हवाई द्वीप में: सागर के प्रति

01-06-2024

हवाई द्वीप में: सागर के प्रति

शकुन्तला बहादुर (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

 सागर! तुम नटवर नागर हो, 
 हर पल में रूप बदलते हो। 
 नित नूतन से तुम लगते हो॥
 
 ब्रह्मा ने थी जब सृष्टि रची, 
 तब वरुण बने जल के अधिपति। 
 पर रूप कृष्ण का मन भाया, 
 उसको ही तुमने अपनाया॥
 
 तुम कभी साँवरे से लगते, 
 तो कभी नील तन में भाते। 
 फिर हुए गुलाबी उषा-काल में, 
 लहरों में बहते से आते॥
 
 सूर्योदय और सूर्यास्त काल में, 
 शोभित तुम अरुणाभ लिये। 
 तुम कभी सुनहरी सूर्य-किरण से, 
 जगमग स्वर्णिम आभ लिये॥
 
 फिर दुग्ध धवल फेनिल लेकर, 
 तुम तट से जब टकराते हो। 
 तब जन-जन के चरणों की रज, 
 धोकर निज संग ले जाते हो॥
 
 पूनम का चाँद निकलता है तो 
 उछल उछल इठलाते हो। 
 सीपी, घोंघे और शंख लिये, 
 सिकता तट पर बिखराते हो॥
 
 अद्भुत सौन्दर्य तुम्हारा है, 
 अपलक नैनों से हम तकते। 
 प्रति पल तुम बहते जाते हो, 
 पर कभी नहीं तुम हो थकते॥
 
 चाहें कितनी नदियों का जल, 
 आकर तुम में ही समा जाए। 
 चाहें नभ से कितने बादल भी, 
 बरस बरस कर थक जाएँ॥
 
 पर अचल प्रतिष्ठा वाले तुम, 
 मर्यादा में ही रहते हो। 
 अपने मन की कोई भी व्यथा, 
 तुम नहीं किसी से कहते हो॥
 
 सागर तुम नटवर नागर हो। 
 सागर तुम नटवर नागर हो॥

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