशक: पाथेय प्रकाशन, जबलपुर
प्रकाशन वर्ष: 2010
पृष्ठ: 132
मूल्य: ₹ 160
मानव की विशिष्टताओं में संवेदना ही वह तत्त्व है जो उसे करुणा से भरकर अपने-अपनों से इतर भी सहायता के लिए प्रेरित करता है। संवेदनाओं एवं भावनाओं के वशीभूत साहित्यकार अपनी लेखनी की रचनाधर्मिता की ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा के बल पर ऐसी कहानियों व साहित्यिक रचनाओं को जन्म देते हैं जो पाठकों को भी भावनाओं में बहा ले जाती हैं। कहना होगा कि जबलपुर (म.प्र.) निवासी श्रीमती निर्मला तिवारी अपनी सशक्त लेखकीय क्षमताओं के बूते ऐसी कहानियों को रच सकी हैं जो न केवल शब्द सौन्दर्य में अनूठी हैं बल्कि उनकी भाषा शैली का रसास्वादन कर पाठक उन्हें एक विशिष्ट कथाकार का दर्जा प्रदान करते हैं।
उनकी 22 कहानियों का संग्रह ‘सुन बाबुल मोरे’ ऐसी ही भावपूर्ण, प्रवाहपूर्ण, करुणाजनक कहानियों का दस्तावेज़ है जो पाठकों को चमत्कृत करता है।
लगभग सभी कहानियों के केन्द्र में दुर्भाग्य एवं परिस्थितियों की मार झेलती ‘नारी’ है जिनमें उन्होंने वीभत्स यथार्थ को आँसुओं में भिगो कर परोसा है। कहानी समाप्त करते समय लेखिका का यह प्रयास क़तई नहीं रहा कि यथार्थ को आदर्शोन्मुखी बनाएँ।
सभी कहानियाँ न्यूनतम चार व अधिकतम दस पृष्ठों में सिमटी हुई हैं जिनका स्वरूप नूतन न होने के बावजूद वे असाधारण प्रस्तुति के कारण विशिष्ट बनी हैं।
निर्मला जी की कहानियों की विशेषता इनका शिल्प है जो कलात्मक लेखन से हृदय के भीतर उतर कर पाठक के मन को झिंझोड़ देता है।
कहानियों का कथानक एक पंक्ति में बयाँ किया जा सकता है किन्तु लेखनी से उपजा दर्द नासूर की भाँति पीड़ा देता है। ये कहानियाँ समाज में नारी की स्थिति की भी व्याख्या करती हैं।
संग्रह के शीर्षक से कहानियों का सम्बन्ध नारी के पीहर से होने का आभास देता है। सभी कहानियाँ उल्लेखनीय बन पड़ी हैं।
आइए, इनकी श्रेष्ठतम कहानियों में से एक कहानी—‘वसुधा’ के कुछ बिन्दुओं पर चर्चा और कहानी के अंशों से रूबरू होते हैं:
कहानी का आरम्भ लेखिका के लेखन कौशल से परिचय करवाता प्रतीत हो रहा है:
आटा गूँथ रही है वसुधा!
कलाइयों में पड़ी नई-नई चूड़ियाँ बज रही हैं, रुन-झुन, छुन-छुन!
साड़ी में टँका गोटा झिलमिला रहा है और मन मीलों दूर पीहर की गलियों में भटकता हुआ फीकेपन में डूबा हुआ है। चेहरा उदासी से बेनूर है।
कहानी की नायिका बीती रात व पूर्व में कहे अपने पति के कथनों से आत्मसात हो रही है:
“इतना शौक़ था घूमने का, तो बाप से स्कूटर देने के लिए क्यों नहीं कहा?”
उसे कभी-कभी बड़ा अजीब लगता! ये कैसे आधुनिक और पढ़े-लिखे लोग हैं जो संवेदनाओं पर जूते रखकर ख़ुश होते हैं! प्यार और नफ़रत दोनों को एक साथ जीते हैं!
