वेदांत: धर्म, संस्कार, मूल्यों और वैदिक संस्कृति का सार 

15-10-2024

वेदांत: धर्म, संस्कार, मूल्यों और वैदिक संस्कृति का सार 

डॉ. हर्षा त्रिवेदी (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मानव मन की सारी गतिविधियों और क्रियाकलापों का संचालन केंद्र मन संस्थान है। मानव का संपूर्ण जीवन विचारों से संचालित होता है और उन्हीं विचारों के अनुरूप वह आचरण करता है; जो कि उसके कर्म बनते हैं और उसी के अनुरूप उसके चरित्र का निर्धारण होता है। अतः कहा जा सकता है कि विचारों का परिष्कार और परिमार्जन आज के युग की मूलभूत आवश्यकता है। इसी कारण सभी धर्मों एवं धर्मग्रंथों ने सर्वसम्मति से इसे प्रथम विवेचन योग्य विषय स्वीकार किया है। सनातन धर्म में भी भाव शुद्धि और विचार शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। स्वामी राधाकृष्णन का कथन है, “मानव का दानव बन जाना उसकी पराजय है, मानव का महामानव होना एक चमत्कार और मानव का मानव होना उसकी सबसे बड़ी विजय।” 

अतः मानव का मानव होने हेतु मूलभूत आवश्यकता है उसका अपने धर्म, संस्कार, मूल्यों और वैदिक संस्कृति से परिचित होना। जहाँ तक धर्म की बात है जितना जटिल उसे आज के युग में विवेचित किया गया है या विभिन्न धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय विवेचित करने की कोशिश में लगे हैं, धर्म उससे कहीं अधिक सहज, सरल, सुलभ है। सहजता मानव की मूल प्रवृत्ति और नैसर्गिक गुण है। धर्म के मर्म को जानने हेतु किसी साधना किसी पंथ या संप्रदाय का अनुयाई होना अनिवार्य शर्त नहीं है। शर्त है तो एकमात्र और वह है अपने सहज, सरल रूप में रहना; किन्तु आज के वातावरण, शिक्षा पद्धति, विलुप्त होते संस्कार, पारिवारिक परिवेश, आत्मकेंद्रिकता आदि के कारण मानव जीवन भर असहज होने के लिए प्रयासरत रहता है; जो कि उसका मूल स्वभाव या नैसर्गिक प्रवृत्ति नहीं है। इस जीवन-भर की लक्ष्य-विहीन दौड़ से वह क्षणिक सुख तो प्राप्त कर लेता है; किन्तु जीवन-भर अंतर्द्वंद्व में रहते हुए अनेक मनोविकारों, कुंठा, निराशा आदि से ग्रसित हो जाता है। सामान्य सा उदाहरण है—एक बालक को आप हँसते, रोते, गाते, नाचते, लड़ते, झगड़ते सभी रूपों में देख सकते हैं; किन्तु उसके मूल में सहजता है, जिसके कारण वह पल भर में सामान्य हो जाता है। किसी तरह का नैराश्य उसे नहीं घेरता है। इसी जीवन-दर्शन या सहजता की ओर आज के मानव को अग्रसर होना है। इस दिशा में सनातन संस्कृति के मूल आधार ग्रंथ वेदांत की अहम भूमिका सर्वमान्य है। अगर उसे सहज, सरल और उसके मूल रूप में समझा जाए; न कि जटिल, तार्किक और शास्त्रार्थ का विषय बना कर आज की युवा पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। ऐसा विषय जिसे युवा पीढ़ी मात्र धर्म, शास्त्रार्थ या तर्क-वितर्क का साधन मानकर अब तक उसके मूल रूप से परिचित ना हो सकी। वेद हिंदुओं के आदि धर्म ग्रंथ है। वेदांत अर्थात्‌ ‘वेद का अंत’ अथवा अंग्रेज़ी में ‘क्रिएशन'। वेदों के दो भाग कर्मकांड और ज्ञानकांड से लगभग आप परिचित हैं। कर्मकांड जिसमें विभिन्न तरह के यज्ञ, जप, तप, मंत्र, अनुष्ठान आदि सम्मिलित है, जिसका अधिष्ठाता ब्राह्मण को माना गया है। इससे इतर कुछ ऐसे विषय हैं, जिनका सम्बन्ध अध्यात्म के मूल स्वरूप, विचारों के परिमार्जन, मूल्यों, संस्कारों, जीवन दर्शन पर आधारित है। उन सभी विषयों को जिन ग्रंथों में संकलित किया गया, वह ग्रंथ उपनिषद कहलाए और वेदों की उत्पत्ति का आधार उपनिषदों को माना गया। जहाँ तक वेदांत दर्शन की बात है, यह पूर्व में उत्तर-मीमांसा कहा गया। ‘मीमांसा’ अर्थात्‌ ‘किसी भी विषय को गहराई से जानना’ एवं दर्शन संस्कृत की ‘दृश’ धातु से व्युत्पन्न शब्द है, जिसका तात्पर्य है ‘देखना'। ”दृश्यते यथार्थ तत्त्वमनेेन” मनन, चिंतन, दर्शन द्वारा यथार्थ तत्त्व की सहज अनुभूति या जीवन के परे के दर्शन एवं अलौकिक आनंद की अनुभूति को अपने जीवन के रहते देखना ही दर्शन है। कालांतर में वेदांत दर्शन के तीन प्रमुख व्याख्याकार हुए। