महाकाल : एक अद्भुत अनुभूति
शकुन्तला बहादुरमहाकाल -
"वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम,
त्वया ततं विश्वमनन्तरूपम्।" - गीता
जिसका दर्शन नहीं किया है,
तुमने, मैंने और किसी ने।
विश्वरूप उस महाकाल का,
चित्र बनाया इस कविता ने॥
नवरस, षट् रस, भावानुभाव को,
द्वन्द्वात्मक जग के स्वरूप को।
जिसने "स्व" में किया समाहित,
शुभ और अशुभ, समय-असमय को॥
अन्तर्मन में पैठ के गहरे,
ध्यानस्थ मन से जिसको जाना।
है अपूर्व ये ज्ञान उन्हीं का
किसने है उसको पहचाना॥
निर्विकार होकर जो जग का,
संचालन, संहारण करता।
बार बार उस ज्ञान में डूबी,
समझ न पाई उसकी सत्ता॥
रहस्यमयी अद्भुत विभूति की,
मुझे हुई अनुभूति सुखद सी।
अक्षम हूँ अभिव्यक्ति में उसकी,
"गूँगे के गुड़" की ही जैसी॥
निराकार पर शक्तिपुंज जो नित ही,
व्याप रहा है जो ब्रह्मांड सकल पर।
जिसके इंगित पर नाचे सारा जग,
नमन उसे मेरा ये शीश झुकाकर॥
1 टिप्पणियाँ
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रहस्यवाद की अनुपम झलक