अपना अपना मन

01-02-2022

अपना अपना मन

डॉ. अखिलेश पालरिया (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

काॅलेज में बी.ए. की पढ़ाई करते करते अनिरुद्ध व अभिज्ञान दोनों के बीच दोस्ती की नींव सुदृढ़ होती चली गई थी। 

अनिरुद्ध ने इसके साथ ही राजस्थान प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगी परीक्षा के लिए कमर कस ली जबकि अभिज्ञान ने एम.ए. (पू.) राजनीति शास्त्र में प्रवेश ले लिया। 

“अभिज्ञान . . .”

“बोल यार!”

“मैं तो चाहता था कि तू भी मेरे साथ आर.ए.एस. की परीक्षा देता पर मुझे मालूम है कि तू जो ज़िद पकड़ लेता है फिर किसी की नहीं सुनता।”

“दोस्त, यह अफ़सर की नौकरी तुझे ही मुबारक . . . मैं तो सेवक ही ठीक हूँ।”

“अच्छा, मगर अपना लक्ष्य तो बता दे कि आख़िर आगे चलकर तुझे करना क्या है?” 

“सच बताऊँ?” 

“तो अब क्या मुझसे झूठ बोलेगा?” 

“तो सुन, रात-दिन जन-सेवा व देश-सेवा ही मेरा एकमेव लक्ष्य होगा। पर एक बात है, जो भी करूँगा, उसे जानकर तू मुझ पर गर्व ही करेगा।”

“ओ.के., ऑल दी बेस्ट,” दोनों ने एक दूसरे को कहा। 

दोनों की राहें भिन्न भिन्न ज़रूर हो गईं मगर मिलना-जुलना और बतियाना जारी रहा। दोनों परस्पर सुख-दु:ख में साथ देते रहे। 

इधर अनिरुद्ध का क़द एकाएक बढ़ गया जैसे ही उसका चयन प्रशासनिक सेवा में हुआ, वह जैसे स्टार बन गया जबकि अभिज्ञान एक मामूली पोस्ट ग्रेजुएट बेरोज़गार नवयुवक रह गया। 

इस अवसर पर अभिज्ञान अनिरुद्ध को माला पहनाने आया तो दोनों दोस्त गर्मजोशी से मिले, हँसे, बतियाये और देर तक साथ रहे। 

अब एक ने प्रशासनिक दायित्व सँभाल लिया तो दूसरा जन-सेवा कार्यों में जुट गया। 

प्रशासनिक दायित्वों के बीच अनिरुद्ध के स्वभाव, रहन-सहन व पोशाक सभी बदल गए। वह अधिक कठोर, कुछ कुछ अभिमानी, गंभीर व स्टेटस सिम्बल को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देने लगा। 

उधर अभिज्ञान अधिक विनम्र, अभिमान शून्य, सरलता की प्रतिमूर्ति, हँसमुख, मिलनसार व सेवाभावी बन गया। एक का बैंक बेलेंस बढ़ता चला गया तो दूसरा अर्थ के मामले में एकदम उदासीन। एक सूटेड-बूटेड तो दूसरा साधारण कुर्ता-पायजामाधारी। 

इस बार दीपावली आई तो बहुत दिनों बाद दो प्रगाढ़ मित्र साथ-साथ बैठे। अभिज्ञान दोस्त के घर आया तो मकान का स्वरूप भीतर से बदला हुआ था। महँगा सोफ़ा व शानो-शौकत के सामान घर की शोभा बढ़ा रहे थे। अभिज्ञान मित्र की आर्थिक प्रगति पर मुस्कुराया। 

वार्तालाप औपचारिकता से आरम्भ होकर अनौपचारिक होता चला गया। 

“अभिज्ञान, कैसे हो?” 

“बस, ख़ुश हूँ।”

“यार, अब नौकरी के उत्तरदायित्वों में जकड़ गया हूँ। तुम ठीक हो, अपनी मर्ज़ी के मालिक तो हो . . .” अनिरुद्ध के कथन पर अभिज्ञान ने एक मोहक मुस्कान बिखेरी। बोला, “यार, काम कोई भी करें, यदि मन से करें तो सुख मिलता है।”

“बात सही है, अपनी बताओ, आजकल क्या दिनचर्या रहती है?”

अनिरुद्ध के प्रश्न का उत्तर अभिज्ञान ने सरलता से दिया, “मेरा जीवन तो दूसरों के लिए है भाई। मेरा काम लोगों के दिलों को जीतने का है . . . कुल मिलाकर, सुकून का जीवन है, माँ-बाबूजी का आशीर्वाद है, कर्म में विश्वास करता हूँ, फल की चिन्ता नहीं करता।”

“विस्तार से बताओ यार, पहेलियाँ न बुझाओ। कुछ तो सपने होंगे जिन्हें साकार करना चाहते हो?” अनिरुद्ध ने कुरेदा। 

“सपने . . .? दोस्त, मैं कर्मठ हूँ पर महत्त्वाकांक्षी नहीं। दाल-रोटी मिल जाए, इतना ही काफ़ी है। बाबूजी रिटायर्ड टीचर हैं। माँ व उनका ख़्याल मेरी प्राथमिकता है। बड़े भाई दुकान करते हैं, उनकी पार्ट टाइम मदद कर देता हूँ। घर में भाभी व एक भतीजा है। उनकी भी देखभाल व ख़ुशियों को महत्त्व देता हूँ। मोहल्ले-वार्ड के सब लोगों की सूची है मेरे पास, उनमें ज़रूरतमंदों के दुःख को कम करने का प्रयास करता हूँ। एक वृद्धाश्रम से भी जुड़ा हुआ हूँ,” अभिज्ञान सब कुछ एक रौ में कह गया। 

अनिरुद्ध भौचक होकर अभिज्ञान को देखता रह गया। बोला, “परोपकार तो ठीक है दोस्त लेकिन कुछ अपने लिए भी तो करना पड़ेगा न, कुछ अपने सपने भी तो बुनने पड़ेंगे।”

अभिज्ञान ने विषय बदल दिया, “यार, मेरे बारे में ही पूछते रहोगे, कुछ अपनी भी तो कहो न॥“

“अरे हाँ, तुमसे राय भी लेनी है . . . मम्मी-पापा व बहनें, लड़कियाँ देखने में लगे हैं। तुम्हें कुछ फोटोज़ बताता हूँ; तुम्हारी राय महत्त्वपूर्ण है, मेरे प्रिय दोस्त जो हो!” कहते हुए अनिरुद्ध उठा और कुछ फोटोज़ के साथ उनके बायोडेटा भी ले आया। 

“मैं तो असमंजस में हूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा, तुम्हीं बताओ, कौन ठीक रहेगी,” अनिरुद्ध के आग्रह पर अभिज्ञान ने मुस्कुराते हुए बारी-बारी से सारी फोटो देखीं और देर तक दोनों विश्लेषण में लगे रहे। आख़िर अनिरुद्ध ही बोला, “तो तुम्हारी दृष्टि में यह लड़की ठीक रहेगी?” 

अभिज्ञान ने कहा, “देख भाई, मुझे तो प्यारी सी भाभी मिलेंगी, जैसी भी हों . . . और एक बात बताऊँ, चेहरे से मन की ठाह लेना मुश्किल होता है।”

“तुम भी ना . . . चलो, इतना तो बता दो, क्या यह ज़रूरी है कि लड़की बड़े घर की ही हो? अनिरुद्ध के प्रश्न पर अभिज्ञान तनिक हँसा फिर गंभीरता से बोला, “बड़े घर से मतलब मेरी दृष्टि में पैसा नहीं, उच्च आदर्श होने चाहिए। यह सच है कि लोगों का मापदण्ड पैसा ही होता है किन्तु रिश्ते के मामले में संस्कारों को ही प्रधानता देनी चाहिए बजाय पैसे के।”

“यानी तुम्हारे अनुसार यह लड़की बेस्ट है . . . “ अभिज्ञान ने एक फोटो निकालते हुए कहा, “क्योंकि ये लोग सीधे व श्रेष्ठ आचरण वाले प्रतीत होते हैं। फोटो भी सुन्दर पर मासूम सी लगती है।”

“देखूँ ज़रा, “ अभिज्ञान फोटो पर एक दृष्टि डालते हुए बोला, “वाक़ई, ये मेरी भाभी बनने योग्य हैं! नाम क्या है इनका?” 

अनिरुद्ध ने फोटो के पीछे लिखा नाम पढ़ा, “संस्कृति।”

“वाह, नाम सुन कर तो लगा जैसे किसी ने हमारी मिट्टी को आदर के साथ मस्तक से स्पर्श किया हो!”

अनिरुद्ध ने हँस कर पूछा, “भई, अपनी भी तो कहो, शादी कब कर रहे हो . . . कोई लड़की देखी या नहीं?” 

“सच कहूँ?” 