“हमें कुछ नहीं चाहिए शादी में!” कहता हुआ पति उसे बहुत ऊँचा उठता-सा लगा था, लेकिन तभी उसी के दूसरे वाक्य ने उसे खींचकर गंदी नाली में पटक दिया, “आप दे भी क्या सकते हैं?”
जी चाहा था, वह बेबस पिता के गले में झूल जाए और उनकी पीड़ा हर ले! लेकिन ससुराल के जोड़े में वह गठरी-सी बँधी बैठी रह गई थी।
वसुधा को छह माह हो गए पीहर से आए!
“अरे टुच्चे हैं तुम्हारे पीहर वाले! एक बार तुम्हें टाल पाए तो फिर बुलाने का नाम ही नहीं लेते! पैसा ख़र्च करने में डरते जो हैं।” बड़े रोब से पति बोला था।
आख़िर भाई आ ही गए लेने।
तो विनय आ गया! एक हुलक उसमें जागने लगी। उसका शरीर सुखद थरथराहट से भरने लगा और तेज़ रुलाई का प्रवाह उबलने लगा।
“अहा, अब अम्मा के पास जाने को मिलेगा।”
अम्मा के हाथ की घी चुपड़ी गरम रोटियाँ और राई का बघार दी हुई दाल खा सकेगी वह! अचानक उसे लगा, उसने छह महीने से रोटी ही नहीं खाई है। एकदम भूखी है वह! ममत्व और अपनत्व की भूख! ठुनककर अम्मा से खाना माँगेगी! कितना भला लगेगा!
लेखिका की क़लम से निकले उक्त अंश पाठक के हृदय को संवेदनाओं एवं भावनाओं से भर आँखों को नम कर देते हैं।
दिन-रात उठते-बैठते व्यंग्य बाणों से आतंकित रहने वाली वसुधा को जैसे जीने का अहसास जगा है:
आज अचानक हल्की-फुल्की होकर किसी अँधेरी गुफा के अंतिम छोर पर आ खड़ी हुई है वह। उसे दिखाई दे रहा है, उजेलों से भरा खुला आकाश! विनय भैया जो आ गया है।
लगता है, वह एक बार फिर नन्ही-मुन्नी हो गई है! जी चाहा, चीख-चीखकर सबको बता दे, “अरे सुनो सब जने, मैं भी अपने घर जाऊँगी, हाँ जी, अपने घर! अपनी माँ के पास! एक बार फिर बाबूजी से मेले में ले जाने की ज़िद करूँगी! सहेलियों के साथ खेलूँगी, विनय भैया और भाभी के साथ पिक्चर जाऊँगी। बस, बहुत जल्द . . . “
अनायास ही उसके क़दम नाचते हुए से पड़ने लगे।
“भैया!”
वह बिलखकर विनय के सीने से जा लगी। अंदर की आग धीमे-धीमे बुझने लगी। भाई का हाथ उसके सिर को सहला रहा था और छोटी-छोटी गर्म बूँदें उसके बालों पर असहाय भाव से टपक रही थीं।
“नन्ही!”
विनय ने करुण-मधुर स्वर में उसे पुकारा! उसे लगा, वह फिर छोटी-सी हो गई है। न उसकी शादी हुई है न वह किसी की बहू है, वह तो अपने भैया की नन्ही है, बस।”
बंद कोठरियों में रहते-रहते वह तंग आ गई है। अपने घर की खुली छत से वह बरसात देखेगी! तेज बारिश में आस-पास के गड्ढों में जब पानी भर भर जाता है, तब घर झील में तैरती नाव सा लगता है! कैसा लुभावना दृश्य होता है वह।
“घर कब चलेंगे भैया?” पूछते हुए सैकड़ों छोटे-छोटे दीप सुनहरी किरणों के साथ उसकी आँखों और स्वरों में चमचमा उठे!
