अविस्मरणीय पड़ोसी – विल्डे
शकुन्तला बहादुरलम्बी अवधि से हम किसी से परिचित होकर भी कभी-कभी नितान्त अपरिचित ही रह जाते हैं किन्तु कभी-कभी हमारा अल्पकालीन परिचय भी शीघ्र ही आत्मीयता और घनिष्ठता में बदल जाता है। जब किसी व्यक्ति के गुण, स्वभाव अथवा व्यक्तित्व का कोई अन्य पक्ष मन को इतना प्रभावित कर लेता है कि हम सहज ही उसकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं। वर्ष 1963 की बात है, जब मैं जर्मन प्राध्यापिका रोज़मेरी शालर के साथ प. जर्मनी के ट्यूबिगेन शहर में गार्टेन्श्ट्रासे पर रही थी। एक दिन सायंकाल घंटी बजी और द्वार खोलने पर मुस्कुराते अपरिचित दम्पती को खड़े देखा। तत्काल ही परिचय मिला कि मेरे ऊपर वाले अपार्टमेंट में अभी-अभी रहने के लिए आए श्रीमती एवं श्री विल्डे हमसे भेंट करने आए हैं। शालर भी उस समय तक घर आ चुकी थी, अतः हम दोनों ने ही उनका स्वागत किया और आतिथ्य भी। प्रथम भेंट में ही मुझे वह सरल स्वभाव के लगे। “हम यहाँ रहने आए हैं तो अपने आसपास के परिवारों को हमारे विषय में और हमें उनके विषय में जानना ही चाहिए। पड़ोसी से मित्रता सुखदायी होती है– यदि स्वार्थ बीच में न आ जाए। इसीलिए हम मिलने चले आए।” उस दिन के बाद से हम लोग जब भी कभी मिलते– मुस्कुरा कर “गुटेन मॉर्गेन” या “गुटेन टाग” (गुडमॉर्निंग, गुड डे) कहना नहीं भूलते थे।
उस दिन बहुत बर्फ़ गिरी थी– वृक्ष भी बर्फ़ से ढक गए थे– पृथ्वी पर भी बर्फ़ की मोटी तह जमी थी। मैं इंस्टीट्यूट से लौटी तो देखा घर के सामने के खुले हिस्से में मानव आकृति सी बन रही है। हिल्डेगार्ड और हेनरी ने दौड़ कर मुझे दिखाया कि वो लोग स्नोमैन (बर्फ़ का आदमी) बना रहे हैं। उनकी माँ ने ऊपर की मंज़िल में अपनी खिड़की से झाँक कर बच्चों को आवाज़ दी और स्नोमैन के गले में बाँधने के लिए एक पुराना मफलर फेंका। दोनों आँखों की जगह पर दो बड़े कोयले लगवाए और मुँह में फँसाने के लिए सेब दिया। हाथ में छड़ी सी पकड़ने को कहा। थोड़ी ही देर में यह आकृति पूरी तरह सज गई थी। अपने परिश्रम को सफल देखकर बच्चे भी प्रसन्न हो गए थे और उनकी माँ भी बच्चों की कलाकृति को देखकर गद् गद् हो रहीं थीं। अपने बच्चों को शाबाशी दे रहीं थीं। इसी क्षण मेरे मन में विचार आया कि भारत में बादल देख कर ही हम अपने बच्चों को घर में बुला लेते हैं– पानी बरसने वाला है– भीग जाओगे- बीमार हो जाओगे। यहाँ माता-पिता अपने बच्चों को मज़बूत बनाने और मनोरंजन के लिए उत्साहित भी करते हैं और मार्गदर्शन भी। पानी बरसने पर स्कूल जाने वाले हमारे बच्चे प्रायः घर में ही रुक जाते हैं और यहाँ बर्फ़ गिरती रहती है– फिर भी बच्चे स्कूल जाते हैं– डर कर घर में नहीं बैठ जाते। कई बार मैंने देखा था कि सड़क पर चलते हुए बच्चे चॉकलेट का काग़ज़ या आइसक्रीम की डंडी तब तक हाथ में पकड़े रहते थे– जब तक उसे फेंकने का कोई उपयुक्त स्थान नहीं आता था – जहाँ-तहाँ न फेंकने का पाठ उन्हें बचपन से ही पढ़ाया जाता है। सप्ताह में एक बार सफ़ाई वाली गाड़ी आकर कूड़ा उठा ले जाती थी। सभी अपने-अपने घरों के सामने अपने ढक्कनदार बन्द कूड़ेदान सबेरे ही रख कर मोटर निकालते और तब काम पर जाते थे। शाम को आकर ख़ाली बाल्टी उठा कर घर में रख लेते थे। कभी-कभी तो पुराना फ़र्नीचर या और भी ऐसी प्रयोग की हुई चीज़ें फुटपाथ पर रक्खी रहती थीं– जिन्हें सफ़ाई वाले उठा ले जाते थे।