“नहीं, झूठ भी चलेगा।”

दोनों हँस पड़े। 

अभिज्ञान बोला, “मित्र, मैंने जो काम हाथ में लिया है अर्थात् जन सेवा का, इसमें विवाह सबसे बड़ा रोड़ा है क्योंकि शादी करने पर पत्नी के लिए समय न निकाल पाना उसके साथ अन्याय होगा।”

“तुम भी कमाल करते हो यार, परोपकार जैसे काम पार्ट-टाइम तो अच्छे लगते हैं, फुल-टाइम नहीं!”

अभिज्ञान हँसने लगा। वह उठ कर बरामदे में आ गया। उसने घड़ी देखी। शाम के छह बज रहे थे। धूप जा चुकी थी और आकाश में पक्षी भी अपने नीड़ की ओर लौट रहे थे। नवम्बर के आरम्भ में ही इस समय शीतलता का आभास होने लगा था। 

वह बोला, “अब चलूँगा, फिर कभी मिल बैठकर बातें होंगी।”

“खाना खाकर जाना यार . . .“ अनिरुद्ध की बात को अभिज्ञान ने मज़ाक में उड़ा दिया, “जल्दी से शादी कर ले भाई, भाभी के हाथ का ही खाने का मन है, अब आंटी को परेशान नहीं करने वाला . . .  ओ.के. बाय।”

अनिरुद्ध फिर से ड्यूटी पर चला गया। वह किसी क़स्बे में बतौर विकास अधिकारी लगाया गया था। 

एक दिन अनिरुद्ध की शादी का कार्ड देख कर वह अधीरता से पढ़ने लगा, “अनिरुद्ध वेड्स संस्कृति“। 

वह हँसने लगा और देर तक हँसता ही रहा। फिर बुदबुदाया, “बधाई हो, मित्र . . . तुमने धन सम्पदा से अधिक मानवीय मूल्यों को महत्त्व दिया।”

शादी के वे चार दिन कैसे बीत गए, अभिज्ञान को पता ही न चला। वैवाहिक प्रबन्धन की सारी बागडोर अनिरुद्ध ने अभिज्ञान को ही सौंपी थी। उसे मालूम था कि यह काम ईमानदारी व उत्तरदायित्व की भावना से उससे अच्छी तरह कोई कर ही नहीं सकता था। 

स्टेज पर बैठे हुए अनिरुद्ध ने संस्कृति से अभिज्ञान का परिचय कराते हुए कहा, “ये मेरा दोस्त ही नहीं भाई भी है, हमारे घर का एक अहम सदस्य . . . तभी तो इसने जिस फोटो पर उँगली रख दी, उसी से आज मेरी शादी हो रही है।”

“सच . . .?” संस्कृति जैसे चहक पड़ी। 

“नहीं, सफ़ेद झूठ है!” अनिरुद्ध के विनोद पर सब हँस दिए। 

“भाभी,” अभिज्ञान ने कहा, “दोस्त मेरा थोड़ा अड़ियल है, बच के रहियेगा।”

“जी,” संस्कृति मुस्कायी। 

शादी सम्पन्न हुई तो रिश्तेदारों में से किसी ने टिप्पणी की, “व्यवस्था के तो कहने ही क्या, कभी किसी को कोई कमी नहीं खली . . . यार हो तो ऐसा!”

एक अन्य ने कहा, “शायद आप नहीं जानते, अपने वार्ड के लोगों में अभिज्ञान की लोकप्रियता . . . सुख हो या दु:ख, हारी हो या बीमारी, ख़ुशी हो या ग़म, अभिज्ञान सबका चहेता बन जाता है!”

“सच?” 

“नहीं, यह तो कल्पना से परे है!”

समय बीतता रहा। अभिज्ञान लोकप्रिय होता चला गया। समाज में जातिगत प्रबलताएँ चरम पर होने पर भी वह सबका हितैषी था और सब उसके प्रशंसक। 

वार्ड वालों ने आने वाले चुनावों में ठान लिया था कि पार्षद अभिज्ञान को ही बनाएँगे। चुनाव में पार्टियाँ जातिगत समीकरण को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवार का चयन करती हैं साथ ही टिकट को लेकर घमासान भी ख़ूब होता है। कई बार उम्मीदवार द्वारा टिकट के लिए पार्टी को चंदा भी देना होता है लेकिन अभिज्ञान के लिए जाति-पैसा सब गौण बातें थीं। वह तो अलग ही मिट्टी का बना हुआ था जिसे न जाति से मतलब था, न कमाई से। वह तो विशुद्ध रूप से सत्कर्म को सेवा का प्रतिरूप मानता था। 

अभिज्ञान को पार्षद के चुनाव के लिए कोई अभिलाषा न थी क्योंकि टिकट वितरण के समय ख़ूब जूतमपैजार हुई, अपने ही अपनों के विरुद्ध हो गए। अभिज्ञान के मना करने के बावजूद लोगों ने निर्दलीय के रूप में उसका अनुनय पूर्वक फ़ॉर्म भरवा दिया। 

वार्ड नं. 58 का यह चुनाव अनोखा था क्योंकि इसमें उम्मीदवार घर बैठा था और लोग उसका प्रचार कर रहे थे। शायद अभिज्ञान ने अपने लिए कुछ माँगना सीखा ही न था। पार्टी उम्मीदवारों के लिए मुश्किल यह हो गई कि उन्हें अभिज्ञान के विरुद्ध प्रचार के लिए रिश्तेदार तक मना कर रहे थे। विवश होकर उन्हें अन्य वार्डों से चुनाव प्रचार के लिए भाड़े पर लोगों की व्यवस्था करनी पड़ी बावजूद लाखों ख़र्च करने पर भी सबकी जमानत ज़ब्त हो गई। 

अभिज्ञान भारी मतों से विजयी घोषित हुआ लेकिन उसने विजयी जुलूस निकालने से मना कर दिया और तन-मन से अपने काम में जुट गया। वार्ड नम्बर 58 को आए दिन अभिज्ञान को लेकर समाचार पत्रों में कवरेज मिलने लगा जिससे अभिज्ञान सम्पूर्ण शहर का चहेता बन गया। 

अगले पाँच वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ। अभिज्ञान ने अंजलि के रूप में अपनी जीवन संगिनी को चुन लिया और बेहद सादगी से विवाह सम्पन्न हुआ। इस दौरान अनिरुद्ध का अन्य दूरस्थ ज़िले में उप खण्ड अधिकारी के पद पर पदस्थापन हुआ और संस्कृति ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम अनुपमा रखा गया। इधर वार्ड नम्बर 58 व अभिज्ञान की एक अलग पहचान बन गई। 

अगले नगर निगम चुनाव में दोनों प्रमुख पार्टियों ने अभिज्ञान को अपनी अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न पर उम्मीदवारी का आमंत्रण दिया। अभिज्ञान ने राष्ट्रहित नाम की पार्टी को चुना जिसके लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि था। इसमें किसी को शक नहीं था कि अभिज्ञान के समक्ष कोई उम्मीदवार अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाएगा। 

समय का चक्र घूमता रहा। चेहरे बदलते रहे। मज़े की बात यह रही कि अभिज्ञान की लोकप्रियता एक वार्ड तक सीमित नहीं रही बल्कि सम्पूर्ण शहर के लोग उसके फ़ैन हो गए। ज्यों ज्यों उसका कार्यक्षेत्र बढ़ा, उसकी सरलता, विनम्रता, सदाशयता व ईमानदारी भी प्रशंसित होती रही। लगातार तीन बार पार्षद बनकर पार्टी को बहुमत मिला तो उसे मेयर बना दिया गया। 

अभिज्ञान को लगा कि अब उसे और मेहनत करनी होगी। एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा, “मेरा लक्ष्य नगर का चहुँमुखी विकास है ताकि बाहर से आने वालों को यह शहर विशिष्ट लगे और शहरवासी अपने नगर पर गर्वित हो सकें।”

अभिज्ञान ने अपने कर्मठ, विश्वासपात्रों की टीम को ईमानदारी के प्रतिमान स्थापित करने का आह्वान करते हुए काम पर लगा दिया। साथ ही दूरस्थ ज़िले में पदस्थापित अनिरुद्ध को अपने निगम में प्रशासनिक पद पर स्थानांतरित करवा दिया। 

बहुत वर्षों बाद दो मित्रों को एक भवन में एक साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। 

अनिरुद्ध गद्‌गद्‌ था . . . उसने अभिज्ञान के गले लगते हुए कहा, “आज मुझे गर्व हो रहा है कि तुम मेरे दोस्त हो, एक ऐसे अनोखे दोस्त जो पूरे शहर की जनता की आशाओं का चिराग़ बन गया है जिसके होने का अर्थ प्रकाश और प्रगति है . . . जो प्रतिमान है भलाई, करुणा व संवेदना का . . . जिसके साथ होने से मुश्किलें आसान हो जाती हैं और लक्ष्य एकदम सुगम। 

संस्कृति अंजलि के गले लग कर बोली, “भैयाजी ने यहाँ बुला कर हमें परिवार के लोगों के बीच काम करने का असीम सुख व अनुपम उपहार दिया है।”

“हम सब भी आप जैसे आत्मीयजनों के साथ रहने से आनन्दित रहेंगे। आपके रूप में मुझे एक प्यारी सी बहन तथा बेटी आकांक्षा को अनुपमा बिटिया के रूप में एक सखी,” अंजलि ने आत्मीयता से कहा। 

इस तरह दो मित्र अब दो परिवारजन बन गए जिनका परस्पर मिलना-जुलना व घर आना-जाना ख़ूब होने लगा। 

संस्कृति एक बार अपनी बेटी अनुपमा को लेकर अभिज्ञान के घर पर आई तथा कार्ड देते हुए बोली, “आने वाले रविवार को मेरे इकलौते भैया की शादी है, आप सबको सपरिवार आना है।”

कार्ड हाथ में लेते हुए अभिज्ञान ने प्रफुल्लित होकर कहा, “अरे, वाह . . . आपके भैया की शादी हो और हम न आएँ, यह तो हो ही नहीं सकता।”

अंजलि ने भी कहा, “इस ख़ुशी के अवसर पर हम अवश्य आएँगे। आपको बहुत-बहुत बधाई!”

