क्या जला पाएँ हैं रावण
अर्चना कोहली ‘अर्चि’
अग्नि में फूँकते हर साल ही हम
लंकापति रावण को,
पर क्या जला पाए हैं
हृदय में छिपकर बैठे,
ईर्ष्या-द्वेष-अहंकार के पुतले।
शिव को प्रसन्न करने के लिए
दशानन ने शिवलिंग पर
दसों के दसों सिर,
चढ़ा दिए पर क्या,
हम त्याग पाए कोई भी व्यसन।
मायावी रूप धर देवी सीता का
हरण कर लिया,
शक्तिशाली लंकेश्वर ने,
पर क्या हम नहीं
हरते किसी के भी विश्वास को।
क्रोध में आकर महाशक्तिशाली
वेदों के ज्ञाता रावण ने,
सबके सामने विभीषण को
त्यागा, हम भी तो
ग़ुस्से में बिखेर दें नाज़ुक रिश्ते।
अभिमान में अपने पूरे कुल का
लंकेश ने किया विनाश
ओ मनुज! तुम भी तो
घमंड में मर्यादा तोड़,
अपना करते रहते हो सर्वनाश।
माना कुछ बुराइयांँ दशग्रीव में
पड़ी भारी गुणों पर वे
पर तुम भी तो,
बुराइयों को सींच रहे
अंतर्मन की बंद वाटिका में रोज़।
बुराई पर सच्चाई का प्रतीक है
विजयादशमी का त्योहार
पर क्या सच में,
जलाकर रावण को,
भस्म कर पाए हर बुरी आदत।
जलाए दशहरे पर बस हमने
रावण-कुंभकरण-मेघनाथ
के मात्र पुतले,
पर क्या अच्छाइयाँ उनकी
कुछ भी कर पाए हों ग्रहण।
हराया क्या हम सबने मिलकर
दूसरों के प्रति मन में बसी,
नाग-सी विषैली सोच को
जो धर्म-भाषा-जाति,
के नाम पर खींच देती दीवारें।
बस करो अब करना दिखावा
जलाना है तो जलाओ,
मन के भीतर छिपे हुए
हर एक बुराई रूपी रावण को।