वह सँभल कर बैठ गई और इतनी आशा से विनय की ओर देखने लगी कि विनय घबरा उठा!
कथाकार यहाँ पाठक को विस्मित करने वाली हैं जबकि पाठक भाई-बहन के बीच संवाद और मिलन का आनंद ले रहे हैं। पाठक तो वसुधा को भाई के साथ उसके पीहर भेजना चाहते हैं लेकिन लेखिका के मन में तो कुछ और ही खिचड़ी पक रही है। होगा वही जो निर्मला जी चाहेंगी। निर्मला तिवारी कहानी को क्लाइमेक्स पर ले जाकर ही दम लेंगी क्योंकि वे चाहती हैं कि कहानी में नारी की स्थिति पर पाठक भी ज़ार-ज़ार रोयें और वसुधा के दुःखों के भागीदार बनें ताकि समाज बदले . . . क्योंकि नारी के प्रति बर्बरता आज भी जारी है!
(ध्यान रहे, समीक्षा में कहानी के केवल महत्त्वपूर्ण अंश ही उद्धृत किए गए हैं)
“नन्ही . . . विनय ने अपने सूखते होंठों पर जीभ फेरी-
“अम्मा जी तुझे अभी नहीं भेजेंगी।”
“क्यों!”
“हम लोग शादी में ठीक से कुछ दे नहीं पाए थे न! इसलिए अम्मा जी वग़ैरह नाराज़ हैं।”
अपराध-बोध से विनय का स्वर चटखकर टूट रहा था, “जब तक उनके मन के मुताबिक़ दे नहीं देंगे, वे तुझे नहीं भेजेंगी।”
“लेकिन तू घबरा मत नन्ही! पिताजी कोशिश में लगे हैं। गाँव के मकान की अच्छी क़ीमत मिलते ही . . . फिर अम्मा के कर्णफूल, करधन वग़ैरह . . . मैं जल्दी ही फिर आऊँगा! घबरा मत नन्ही।”
मीठे, शीतल शब्दों में कह रहा था विनय, लेकिन वसुधा सुन कहाँ रही थी?
कलेजे को चीरती एक निःशब्द रुलाई तीव्र आँधी की तरह उसके क्षीण शरीर को झकझोरने लगी। उसे लगा, विनय ने उसे अम्मा जी के इंकार के बारे में नहीं बताया, ख़ुद वसुधा की मौत की ख़बर उसे दी है। वह अपनी मौत पर आकुल है। उसकी शादी थोड़े ही हुई है, वह तो मर गई है और विनय कह रहा है, “तू फ़िक्र मत कर नन्ही! तू मर गई है तो क्या हुआ? तेरा श्राद्ध हम धूम-धाम से करेंगे।”
जैसी मार्मिक यह कहानी है, वैसी ही संग्रह में नारी की स्थिति पर कई और भी कहानियाँ हैं। इनमें ‘स्थानान्तरण’, ‘पिंजरा’, ‘हाँ, वे आएँगे’, ‘अँधेरे से अँधेरे तक’, ‘हादसा’, ‘हासिल आया शून्य’, ‘वह छोटी लड़की’, ‘लाक्षागृह’, ‘अमरबेल’, ‘उम्मीद की बैसाखी’ का नाम लिया जा सकता है। कहानी ‘यथार्थ’ में लड़की बेचारी नहीं होती तो ‘तुम और मैं’ मुस्कुराती सी एक निश्छल प्रेम कहानी है।
कहना पड़ेगा कि निर्मला तिवारी जी एक मँझी हुई परिपक्व कथाकार हैं जिनकी कहानियाँ पढ़ कर पत्थर दिल पुरुष भी पिघल जाएँगे। ये कहानियाँ समाज में परिवर्तन के लिए हैं और समाज को बदलने का माद्दा भी रखती हैं।
आवश्यकता है कि ऐसे कहानी संग्रह घर-घर के ड्राइंग रूम की शोभा बनें ताकि समाज को संस्कारित किया जा सके।
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