संस्कृति भाव-विह्वल होकर बोली, “आपसे मुझे यही आशा थी। आपकी उपस्थिति हमारे लिए गौरवपूर्ण होगी।”

“भाभी, आप तो इस सेवक को काम बताएँ, सारी व्यवस्था मेरे ऊपर छोड़ दीजिए। अभी तो आपका यह सेवक मेयर है, जब कुछ नहीं था, तब भी सारी व्यवस्था मैंने ही सँभाली थी, नहीं मालूम?” अभिज्ञान ने कार्ड में आँखें गड़ाए कहा।

“जानती हूँ, भैया जी,” कहते हुए संस्कृति मुस्कुरा उठी। 

“और बिटिया, अपने मामा की शादी में डांस नहीं करोगी?” अंजलि के विनोद पर शरमा गई अनुपमा। 

इस बीच उनकी बेटी आकांक्षा भी आ गई थी और वह अनुपमा को अपने कमरे में ले गई। 

शाम को अंजलि ने बताया था, “तीन बहनों में भाई सबसे छोटा है . . . बाक़ी दोनों बहनों का ससुराल भी इसी शहर में है।”

“अच्छा? फिर तो कभी मिलेंगे उनसे भी। भाभी सचमुच देवी स्वरूपा हैं!”

“सुनो, तुम सुन्दर सा गिफ़्ट पैक करवा लेना,” अभिज्ञान ने स्मरण कराया तो अंजलि को याद आया, “आप शादी की शाम व्यस्त तो नहीं रहेंगे?” 

अभिज्ञान ने निश्चयी भाव से कहा, “अंजलि, भाभी के भैया की शादी है यानी हमारे लिए वे वी.आई.पी. हैं . . . उस शाम के सारे अपॉइंटमेंट्स कैन्सिल कर दूँगा।”

“हाँ, तब ठीक है,” अंजलि ने सहमति जताई। 

विवाह के दिन अभिज्ञान को जयपुर जाना पड़ा था लेकिन वह समारोह में नियत समय पर सपरिवार पहुँच गया। 

मेयर अभिज्ञान को देखते ही उपस्थित लोगों ने घेर लिया। अभिज्ञान ने सबका मुस्कुरा कर स्वागत किया, कुशल-क्षेम पूछी, दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद दिया और अन्त में स्वादिष्ट भोजन का रसास्वादन किया। दूध-जलेबी का भी ख़ूब लुत्फ़ उठाया। संस्कृति की बहनों व उनके पतियों से देर तक चर्चा की, उन्हें घर पर आमंत्रित किया तथा कोई भी काम होने पर नि:संकोच सेवा का अवसर देने का अनुरोध किया। 

चलने से पहले अभिज्ञान ने संस्कृति से पूछा, “भाभी, बहुत देर से आँखें जिसे तलाश रही थीं—अनिरुद्ध अभी तक नज़र नहीं आए; कहाँ हैं वे?” 

“उन्हें आने का कह कर आयी थी लेकिन अभी तक नहीं आए,” कहते समय संस्कृति के चेहरे पर उदासी घिर आयी। 

“अरे, क्या तबीयत तो ठीक है उनकी?” 

“तबीयत तो ठीक है, शायद वे लेट आएँगे,” संस्कृति अचकचा कर बोली। 

हतप्रभ से अभिज्ञान ने कहा, “मैं अभी फ़ोन लगाता हूँ।”

“नहीं भैया जी, रहने दें, वे स्वतः ही आ जाएँगे,” संस्कृति ने रोका। 

“तो ठीक है भाभी, हम चलते हैं . . . खाना बहुत बढ़िया था। आप सबको धन्यवाद,” कहते हुए अभिज्ञान ने सबका अभिवादन किया। 

“बाय भाभी . . .” अंजलि ने गले लगकर विदा ली। 

रास्ते में आकांक्षा ने कहा, “पापा, जहाँ मैं बैठी थी, वहाँ कुछ लेडीज़ बातें कर रही थीं कि मेयर साहब आ गए पर दूल्हे के जीजाजी नहीं आए। दूसरी महिला द्वारा कारण पूछने पर वह बोली कि बड़े आदमी हैं, ससुराल वालों को अपने क़द का नहीं मानते इसलिए आने में हिचकिचाते हैं!”

“क्या?” अभिज्ञान अवाक् रह गया। बोला, “यदि यह बात सच है तो मैं हैरान हूँ और झूठ है तो भाभी के उदास चेहरे का कारण?” 

“पापा, संस्कृति आंटी बहुत अच्छी हैं . . . बहुत सरल-सीधी, भोली सी . . .”

“सुनिये जी,” चुपचाप सुन रही अंजलि बोली, “आप अनिरुद्ध भैया से कुछ न कहना . . . वरना पति-पत्नी के बीच वैमनस्य बढ़ जायेगा जबकि भाभी ने तो कुछ कहा तक नहीं। जानते हुए भी वे यही कहती रहीं कि अभी आ जाएँगे।”

“ठीक कहती हो, अंजलि। यह रिश्ता ऐसा है जिसमें तीसरे का दख़ल ठीक नहीं। मुझ जैसे साधारण व आधारहीन व्यक्ति के मेयर बनने की कहानी का रहस्य यहीं छिपा है कि मैं अपने मन को भीतर से ख़ुश रखता हूँ तथा औरों को भी ख़ुशियाँ प्रदान करने का प्रयास करता हूँ . . . मान कर चलें, कोई अपनों को दुःखी करने में ख़ुद की ख़ुशियाँ ढूँढ़ना चाहे तो इसे मानसिक दिवालियापन ही कहा जाएगा।” 

अंजलि कुछ कहती, इसके पहले ही अभिज्ञान फिर बोला, “सच कहूँ तो मेरी संवेदनाएँ भाभी के साथ हैं और चाहूँगा कि मेरे मन में उनके प्रति सम्मान से उन्हें हमेशा ख़ुशी मिले। ये ख़ुशियाँ प्रत्येक को यथासंभव प्रदान करना ही हमारी असली पूँजी है।”

“वास्तव में . . .” अंजलि ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा। 

तब तक वे अपने घर की चौखट के सामने पहुँच गए थे। 

 

संस्कृति भाई के विवाह के बाद बेटी अनुपमा के साथ सुबह-सुबह घर लौटी तो जैसे वहाँ वातावरण में तनाव पसरा था। संस्कृति के मन में भी ग़ुस्सा था, पति अनिरुद्ध व सास-ससुर तथा दोनों विवाहित ननदों के प्रति जिन्होंने विवाह में शामिल न होकर उसकी व उसके पीहर वालों की भावनाओं व सम्मान की कोई परवाह न की थी जबकि वह स्वयं अपने ससुराल पक्ष के हर कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही थी। निश्चय ही इससे उसके मन में उनके सम्मान में गिरावट आई थी। 

घर में घुसते ही संस्कृति का पति से सामना हुआ जिसने उपेक्षा से अपना मुँह फेर लिया था। 

बेटी भी अपने पापा के इस व्यवहार से आहत हुई थी। संस्कृति सीधे रसोई में आकर व्यस्त हो गई और अनुपमा पापा के पास जाकर खड़ी हुई तो अनिरुद्ध ने कहा, “क्या किया वहाँ इतने दिन तक?” 

“मामा की शादी में ख़ूब एन्जॉय किया पर आप क्यों नहीं आए थे, बोलो?” 

“बस, यूँ ही . . . तुम दोनों चले गए थे तो सबकी क्या ज़रूरत थी?” 