विल्डे परिवार बड़ा मिलनसार था। वे कभी कहीं घूमने जातीं तो मुझसे भी चलने को कह देतीं– बच्चे भी आग्रह करते। बाज़ार जाते समय भी प्रायः मुझसे पूछ लेतीं कि कुछ चाहिए तो नहीं? उधर से लेती आएँगी। मैं भारत से अपने लिए चमड़े के जूते ख़रीद कर ले गई थी– उन्हें पहिनने की आवश्यकता नहीं पड़ी। मैंने चलने से पूर्व उनकी बेटी हिल्डेगार्ड को भेंट किए तो मुझसे मूल्य बताने का आग्रह करने लगीं। बड़ी कठिनाई से मैंने उन्हें रोक पाया था। मैंने बच्चों के पिता से कैमरे, टेपरिकॉडर, टाइप राइटर और प्रोजेक्टर की जानकारी ली थी और उनके प्रयोग की विधि भी सीखी थी। उस समय टेपरिकार्डर और टीवी आदि भारत में बहुत ही कम दिखाई देते थे और वह भी कुछेक अत्यन्त समृद्ध परिवारों में ही रहते थे। रेफ़्रीजरेटर भी अधिक सुलभ नहीं थे। वहाँ घरों-घरों में ये सभी वस्तुएँ सामान्य सी बात थी। वॉशिंग मशीन और कुकिंग रेंज भी प्रायः सभी परिवारों में होती थी। कभी-कभी मैं सोचती कि पता नहीं भारत में ये सुविधाएँ कभी प्राप्त हो सकेंगी या नहीं? इस दृष्टि से आज मुझे लगता है कि तैंतीस चौंतीस वर्षों में मध्यम वर्ग ने काफ़ी प्रगति की है।
एक दिन मैं संध्या समय श्रीमती विल्डे से मिलने उनके घर गई। बातचीत के दौरान वे लोग मेरे परिवार एवं भारत के विषय में बात करने लगे। ये समय भारत के लिए सुख शान्ति का नहीं था। 1963 में चीनी आक्रमण से संकट उपस्थित हो गया था। विल्डे ने चिन्ता प्रगट करते हुए कहा था– “ईश्वर करे शीघ्र ही भारत में शान्ति स्थापित हो जाए– मैंने तो युद्ध की विभीषिका को देखा ही नहीं– उसके दुष्परिणामों को भोगा– संकटों को भी झेला है– कभी भी ऐसी विपत्ति किसी देश पर न आए यही कामना करता हूँ।” सचमुच कुछ आवश्यकता से अधिक महत्वाकांक्षी व्यक्ति सत्ता लोलुप होकर जन साधारण को चक्की में पीस देते हैं– ये बहुत बड़ा अन्याय है। कितने ही परिवार बिखर जाते हैं– धन जन की हानि होती है। और सुख शान्ति छिन जाती है।
विल्डे द्वितीय विश्व महायुद्ध में युद्धबंदी होकर रूस के साइबेरिया प्रदेश में लम्बे समय तक रहे थे। वहाँ के कष्टों का क्या कहना? मुँह धोने के लिए पानी की आवश्यकता होने पर बर्फ़ को हाथ में लेकर मलते थे– पिघल जाने पर उसे ही मुँह पर लगा लेते थे। खाने के लिए कई-कई दिन बाद सूखे, कड़े और मोटे टिक्कड़ मिलते थे, जो चबाते भी नहीं बनते थे। वस्त्रों के रूप में बोरे से लटकाए घूमते थे। अवधि समाप्ति पर आँखों में पट्टी बाँधकर उन्हें सीमा पर लाकर छोड़ दिया गया था– उस रूप में समाज में प्रवेश करने में उन्हें लज्जा अनुभव हो रही थी। पास में पैसे भी नहीं थे जो वस्त्र ख़रीद लेते। किसी व्यक्ति से कहकर किसी तरह अपनी पत्नी के पास जीवित लौटने की सूचना भेजी थी जो उनके पहिनने के लिए कपड़े लेकर आईं और वे अपने घर पहुँचे। इस अवधि में उनकी पत्नी को उनके जीवित होने की भी जानकारी नहीं थी। यहाँ-वहाँ भाग-भाग कर पता करने के लिए अनथक प्रयत्न करती रहीं। कहीं-कहीं कार्य करके जीविका निर्वाह करती रहीं थीं। श्रीमती विल्डे कहती थीं कि वापस आने के बाद भी कुछ भी बात करते समय वे सदा