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद, रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद और मध्वाचार्य ने द्वैतवाद के माध्यम से वेदांत का पुनरुद्धार करने का प्रयास किया। निःसंदेह तीनों संप्रदायों की विचार पद्धति में सामान्य अंतर दृष्टिगत होता है; किन्तु तीनों का आधार वेदांत ही है। आज की युवा पीढ़ी या एक सनातनी को वेदांत से परिचित कराना उसे अपनी साँसों से परिचित कराने के समान है। यहाँ परिचय शब्द सार्थक प्रतीत नहीं होता, उचित होगा ‘महसूस कराना’। अपने भीतर के तत्त्व को महसूस करना ही वेदांत है। वेदांत हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि जीवन का यथार्थ स्वयं के भीतर है। उसे महसूस करो एवं उसके अनुरूप आचरण करो। वेदांत जीवन पद्धति है, दर्शन है। आवश्यकता है यह मानने और सहज रूप से स्वीकार करने की, कि हमारा जीवन वेदांत पर ही टिका है। वेदांत दर्शन बाहर से अंदर की खोज नहीं है। अंदर से बाहर की खोज है; लेकिन यह तब सम्भव है जब हम अपने अंदर के मूल तत्त्व को जान लें। जब व्यक्ति भीतर से सोचता है तो बाहर का लौकिक जगत उसके लिए एक सामान्य, नश्वर, भौतिक जगत से अधिक कुछ नहीं रहता और जब वह इस जगत की नश्वरता को सामान्य रूप से स्वीकार करता है तो जीवन अधिक सहज, सरल, सामान्य हो जाता है और जब जीवन अधिक सहज, सरल, सामान्य हो जाता है तो मानव स्वतः अनेक मनोविकारों से मुक्त हो जाता है। साथ ही वेदांत अनेेक धार्मिक पद्धतियों, परंपराओं, मान्यताओं संप्रदायों का न तो विरोध करता है, ना ही उन सब को एक करने के समर्थन में है। वेदांत कहता है रास्ते चाहे अनेक हों; लेकिन उन सभी का लक्ष्य अपने मूल तत्त्व से परिचित होना होना चाहिए। बाहरी शक्ति के केंद्रीकरण के बजाय भीतरी शक्ति के केंद्रीकरण हेतु प्रयासरत रहना चाहिए। अपने छोटे से जीवनकाल के अनुभव के आधार पर यह बात मैं पूर्ण दावे के साथ कह सकती हूँ कि भीतर की शक्ति को जागृत करना या केंद्रित करना बाहरी शक्ति संग्रहण के प्रयासों से कहीं अधिक सरल है। हाँ, नए विषय को समझने में जटिलता तो होती है। एक अंग्रेज़ी मीडियम के विद्यार्थी को हिंदी बहुत कठिन विषय लग सकता है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि हिंदी अंग्रेज़ी से कठिन है। कारण सिर्फ़ यह है कि विद्यार्थी को बचपन से सिर्फ़ अंग्रेज़ी माध्यम का ज्ञान दिया गया है। कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि बालक को जन्म से अगर वेदांत से परिचित कराया जाए, अगर भीतर की शक्ति संग्रहण हेतु अग्रसर किया जाए तो वह यह समझ जाएगा कि आनंद भीतर से आता है और यह समझ आते ही भौतिक सुख साधनों, संपदाओं के पीछे जीवन भर अविराम भागते रहने का उपक्रम स्वतः संतुलन में आ जाएगा। यही कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों साधकों के लिए वेदांत में जीना अत्यंत सरल रहा है, बजाय भौतिक साधनों के संग्रहण के। क्योंकि जीवन के प्रारंभ से ही वे वेदांत मैं जीने हेतु प्रयासरत रहे। 