अनुपमा तत्क्षण बोली, “मगर दोनों भुवाओं के यहाँ तो छोटा सा काम पड़ने पर भी आप सबको साथ ले जाते हो . . . जबकि वहाँ इतना अपनापन भी नहीं मिलता जितना नानी के घर मिलता है। सब लोगों ने आपकी इन्तज़ार की लेकिन जब आप कोई नहीं आए तो सबको कितना बुरा लगा . . . क्यों न आए थे आप व दादा-दादी?” 

“सच कहूँ तो वहाँ जाने का मन ही नहीं हुआ,” अनिरुद्ध बोला। 

“क्यों मन नहीं हुआ जबकि वे लोग तो आपकी कितनी मान-मनुहार करते हैं।”

“करते होंगे, उससे क्या?” 

“उससे क्या, मतलब?” 

“वे छोटे लोग हैं, हम बड़े . . .”

“छोटे यानी?” 

“छोटे यानी उनका रहन-सहन व जीवन-स्तर हमारे जैसा नहीं . . . एक हमारा घर है, एक उनका! वहाँ तुम्हारा मन कैसे लगता होगा?” 

“क्यों, मेरी तो वहाँ से आने की इच्छा ही नहीं होती, इतना प्यार करते हैं सब लोग,” अनुपमा के मन में पापा के कथन पर ख़ूब नाराज़गी भर गई। 

अनिरुद्ध ने कहा, “तुम्हें लगता नहीं, वहाँ कितने छोटे-छोटे कमरे हैं; न एसी है, न अटैच्ड लेट-बाथ . . . मैं तो वहाँ नहीं जा सकता।”

“तो क्या, कुछ घंटों के लिए भी नहीं आ सकते थे? और शादी तो गार्डन में हुई थी, कितनी सुन्दर जगह थी वह। और खाना भी बहुत बढ़िया . . . पता है कितनी सारी डिशेज़ बनी थी वहाँ?” 

“तुमसे पूछ-पूछ कर बनायीं थीं क्या?” 

“हाँ, यही मान लो . . . लेकिन वहाँ मैंने आपको बहुत मिस किया क्योंकि वहाँ सबके पापा थे सिवाय मेरे . . . कितनी बुरी बात थी यह! मम्मी भी इस बात से बहुत परेशान रही।”

अनिरुद्ध ने पास पड़े अख़बार को उठा कर उसमें आँखें गड़ा दीं . . . 

लेकिन, अनुपमा ने कहना जारी रखा, “मालूम है, वहाँ अभिज्ञान अंकल, अंजलि आंटी व आकांक्षा भी आए थे?” 

“फिर?” अनिरुद्ध ने अख़बार में आँखें गड़ाए कहा। 

“फिर क्या? उन सबको भी वहाँ बहुत अच्छा लगा। अंकल ने वहाँ सबसे बातें कीं और खाने की भी ख़ूब तारीफ़ की। आकांक्षा ने अपने पापा के मोबाइल से हम सबकी ढेरों फोटो खींच कर मम्मी व आपके नम्बर पर भी भेज दी थीं . . . आपने देखी थीं फोटो?” 

“हाँ, देखी थीं।”

“कैसी लगीं फोटो? मम्मी तो परी लग रही थीं ना?” अनुपमा के स्वर में जिज्ञासा व ख़ुशी थी। 

“मम्मी से कहो, मेरे लिए चाय बना दे,” अनिरुद्ध ने बेटी को अनसुना कर दिया तो वह मन मार कर मम्मी के पास चली आयी। 

“अनुपमा, इधर तो आ . . . दादी से बात नहीं करेगी?” 

“दादी, मैं बस आ ही तो रही थी।”

“इतने दिन जाकर ही बैठ गई वहाँ?” अनुपमा की दादी कमला देवी ने शिकायती प्रश्न दरअसल बहू संस्कृति की ओर उछाला था। 

“इतने-कितने दिन? 4-5 दिन ही तो हुए हैं! पता है, मेरी दोनों मौसियाँ तो 15 दिन पहले ही आ गई थीं और अभी भी वहीं हैं।”

“तो वे फ़ालतू होंगी घर से . . . “

“फ़ालतू की क्या बात है, मैं तो आपसे कुट्टा हूँ जो शादी में न आईं। दादा-पापा को भी न भेजा और न दोनों भुवा ही आईं।”

“हो जा कुट्टा . . . मैं भी तेरे से कुट्टा हूँ,” कमला देवी ने मुँह बिगाड़ते हुए कहा। 

अनुपमा मम्मी के पास रसोईघर में आ गई जहाँ संस्कृति आँखों से आँसू पोंछ रही थी। 

यह देख कर अनुपमा अपनी मम्मी की टाँगों से लिपट गई व धीरे से बोली, “मम्मी, क्यों रो रही हो आप? दादी तो पागल हैं!”

फिर एकाएक याद आया, “और हाँ, पापा ने चाय बनाने को बोला है।”

संस्कृति ने चाय के लिए दूध चढ़ा दिया व चाय बना कर अनुपमा को दे दी। संस्कृति ने देखा, अनिरुद्ध अभी भी बाहर बालकनी में बैठे थे। रसोई की खिड़की से बालकनी को वह भली प्रकार देख सकती थी और उसने उस वार्तालाप को भी सुना था जो अनुपमा का अनिरुद्ध व दादी से हुआ था। 

अनुपमा चाय लेकर अपने पापा के पास गई। छोटी किन्तु बुद्धिमान बालिका को यह अहसास तो हो ही गया था कि मम्मी-पापा के बीच शादी को लेकर ठनी हुई है और इसमें मम्मी की कोई ग़लती नहीं है। वैसे भी पापा व दादी द्वारा उसके ननिहाल पक्ष को भला-बुरा कहने व उनकी मज़ाक उड़ाने का सिलसिला वह होश सँभालने से लेकर सुनती आई है और मम्मी को आँसू बहाते हुए भी ख़ूब देखा है उसने। 

तभी उसके दादा दीनानाथ जी मॉर्निंग वॉक करके लौट आए थे। अनुपमा ने उनके चरण छूकर आशीर्वाद लिया तो वे बोले, “आ गई हमारी बिटिया? अरे, तुम्हारे बिना तो घर सूना हो गया था।”

“दद्दू, आप बैठो, मैं आपके लिए दूध लेकर आती हूँ और मिठाई भी।”

अनुपमा रसोई में गई और अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मी, वह मिठाई का डिब्बा तो दो . . .”

“मेरे बैग में से निकाल लो अनु . . .”

अनुपमा ने तीन-तीन प्लेटें मिठाई व नमकीन की सजा दीं फिर एक-एक प्लेट अपने पापा, दादा व दादी के आगे रख दीं।

“मुझे नहीं खानी, वापस ले जाओ,” उसके पापा ने कहा। 

“यह बासी मिठाई खाऊँगी क्या मैं?” दादी ने मुँह बनाया। 

“अरे, मैं तो खाऊँगा . . . भूख भी लगी है! यदि भूख न होती तो भी बहू के भाई की शादी की मिठाई तो ज़रूर खाता,” कहते हुए अनुपमा के दादा प्लेट में से काजू कतली, इमरती व मक्खन बड़े उठा कर खाने लगे। 

“भई वाह, मज़ा आ गया। मिठाई बहुत अच्छी लगी।”

“दद्दू, एक बात बताओ, आप . . . मेरे मामा की शादी में क्यों नहीं आए थे?” 

“मैंने तो तुम्हारे पापा को कहा था पर वह टस से मस नहीं हुआ। ख़ैर, तुमने वहाँ एन्जॉय किया ना?” 

“किया मगर आप लोगों के बिना मज़ा किरकिरा हो गया . . . पता है, वहाँ मेयर अंकल व उनकी फ़ैमिली भी आयी थी। वे भी पापा के न आने से परेशान हुए। मैंने उनकी बेटी जो मेरे सहेली भी है, के साथ डांस भी किया। उसने फोटो खींच कर पापा के मोबाइल पर सेंड किए, आपको बताए थे?” 

“वेरी गुड, लेकिन तुम्हारे पापा ने तो मुझे बताए ही नहीं।”

अनुपमा उखड़ गई। बोली, “पापा भी ना . . . हाय, कितने प्यारे फोटो थे! मम्मी तो बहुत सुन्दर लग रही थीं।”

“और तुम? तुम भी तो परी लग रही होगी?” 

“पापा ने बहुत गड़बड़ की है . . . न आपको लाए, न ख़ुद आए। फोटो तक न बताए! मैं उनसे नाराज़ हूँ!” अनुपमा मुँह फुलाए बैठ गई। 

“पापा से पूछो, शादी में क्यों न आए थे?” दीनानाथ जी बोले। 

“पापा और दादी एक जैसे हैं, कुछ समझते ही नहीं।”

“अब चुप कर . . . ख़ूब ज़ुबान चलती है तेरी। लड़कियों के ये लक्षण अच्छे नहीं होते,” कमला देवी ने ग़ुस्से से कहा। 

अनुपमा रुआँसी हो गई . . . आँखों में आँसू भी उमड़ आए थे। यह देख उसके दद्दू उसे मनाने लगे। उसकी दादी को भी झिड़का, “तुम भी इतनी उमर लेने के बाद भी नकचढ़ी ही रही। अरे, किस बात का ग़ुस्सा कर रही हो अपनी प्यारी सी पोती पर? कुछ अक़्ल है कि नहीं? वह तुम्हारे लिए शादी की मिठाई लेकर आई, उसे खाना तो दूर, उसमें मीन-मेख निकालने लगी। आख़िर किस बात का घमण्ड है तुम्हें? बेटा आर.ए.एस. बन गया तो कुछ भी कह दोगी? भगवान से तो डरो, अब तो जीवन में बचे ही कितने से दिन हैं? कुछ अच्छाई लेकर मरोगी या बुराई की गठरी साथ ही ले जाओगी, बोलो?” 

