धूप और बादलों से 

15-12-2022

धूप और बादलों से 

डॉ. हर्षा त्रिवेदी (अंक: 219, दिसंबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

देह की क़ैद में 
पूछती हूँ उड़ते परिंदों से
धूप और बादलों से
तुम्हारी बातें कैसी होती हैं? 
 
दिन-रात
इतनी उन्मुक्तता में
किससे मिल आते हो? 
और क्यों? 
 
अपने फेफड़ों में
इतनी साँसें भरकर 
क्या कभी
चाँद के पास भी जाते हो? 
 
क्या तुम्हें 
कभी कोई भी
रोकता टोकता नहीं? 
तुम्हारे रिश्तों का रेशम
क्या बाँधता नहीं? 
 
मन में उठती हिलोर को
बासों की मरमारती हवा
देह का गणित याद दिलाती है
मैं फिर 
उस समाज के बारे में
सोचने लगती हूँ
जहाँ अंधकार
अभी प्रकाश से घना है। 

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