ऊँचे पर्वत पर हम आए।
मन में हैं ख़ुशियाँ भर लाए॥

पाइन के हैं वृक्ष बड़े।
सीधे प्रहरी से हैं खड़े॥

देखो कैसी झरती झर झर।
गिरती जाती बर्फ़ निरन्तर॥

बरस रही है सभी तरफ़।
दुग्ध-धवल सी दिखे बरफ़॥

आज हुआ कैसा हिम-पात।
ढकी है धरा, ढके तरुपात॥

ऐसा लगे शीत के भय से।
सूरज भी न निकला घर से॥

बादल की वह ओढ़ रज़ाई।
बिस्तर में छिप लेटा भाई॥

हैं मकान सब ढके बर्फ़ से।
बन्द रास्ते हुए बर्फ़ से॥

देखो ज़रा निकल कर बाहर।
चलो बर्फ़ में सँभल सँभल कर॥

बर्फ़ थपेड़े दे गालों पर।
जूतों में गल जाए पिघलकर॥

ऊँचे कोमल बर्फ़ के गद्दे।
बिछे हुए सब कहीं हैं भू पर॥

मन करता है लोटें उन पर।
बच्चों के संग मिल मिलकर॥

बर्फ़ के लड्डू बना बना कर।
बच्चे खेलें ख़ुश हो हो कर॥

मारें इक दूजे को हँस कर।
फिर भागें किलकारी भर कर॥

और कभी मन होता ऐसा।
बचपन में खाया था जैसा॥

बर्फ़ का चूरा हाथ में लेकर।
उस पर शर्बत लाल डाल कर॥

चुस्की लेकर उसको खाएँ।
घिसी बर्फ़ का लुत्फ़ उठाएँ॥

बड़ा मनोरम दृश्य यहाँ है।
अपना मन खो गया यहाँ है॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
लोक गीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में