संस्कृति डरी-सहमी सी रसोई में खड़ी सब सुन रही थी। ससुर जी के उद्गार सुनकर उसके मन का मैल धुल सा गया कम से कम उनके प्रति तो। वह गर्म दूध का गिलास लेकर रसोई से बाहर निकली। गिलास को टेबल पर रखा और ससुर जी के मन-प्राण से पैर छुए। 

“ख़ुश रहो बहू,” दीनानाथ जी ने कहा और भावुक होकर बोले, “मुझे माफ़ कर देना बहू, मैं चाह कर भी विवाह में सम्मिलित न हो सका। ये माँ-बेटे पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं जो अभिमान में इतने चूर हैं!”

“बाबूजी, आप दूध में जलेबी डाल लें। शुद्ध देशी घी की हैं . . . माँ, आप भी दूध के साथ जलेबी लें,” संस्कृति के कथन पर मन ही मन उबल रही कमला देवी ग़ुस्से में बोलीं, “नहीं खानी मुझे, एक बार कह तो दिया!”

दीनानाथ जी ने कहा, “मुझे दो बहू, वो कहते हैं ना-दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, तो इन जलेबियों पर भी खाने वालों का नाम लिखा है . . . इनके भाग्य में ये जलेबी नहीं हैं भई!”

संस्कृति चुपचाप रसोई में आ गई। पीछे-पीछे अनुपमा भी। दोनों ने एक दूसरे को ख़ामोश नज़रों से देखा . . . संस्कृति ने अनुपमा को भी दूध-जलेबी डाल दी और वह मज़े लेकर खाने लगी। 

संस्कृति ने लंच बना कर अपने ससुर को थाली परोसी तो उन्होंने पूछा, “बहू, तुमसे बात ही नहीं हुई। शादी कैसी रही?” 

“अच्छी रही बाबूजी, सब काम आपके आशीर्वाद से शान्ति से निपट गया,” संस्कृति ने मुस्कुरा कर कहा। 

“तुम्हारे मोबाइल में जो फोटोज़ हैं, मुझे दिखाना,” दीनानाथ जी के कथन पर संस्कृति ने कहा, “जी बाबूजी, आप खाना खा लीजिए फिर अनुपमा दिखा देगी।”

दीनानाथ जी ने सारे फोटो देख कर ख़ूब सराहना की तथा फोटो में अनजान चेहरों की जानकारी बहू से ली। 

आज रविवार के दिन अनिरुद्ध को ऑफ़िस नहीं जाना था अतः घर पर ही रहा। लंच लेकर वह बेडरूम में आकर लेट गया। 

संस्कृति ने खाना खाया तब तक उसके सास-ससुर व अनुपमा भी गहरी नींद में सो गए थे। 

संस्कृति विचारने लगी, सराहना करना बहुत आसान होने पर भी हर कोई नहीं करता, आख़िर क्यों? जबकि सराहना करने पर जेब से कुछ भी ख़र्च नहीं होता . . . यह कई लोगों की कैसी प्रकृति है क्योंकि सराहना से दोनों को ख़ुशी मिलती है—जो करता है उसे भी और जिसकी सराहना होती है उसे भी; बावजूद सराहना में लोग इस क़दर कंजूस क्यों होते हैं? संभवतः ऐसे लोगों का मन संकुचित होता है और वे किसी का अच्छा होने पर भी मन में कुढ़ते रहते हैं, इसीलिए उनके मुँह से प्रशंसा के बोल नहीं फूटते। इसके विपरीत, जो दूसरों की ख़ुशी में स्वयं ख़ुश होते हैं, वे सराहना द्वारा न केवल स्वयं के मन को भी निर्मल व प्रसन्न रख सकते हैं बल्कि सराहना करने वालों के मन भी जीत लेते हैं। आदमी कितना भी पढ़-लिख जाए लेकिन यदि उसमें सराहना करने का गुण नहीं तो फिर उच्च डिग्रियाँ व उच्च पद निरर्थक हैं। सराहना के लिए पर्याप्त कारण के बावजूद उसमें कृपणता करके आदमी अपने आपको बड़ा पद होने पर भी छोटे क़द का बना लेता है जबकि यह स्थिति स्वयं उसके स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। अपने मन को प्रसन्न रखने के लिए किसी की प्रशंसा करना औषधि का काम भी करता है। मज़े की बात यह कि किसी की सराहना न करने वाला व्यक्ति अपने लिए सराहना की अपेक्षा रखता है। 

आज संस्कृति की दृष्टि में अपने ससुर का क़द बढ़ गया था लेकिन अपने पति व सास का क़द छोटा हो गया था। 

लंच के बाद संस्कृति अपने बेडरूम में घुसी तो वह भारी मन से बेड पर लेट गई। तभी पति का स्वर उसके कानों में पड़ा, “इतने दिन क्यों लगा दिए आने में?” 

संस्कृति ने सोचा, काश अनिरुद्ध यह कहते कि सॉरी यार, मैं शादी में नहीं आया, वाक़ई मुझसे भूल हुई है। 

पर, अनिरुद्ध किसी मुलायम मिट्टी का नहीं बना था जो संस्कृति की ख़ुशी के लिए ऐसा कह देता . . . यदि वह ऐसा कहता तो उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू उमड़ आते! पर अनिरुद्ध तो करुणाविहीन था . . . क्या किसी कौवे के मुख से कोयल की कूक सुनाई दी है भला? 

“तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया?” अनिरुद्ध के स्वर की कठोरता अब कर्कशता में परिवर्तित हो गयी थी। 

संस्कृति ने हौले से जवाब दिया, “भाई की शादी थी, 4-5 दिन ज़्यादा लगे आपको?” 

“तो और रुक जाती या परमानेंट वहीं रह जाती!” अनिरुद्ध का स्वर धारदार हो गया था अतः संस्कृति ने अपनी विनम्रता त्याग कर प्रतिप्रश्न किया, “याद करें, आपकी शादी में आपकी बहनें कितने दिन रुकी थीं?” 

संस्कृति के सवाल पर अपनी हार होती देख अनिरुद्ध का उत्तर टेढ़ा था, “ख़बरदार, जो मेरी बहनों को बीच में लाई तो!”

उच्च पदासीन किन्तु पति की योग्यता न रखने वाले अनिरुद्ध से हर बार संस्कृति को समझौता करना पड़ता था . . . आज भी बात आगे न बढ़ाने की ग़रज़ से उसने अनिरुद्ध को मीठा उलाहना दिया, “मेरे पीहर से सब लोग निमंत्रण देकर गए थे, फिर भी क्यों न आए आप?” 

“तो भेज दिया न तुम्हें, क्या ज़रूरी था कि हम सब भी आते!”

अनिरुद्ध की तल्ख़ी अभी कम न हुई थी। 

“क्या मेरे माँ-बाप व भाई आपके कुछ नहीं लगते? संस्कृति के कथन में रिश्तों को निभाने का विनम्र आग्रह था।” 

“तुम मेरे मुँह से यह क्यों सुनना चाहती हो कि तुम्हारे पीहर पक्ष के लोग मेरे परिवार के स्तर के नहीं हैं! अब तो मिल गया उत्तर?” 

अनिरुद्ध का यह कथन समझौतावादी तो क़तई न था उल्टे उक्त कथन ने संस्कृति के हृदय को पति के प्रति घृणा से भर दिया। 

“मेरे पीहर वालों ने आपके व आपके परिवार को सदैव सम्मान दिया है, बावजूद आपने उनका प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जान-बूझ कर तिरस्कार किया। यदि वे पद व पैसे से आपके स्तर के नहीं हैं तो आप भी रिश्तों की गरिमा बनाये रखने में उनके स्तर के नहीं हैं! और यदि आपकी दृष्टि में सम्मान से अधिक पद व पैसा ही है तो फिर क्यों किया था मुझसे रिश्ता? कोई ऐसी लड़की ही ढूँढ़ते जो आपके स्तर से पद व पैसे में मेल खाती हो!”