भयभीत और आशंकित से रहते थे। इधर-उधर देखकर धीरे से कुछ भी बोलते थे। इतने वर्षों तक (रूस में) युद्ध बन्दी रहते हुए उनके मन में बसी दहशत उनका स्वभाव सा बन गई थी– हर समय उन्हें लगता था कि उनके आसपास छिपा हुआ कोई व्यक्ति उनकी बात को सुन रहा है और कहीं कोई बात उनके लिए किसी नये संकट का कारण न बन जाए। बार-बार चौंक पड़ते थे और अक़्सर पीछे घूम-घूम कर देखते थे कि कहीं कोई उनक पीछा तो नहीं कर रहा है? उन्हें सामान्य स्थिति में आते बहुत समय लगा। इस बीच उनके पति चुपचाप बैठे सारी बातें सुनते-सुनते न जाने किन विचारों में खो से गए थे। फिर बड़े गंभीर होकर बोले थे, “उन दिनों मैं सोचता था कि कभी जीवित अपने देश पहुँच गया तो यही सोचूँगा कि मुझे पहिनने को एक जोड़ा कपड़े और समय का खाना मिल जाए बस मैं पूरी तरह सन्तुष्ट रहूँगा। अपने आप को बहुत बड़ा आदमी समझूँगा।" मैं अवाक् उन्हें देखती रह गई।
समय के साथ परिवर्तन स्वाभाविक हैं शान्त स्वभाव के (हेअर-जर्मन में मिस्टर के लिए प्रयुक्त होता है।) हेअर विल्डे और उनकी पत्नी ने स्वयं को पुनः ज़िन्दगी से जोड़ लिया था। अपने दोनों बच्चों के साथ उन्हें और भी ख़ुशियाँ मिल गईं थीं। सामान्य जर्मन परिवारों की भाँति उन्होंने भी अपने पुरुषार्थ से प्रतिकूल परिस्थितियों और निराशा को जीवन से उखाड़ फेंका था और अपनी दुनियाँ को ऐसी रोशनी से जगमगा दिया था कि सारा अँधेरा कहीं दूर भाग कर खो गया था। जीवन संघर्षों की अग्नि में तपकर वे दोनों खरे सोने से दमकने लगे थे।
मेरे ट्यूबिंगेन से चलने के पूर्व एक दिन विल्डे परिवार ने मुझे रात्रि भोजन पर आमंत्रित किया था। भोजन के बाद मुझे गिलास में कुछ पेय देते हुए श्रीमती विल्डे बोलीं– पीकर देखो, तुम्हें ज़रूर अच्छा लगेगा। मेरे मना करने पर उनका प्रश्न था कि वह अंगूर से बना है फिर मैं क्यों नहीं पी सकूँगी? मैंने किसी दिन उनसे कहा था कि मैं फल से बना पदार्थ खा लेती हूँ। इसी धारणा से उन्होंने बड़े आग्रह से ग्रेप वाइन पीने को दी थी। मुझे अपना दृष्टिकोण उन्हें स्पष्ट करना पड़ा तो वे मुस्कुरा दीं। ट्यूबिंग की चित्रावली पुस्तक के रूप में भेंट की। वर्षों पत्र-व्यवहार चलता रहा बच्चे भी लिखते थे। क्रिसमस पर उपहारों का आदान-प्रदान भी होता रहा था। मेरे बच्चों के जन्म पर बधाई सन्देश और खिलौनों के उपहार भी आए। उसके बाद कुछ समय तक सम्पर्क टूट सा गया था। बहुत समय तक उनका कोई पत्र भी नहीं आया था। मुझे शालर से ये सूचना मिली थी कि विल्डे कुछ अस्वस्थ चल रहे हैं– अस्पताल में हैं। दो वर्षों पूर्व श्रीमती विल्डे का ख़त आया था। लिफ़ाफ़े में एक फोटो थी। विल्डे की समाधि के सामने उनकी पत्नी और बेटे बेटी खड़े थे (समाधि) क़ब्र के चारों ओर बहुत से फूल लगे थे। विल्डे का मुस्कुराता चेहरा आँखों के सामने घूम गया। अल्बम निकाल कर देर तक उनके परिवार के साथ खींची गई तस्वीरें देखती रही – पिछली सारी घटनाएँ चलचित्र के समान दिखाई दीं। मन स्थिर होने पर पत्र पढ़ने की याद आई। विल्डे कैंसर से पीड़ित हो गए थे– बड़े कष्ट में रहे अन्त में स्वर्गवास हो गया। उनकी पत्नी ने अपने मन का दर्द उस पत्र में बहा दिया था। कई बार पत्र पढ़ा और अनायास ही आँखों से कई अश्रु बिन्दु पत्र पर ढुलक गए।