“मैंने तो ऐसी ही लड़की का चयन किया था, लेकिन . . . लेकिन अभिज्ञान ने सारा खेल बिगाड़ दिया . . . सही बात है कि शादी तो बराबर वालों में ही होनी चाहिए,” ऐसा कह कर अनिरुद्ध ने संस्कृति पर कभी घाव न भरने वाला तीर चला दिया था। 

“मैं तो स्कूल-कॉलेज में हमेशा टॉपर रही। आप न आते तो कहीं बढ़िया जॉब मिल गयी होती और आज मुझे आपसे ऐसे अपमानजनक तर्क न सुनने पड़ते। जो व्यक्ति दूसरों को पद या पैसों से ही तोलता हो, जिसके लिए अपनेपन व संस्कारों का कोई मोल नहीं; पहले पता होता तो यह रिश्ता ही क्यों बनता?” कहते हुए संस्कृति का मन वितृष्णा से भर उठा। 

“चाहो तो अब भी रिश्ता टूट सकता है!” अनिरुद्ध ने एक तरह से सम्बन्ध-विच्छेद की धमकी दे दी। 

“आपके आर.ए.एस. बनने से पहले आपका स्तर कैसा था? क्या उस समय आप एक निम्न स्तर के व्यक्ति थे? और आपके पापा ने सेवानिवृत्ति के बाद यह घर बनाया, तब तक आप किराये के मकान में रह रहे थे, क्या भूल गए वह सब? हक़ीक़त यह है कि उस समय आप मर्यादित आचरण करते थे किन्तु अब आर.ए.एस. बन कर अमर्यादित भाषाई बन गए हैं और अब तो पत्नी के माँ-बाप व भाई दीन-हीन दिखाई देते हैं भले वे मानवीयता की मिसाल ही क्यों न हों . . .”

“मुझसे बहस करने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं, समझ गई?” 

“हाँ, बहस भी केवल बराबर वालों से ही की जा सकती है . . . यह बात अलग है कि मैंने स्कूल व कॉलेज की ऐसी कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता नहीं थी जिसे जीता न हो! मैंने हमेशा की तरह आज भी कोशिश की कि अपनी गृहस्थी में आग नहीं लगने दूँगी लेकिन आपने तो मेरे पीहर वालों को ही स्तरहीन बता दिया . . . शादी से पहले इंटरस्कूल व इंटरकॉलेज डिबेट्स में अपने तर्कों से विनम्रतापूर्वक धूल चटाने वाली यह लड़की शादी के बाद एक दब्बू महिला बन गई। मुझे कमज़ोर समझ कर आप मुझ पर हावी होते चले गए, क्षोभ होता है मुझे।”

“तो ठीक है, निकल जाओ अभी मेरे घर से और ज़रा भी स्वाभिमानी हो तो दुबारा कभी आने की कोशिश भी न करना।”

“ठीक है, जाती हूँ मैं। मेरे रगों में अभी इतना आत्मसम्मान बाक़ी है!” कहते हुए संस्कृति चुपचाप उठी और डाइनिंग हॉल, जहाँ अनुपमा व उसके दादा-दादी दोपहर की गहरी नींद में सोये हुए थे, उसने एक ख़ाली पेपर में दो पंक्तियाँ लिखीं—

“बाबूजी, क्षमा करना, आपको बिना बताए जा रही हूँ . . . मुझे आपके बेटे ने अभी घर छोड़ कर जाने का आदेश दे दिया है और कहा है कि यदि मुझमें ज़रा सा भी स्वाभिमान हो तो दुबारा इस घर में लौट कर न आऊँ . . . क्योंकि उन्हें पछतावा है कि मेरे पीहर वाले उनके स्तर के नहीं हैं! आपको मेरा प्रणाम। अपना ख़्याल रखना बाबूजी। 

—संस्कृति “

संस्कृति ने पत्र को हौले से अपने ससुर जी के तकिये के नीचे रख दिया तथा नींद की आग़ोश में सोयी हुई अनुपमा को वह बिना आहट किए गोद में उठाकर घर से बाहर निकल गई। 
 

संस्कृति ज्योंही सोयी हुई अनुपमा को गोद में उठाकर घर से बाहर निकली, अनिरुद्ध तेज़ी से बालकनी की ओर भागा तो उसने संस्कृति द्वारा एक टैक्सी को हाथ देकर रुकवाते हुए देखा जिसमें बैठकर वह बिना एक क्षण गँवाये रवाना हो गई। उसने मकान या बालकनी की ओर मुड़कर तक नहीं देखा जहाँ वह खड़ा था। 

उसे ध्यान आया, “जब-जब मैं ऑफ़िस के लिए रवाना होता था, संस्कृति व अनुपमा घर की बालकनी में खड़े होकर मुझे विदाई देते थे, शाम को घर लौटने के लिए! लेकिन . . . लेकिन आज मैंने संस्कृति व बेटी अनुपमा को कैसी विदाई दी थी कि मुझे ख़ुद नहीं पता, वह इस घर में कब लौटेगी अथवा लौटेगी भी या नहीं?” 

उसे पता था, उसने संस्कृति को जो कुछ कहा था, उसके बाद कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति उस घर में दुबारा क़दम नहीं रखेगा . . . उसे क्षोभ हुआ कि उसने संस्कृति को क्या कह दिया था! 

वह आज ही तो भाई की शादी के बाद घर में आई थी, और उसका स्वागत करना तो दूर, उसे इतना अधिक अपमानित कर दिया था कि वह घर छोड़ने को विवश हो गई। 

ओफ़, यह क्या हो गया? उसे घबराहट होने लगी . . . उसने डाइनिंग हॉल में अपने माँ व बाबूजी को अभी तक सोते देखा तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा रसोई में घुसा। उसने विचारा, “संस्कृति आज चार दिन बाद आते ही रसोई के काम में जुट गई थी और लंच बनाकर सबको खिला अंत में स्वयं खाकर सारे बर्तन साफ़ कर बेडरूम में मुझसे प्रेम के दो शब्द की अपेक्षा से बेड पर लेटी ही थी कि मैंने वातावरण में अपने कड़वे शब्दों से कड़वाहट घोल दी थी, बावजूद संस्कृति बात को सँभालने का भरसक प्रयास करती रही थी लेकिन . . . उफ़! यह मैंने क्या किया?” 

रसोई में अनिरुद्ध की नज़र उस डिब्बे पर टिक गई जिसमें वह शादी की मिठाई लेकर आई थी। अनायास ही उसने मिठाई का डिब्बा खोला, जिसमें काजू-कतली, इमरती व मक्खनबड़े पड़े थे . . . यह सब देखकर उसका मन चीत्कार कर उठा। 

सहसा वह दौड़कर बेडरूम में आया यह देखने के लिए कि क्या वह अपना सूटकेस नहीं ले गई है? बेडरूम में उसने संस्कृति का सूटकेस रखा पाया जिसे खोल कर देखा तो उसमें संस्कृति व अनुपमा के कपड़े पड़े थे। साथ ही उसकी ज्वैलरी भी ज्यों की त्यों पड़ी मिली। यानी वह कुछ भी साथ लेकर नहीं गई थी। 

अनिरुद्ध ने अपनी आँखें मूँद ली थीं . . . वह मन ही मन बोला, “क्या करूँ अब मैं? आज तो बहुत अनर्थ हो गया!”

कुछ देर बाद दीनानाथ जी की नींद उड़ी तो उन्हें पोती अनुपमा का ख़्याल आया जो अब वहाँ नहीं थी। वे उठ कर बैठे और तकिये को उठा कर कमर के पीछे दीवार के सहारे लगा लिया। किन्तु तभी उनकी दृष्टि उस काग़ज़ पर पड़ी जो तकिये के नीचे रखा था। 

दीनानाथ जी ने मुड़े हुए काग़ज़ को खोला और विस्फारित नेत्रों से उसमें लिखे संदेश को एक-दो-तीन बार पढ़ा तो अचानक उनका सिर चकरा गया। 

उन्होंने ज़ोर से अनिरुद्ध को आवाज़ लगाई। अनिरुद्ध सकपका कर अपने रूम से बाहर आया तो दीनानाथ जी बोले, “बहू कहाँ है?” 

“जी . . . जी . . . बाबूजी, पता नहीं।”

वे पत्र बेटे की ओर बढ़ा कर कड़के, “यह क्या है?” 

पत्र पढ़कर अनिरुद्ध जैसे आसमान से गिरा। उसे यह आशा न थी कि वह बाबूजी को पत्र लिखकर छोड़ जाएगी . . . अब तो वह कुछ कहने योग्य भी नहीं रहा था और न ही कोई झूठी कहानी गढ़ने की स्थिति में था। 

दीनानाथ जी ने फिर से कड़क कर बेटे को पूछा, “तूने यह सब बहू को कहा?” 

“मैं . . . मैं . . .”

इस बीच कमला देवी की नींद भी उड़ गयी थी। वह उठ कर बैठ गईं और पति व बेटे दोनों का मुँह ताकने लगी। 

“क्या हुआ बेटे?” कमला देवी के प्रश्न का अनिरुद्ध कोई उत्तर नहीं दे पाया। 

“यह हाथ में क्या है, मुझे बता . . .”

पत्र को पढ़ कर कमला देवी का शरीर भी सुन्न पड़ गया था। वह पूछने लगीं, “क्या कुछ कहा-सुनी हो गयी थी?” 

“हाँ मम्मी, मेरे मुँह से यह बात निकल गई तो वह अनुपमा को गोद में उठाकर चली गई।”

“देख ली अपने बेटे की दुष्टता? अरे, यह घर मैंने बनाया था, यह मेरा घर है . . . इसमें इससे मैंने फूटी कौड़ी भी नहीं ली थी!”

अनिरुद्ध के समक्ष ऐसी दुविधाजनक स्थिति पहले कभी न आयी थी . . . आज उसे लगा कि वह कोई उपखण्ड अधिकारी नहीं बल्कि उसकी हैसियत तो एक चपरासी जैसी भी नहीं है! 

“मुझसे ग़लती हो गई बाबूजी . . .” अनिरुद्ध रुआँसा हो गया। 

“ग़लती हो गई तो उसे रोका क्यों नहीं? क्यों नहीं उसके पैरों में गिरकर माफ़ी माँगी? इस धृष्टता की इससे कम सज़ा तो बनती भी नहीं थी,” दीनानाथ जी तैश में आ गए थे। 

“क्या हो गया, यदि कह दिया तो? कुछ कहा ही था, उसकी पिटाई तो न की थी! अरे, इतना दंभ कि पति की छोटी सी बात भी सहन नहीं कर सकी?” कमला देवी साफ़-साफ़ बेटे के पक्ष में उतर आईं। 

“ठीक है, अब मैं भी कह रहा हूँ, तुम दोनों निकलो मेरे घर से . . . तुम्हें कोई हक़ नहीं है, बहू को निकाल कर इस घर में रहने का . . . और कान खोल कर सुन लो, मुझे शक्ल मत दिखाना जब तक बहू को लेकर वापस नहीं आ जाते!” दीनानाथ जी क्रोध से उबल रहे थे। 

“क्यों निकलूँ घर से, अब तो मेरी अर्थी ही निकलेगी इस घर से . . . समझे आप?” कमला देवी विलाप करने लगीं। 

“हाँ, वैसे यह सज़ा भी कम नहीं है तुम्हारे लिए कि इस बुढ़ापे में आराम से गर्मागर्म रोटियाँ मनुहार के साथ परोसने वाली बहू के मान-सम्मान से विमुख हो गई! तुम दोनों हो भी इसी लायक़! लाट साहब आर.ए.एस. अफ़सर क्या बन गए, दूसरों को दीन-हीन समझने लगे . . . जो अपनी सुयोग्य पत्नी का न हो सका, वह किसका सगा होगा . . . और पत्नी भी कोई साधारण नहीं, बल्कि मन-प्राण से सेवा को समर्पित . . . अब भुगतो नतीजे! अरे, तुम दोनों माँ-बेटे के स्तर से तो लाख गुना अच्छा स्तर है बहू के पीहर वालों का . . . तुम दोनों के मुँह से तो सिर्फ़ काँव-काँव ही निकलती है और उनके मुँह से प्रेम के पुष्प झरते हैं! यही अन्तर है दोनों के स्तर का। वे मन के अमीर हैं और तुम मन के भिखारी . . . शर्म आती है मुझे तुम्हारी सोच पर!”

दीनानाथ जी के तेवर के आगे माँ-बेटे के हौसले पस्त हो गए थे। 

वे फिर से बड़बड़ाने लगे, “पहले शादी में न गए फिर बहू ने मिठाई परोसी तो लगे नाक मुँह सिकोड़ने . . . अरे, इतना घमण्ड? अब ले के बैठे रहो अपने स्तर को . . . बनाओ रसोई में रोटियाँ और लगाओ झाडू-पोंछे . . . मलो झूठे बर्तनों को और धोओ अपने कपड़े . . . फिर पता लगेगा तुम्हें अपने स्तर का! और ख़बरदार, जो कोई काम वाली को रखा तो . . . यह घर मेरा है, मैं तुम लोगों के लिए कोई काम वाली को न रखने दूँगा। तभी तो तुम्हें अपनी औक़ात पता चलेगी। या तो ख़ुद बनाओ-खाओ या फिर भूखे मरो . . . मैं भी यह सज़ा भुगतने को तैयार हूँ तुम दोनों दुष्टों के साथ! तुमने एक सुलक्षणा नारी का अपमान किया है, दिल दुखाया है उसका; तो इससे कम सज़ा तो तुम्हें मिलने से रही . . .”

दीनानाथ जी थक-हार कर एक कोने में बैठ गए थे और माँ-बेटे मुँह लटकाए कभी दीनानाथ जी को निहारते, कभी एक दूसरे को . . . 

उधर संस्कृति के पीहर के दरवाज़े पर टैक्सी रुकी तो सबकी आँखें फटी रह गईं। घर की तीसरे नंबर की सबसे छोटी बेटी सुबह राजी-ख़ुशी गई थी तो अब वापस कैसे आ गई? सबके ललाट पर चिन्ता की लकीरें उभर आयीं। 

संस्कृति की मम्मी माया देवी ने आगे बढ़ते हुए पूछा, “बेटी, सब ठीक तो है?” 

संस्कृति इस प्रश्न का क्या उत्तर देती? चेहरे से मुस्कान भी ग़ायब हो गई थी। 

सब लोगों की उठती निगाहों से परेशान उसने कहा, “अंदर बैठो, बताती हूँ।”

अनुपमा भी अब तक जाग गई थी। उसने सबकी ओर मुस्कुरा कर देखा फिर मम्मी को कुरेदा, “मम्मा, हम वापस नानी के घर आ गए हैं क्या?” 

“हाँ बेटा, अब तुम बच्चों के साथ खेलो।”

सब जने संस्कृति को घेर कर बैठ गए थे। उसके पापा मिश्री लाल जी भी ऊपर के कमरे से संस्कृति को देख कर नीचे आ गए। 

“संस्कृति, अब बोलो भी, क्या बात हुई?” दोनों बड़ी बहनें दिव्या व आराधना को चिन्तायुक्त उत्सुकता सता रही थी। 

संस्कृति ने पहले सामने रखी बोतल से पानी पिया फिर भाई की ओर देख कर बोली, “भाभी को लेने उनके पीहर से कोई आ गए थे क्या?” 

“हाँ, तुम्हारे आने से कुछ पहले ही वे लोग समता को ले गए थे।”

संस्कृति ने बोलना शुरू किया, “मम्मी-पापा, आप तो जानते ही हैं, वे लोग यानी अनिरुद्ध, उनकी माँ व बहनें हमें नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे . . . अभी शादी में उनका सम्मिलित न होना भी उनकी इसी मानसिकता को दर्शाता है कि हम सबको यह अहसास हो कि हम उनके मुक़ाबले बहुत छोटे हैं, उनकी बराबरी के योग्य नहीं हैं . . . और वे तो यह भी नहीं चाहते कि मैं यहाँ आऊँ; आकर रहना तो बहुत बड़ी बात है . . . क्योंकि मेरे आने से उनकी रईसी में ख़लल जो पड़ जाता है . . . वे मुझे मुफ़्त की नौकरानी समझते हैं, और कुछ भी नहीं! जब जो जी में आता है, कह देते हैं . . . कभी-कभी तो इतनी ज़लालत के शब्द सुनाते हैं कि आँखों से आँसुओं की बारिश होने लगती है! 
उस घर में एकमात्र इंसान के रूप में देवता तुल्य हैं—मेरे ससुर जी जो न केवल मेरी प्रशंसा करते हैं बल्कि हर ग़लत बात पर बाक़ी सबकी ख़बर भी लेते हैं!”

फिर संस्कृति ने सबको बताया कि आज सुबह घर जाने पर किसकी क्या क्या प्रतिक्रिया रही . . . फिर बताया अनुपमा का उसके पापा व दादी तथा बाद में दादा के साथ संवाद . . . दादा की दादी व पापा को फटकार तथा स्वयं उसका अनिरुद्ध के साथ संवाद व अन्त में बतायी इसकी परिणति यानी घर छोड़ने तक की कहानी। 

“अब क्या होगा?” सुनकर माया देवी तनावग्रस्त हो गयी थीं। 

“मम्मी, यह एक दिन की बात नहीं थी, वे रोज़ मुझे अपनी हैसियत बता कर ज़लील करते थे। फिर भी मैं सहन करती रही लेकिन आज वे शब्द—’निकल जाओ अभी मेरे घर से और ज़रा भी स्वाभिमानी हो तो दुबारा कभी आने की कोशिश भी न करना।’ बार-बार मेरे कानों से टकराकर, मेरी आत्मा को लहूलुहान कर रहे हैं।”

“तू चिन्ता मत कर बेटी, हम सब तेरे साथ खड़े हैं!” मिश्री लाल जी का स्वर आकण्ठ स्नेह में भीगा हुआ था। 

संस्कृति ने कहा, “आप कोई भी मेरी बिल्कुल चिन्ता न करें। मेरी उस समय शादी न होती तो आज मैं अपने पैरों पर खड़ी होती लेकिन देर हुई है, रास्ते बंद नहीं हुए हैं। आप मेरी योग्यता पर भरोसा करें, आपकी यह बेटी कभी आपकी नाक नीची न होने देगी।”

माया देवी की शारीरिक थकान मिटी न थी कि उन्हें मानसिक थकान ने आ घेरा था। 

सब लोग बैठे ही थे कि संस्कृति के मोबाइल पर मैसेज की रिंग टोन बजी थी। 

संस्कृति ने देखा, मैसेज ससुर जी का था जिन्होंने लिखा था—

“बहू, आज दोपहर जब मैं सो कर उठा तो तकिये के नीचे पड़ा तुम्हारा पत्र पढ़ कर सिहर उठा . . . अनिरुद्ध को ज़ोर से पुकार कर बुलाया। पूछा, बहू कहाँ है? 
जवाब मिला—पता नहीं! 

“मैंने उसे पत्र थमा दिया तो वह सकते में आ गया . . . उसने सोचा, अब तो झूठ भी नहीं चल सकता। 

“तब तक उसकी माँ की भी नींद उड़ चुकी थी। पूछा, क्या हुआ? उसने पत्र लाड़ले के हाथ से लिया . . . मैंने कहा, देख ली अपने बेटे की दुष्टता? अरे, यह घर मेरा है, इसमें उसकी फूटी कौड़ी भी न लगी थी! 

“अनिरुद्ध बोला, ’ग़लती हो गई बाबूजी . . .’ 

“मैंने तैश में आकर कहा, ’ग़लती हो गई तो बहू को रोका क्यों नहीं? क्यों न बहू के पैरों में गिरकर माफ़ी माँगी?’ 

“उसकी माँ ने कहा, ’कहा ही तो था, पिटाई तो न की थी! क्या इतनी सी बात बहू सहन न कर सकी?’ 

“मैंने कहा, ’तुम दोनों अभी निकलो मेरे घर से . . . तुम्हें कोई हक़ नहीं कि बहू को निकाल कर मेरे घर में रहो . . . और ख़बरदार, जो मुझे शक्ल भी दिखायी जब तक बहू को लेकर वापस नहीं आ जाते!’ 

“उसकी माँ विलाप करने लगी, ’अब तो मेरी अर्थी ही निकलेगी . . .’ 

“मैंने कहा, ’तो ठीक है, रोटियाँ बनाओ, झूठे बर्तन मलो, झाडू-पोंछे लगाओ, कपड़े धोओ . . . फिर पता चलेगा तुम्हें अपने स्तर का! और सुन लो, यह घर मेरा है, यहाँ सारा काम अब तुम्हें ही करना पड़ेगा, कोई काम वाली नहीं आएगी। ख़ुद बनाओ या भूखे मरो . . . मैं भी भूखे मरने को तैयार हूँ तुम दोनों दुष्टों के साथ! तुमने एक सुलक्षणा नारी का अपमान किया है, दिल दुखाया है उसका, तो इससे कम सज़ा तो मिल नहीं सकती . . . अरे, तुम दोनों माँ-बेटे के स्तर से तो लाख गुना अच्छा स्तर है बहू के पीहर वालों का! तुम दोनों के मुँह से तो काँव-काँव ही निकलती है और उनके मुँह से प्रेम पुष्प बरसते हैं! यह अन्तर है तुममें व उनमें, समझे? वे मन के अमीर हैं और तुम मन के भिखारी . . . जो व्यक्ति अपनी गुणी पत्नी का न हो सका, वह किसका सगा होगा? शर्म आती है मुझे ऐसे अफ़सर बेटे पर!’ 

“बहू, यह सब तो कुछ नहीं, कुछ ज़्यादा ही सुनाया। यह घर मेरा है, वह कौन होता है तुम्हें बेघर करने वाला? अब माँ-बेटे दोनों की अक़्ल ठिकाने आ गई है . . . और हाँ, इस मकान की रजिस्ट्री पहले तुम्हारे नाम कराऊँगा, उसके बाद ही घर आना। उसकी अकड़ हमेशा के लिए निकल जाएगी।”

संस्कृति ने संदेश अपने पापा को पढ़ने के लिए दिया जिसे उन्होंने सबको पढ़ कर सुनाया . . . 

तभी दूसरा संदेश अनिरुद्ध का आया—

“मैं बहुत शर्मिंदा हूँ . . . क्षमाप्रार्थी हूँ। दुबारा कभी ऐसा नहीं होगा। सारी ग़लती मेरी ही थी . . . सॉरी, वेरी सॉरी . . . इस बार माफ़ कर दो . . . अनिरुद्ध।”

माया देवी ने नम आँखों से कहा, “बेटी, आज पता चला, तेरे ससुर जी का मन कितना निर्मल व पवित्र है जो तुझे एक-एक बात लिख कर भेजी है। धन्य हैं वे कि अपनी बहू के आत्मसम्मान के लिए एक प्रशासनिक अधिकारी बेटे व उसकी माँ को बुरी तरह ज़लील करने से भी नहीं हिचकिचाए . . . “

मिश्री लाल जी बोले, “ठीक कहा तुमने, ऐसे व्यक्ति बिरले ही होते हैं जो सत्य की राह पर रिश्तों से अधिक मन की शुद्धता को वरीयता देते हैं। यूँ सबका अपना अपना मन होता है; किसी के मन को समझना भी टेढ़ी खीर है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार उसके मन से नियंत्रित होता है। किसी का मन भावुक होता है तो किसी का अतिसंवेदनशील . . . कोई पत्थर दिल होता है जो कभी पिघलता ही नहीं . . . किसी की प्रकृति ग़ुस्सैल होती है तो उसका मन बात-बात पर बिगड़ जाता है . . . किसी का मन भोला होता है, किसी का काला, किसी का उजला . . . किसी का मन हठी होता है जो समझाए से भी नहीं समझता . . . किसी का दार्शनिक मन अपने में ही खोए रहता है . . . सवाल उठता है कि आख़िर कैसा हो मन? इस बात का रहस्य जिसने जान लिया तो उसका मन सदैव प्रसन्न रहता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं को ही ख़ुश नहीं रखते वरन् औरों के मन को भी जीत लेते हैं . . . ख़ुद के मन को प्रसन्न रखने वाले कभी मानसिक रोगी नहीं हो सकते . . . इस तरह वे न केवल अपने-अपनों, बल्कि अन्यों को भी हानि नहीं पहुँचा सकते।” 

संस्कृति ने अपने ससुर को लिखा—

“प्रणाम, बाबूजी। विनम्रता के साथ कहना चाहती हूँ कि मुझे मकान की रजिस्ट्री अपने नाम नहीं करवानी . . . मैं तो प्रेम की भूखी हूँ। आपने मुझे जो स्नेह दिया है, वही मेरी वास्तविक पूँजी है। मकान तो ईंट-पत्थर का होता है बाबूजी, भूकम्प के एक झटके से ज़मींदोज़ हो सकता है . . . लेकिन प्रेम शाश्वत होता है जो मरने के बाद भी जीवित रहता है। रिश्तों से बढ़ कर तो कुछ भी नहीं होता . . . न मालूम क्यों, लोग मन के रिश्तों को भुला कर पद व धन के भूखे हो जाते हैं! 

आपकी बहू, 
संस्कृति।”

बाबूजी का प्रत्युत्तर आया—

“धन्यवाद बहू, तुमने मेरी बात मान ली . . . तुमने अपने संदेश से तो मेरा मस्तक ऊँचा कर दिया! 

“तुम आ जाओ, रजिस्टर्ड विल तो मुझे तुम्हारे ही नाम करानी है . . . मुझे अब तुम्हारे अलावा किसी पर भरोसा नहीं रहा! 

“हम तीनों तुम्हें ससम्मान लेने कल सुबह आ रहे हैं। 

“घर पर समधी जी व समस्त परिजनों को यथायोग्य। 

—बाबूजी।”

संदेश पढ़कर माया देवी ने टिप्पणी की, “इसीलिए कहते हैं, घर में बड़े-बुजुर्गों का होना कितना ज़रूरी है! आज संस्कृति के ससुर जी के कारण ही एक घर बिखरने से बच गया।”

आज सब बहुत ख़ुश थे . . . संस्कृति के चेहरे पर मुस्कान देखकर सबको अपार सुकून मिल रहा था। 

और, अनुपमा . . . जब से उसने सुना कि कल दादा, दादी व पापा तीनों आ रहे हैं, उसकी ख़ुशी की तो कोई सीमा ही नहीं थी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 24 Feb, 2022 02:05 AM

    बहुत समय बाद मन को बाँधने वाली कहानी पढ़ी। आपने अन्य आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी।

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