विभिन्न धर्म नेताओं, कथाकारों और विद्वानों द्वारा यह भ्रामक प्रचार कि वेदांत अत्यंत कठिन दर्शन, जीवन पद्धति, जटिल साधना है, आज की पीढ़ी को अपने मूल से दूर करने का सबसे प्रमुख उत्तरदायी कारक है। हाँ यह अवश्य है कि आज की युवा पीढ़ी को यह बात प्रारंभ से ही सिखाई जाती रही है कि भौतिक सुख संपदा और बाहरी उपादान ही सुख और आनंद का स्त्रोत और सभी दुखों से मुक्ति का उपाय है। जीवन भर वह इसी अनुरूप आचरण करता है; लेकिन अंत में भी दुखों से मुक्त नहीं हो पाता और निराश हताश हो कुंठा का शिकार हो जाता है। 

यहाँ निकोलाई असोमोव के एक कथन का ज़िक्र करना चाहूँगी की, “दुख एक आंतरिक अभावात्मक धारणा है जिससे बाहरी उपादानों से नहीं भरा जा सकता।” और इस आंतरिक अभाव को दूर करने का एकमात्र माध्यम है वेदांत। 

शंकराचार्य ने वेदांत में स्पष्ट रूप से कहा है कि निर्गुण एवं सगुण दोनों के माध्यम से ब्रह्म अर्थात्‌ अपने मूल तत्त्व को अनुभव किया जा सकता है साधनों की अनेकता साध्य की प्राप्ति में कहीं भी बाधक नहीं। उनके अनुसार, “ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या” अर्थात्‌ केवल ब्रह्म सत्य है, बाहरी जगत केवल मिथ्या है, भ्रम है। बाहरी जगत उसी अंतर्जगत का प्रतिबिंब मात्र है। इसीलिए बाहरी जगत से संतुलन और तारतम्य हेतु आंतरिक जगत का संतुलित होना नितांत आवश्यक है। आंतरिक जगत के संतुलित होते ही मोक्ष तक की साधना जटिल नहीं रह जाती और मोक्ष ही सनातन संस्कृति में मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है मोक्ष का तात्पर्य क्यों नहीं व्यक्तियों से मुक्ति है जीवन मरण के चक्र से मुक्ति। वेदांत मनुष्य पशु पक्षियों सभी में पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास करता है। जीवन के चक्र में बार-बार आने का अर्थ है कई तरह की यात्राओं से गुज़रना और मोक्ष अर्थात्‌ परम आनंद। जीवन के अधिकांश दुखों का कारण माया है और माया से मुक्ति का उपाय केवल ब्रह्म का ज्ञान है। माया का पर्दा हटते ही ब्रह्म और शरीर में कोई भेद नहीं रहता। जीवित रहते हुए यदि इसका ज्ञान हो जाए तो मानव सांसारिक रहते हुए भी मोक्ष-सा आनंद प्राप्त कर सकता है। आज की शिक्षा पद्धति जो केवल पाठ्यक्रम आधारित शिक्षा है, बालक को जीविकोपार्जन हेतु तो तैयार करती है; लेकिन जीविकोपार्जन के साधनों को जुटाने की दौड़ को कहाँ विराम देना है, यह ज्ञान उसे नहीं देती। इस हेतु विद्या की आवश्यकता है, मात्र शिक्षा कि नहीं। शिक्षा बालक को भोगों से परिचित कराती है तो विद्या त्याग से। और सनातन संस्कृति, वेदांत दर्शन सभी त्याग की बात सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं जब व्यक्ति त्याग में भोग से अधिक आनंद महसूस करेगा तो कभी शांत ना होने वाले भोगों को शांत करने हेतु अनर्गल प्रयासों में लिप्त रहकर प्राणशक्ति का हास नहीं करेगा। 

तुलसीदास ने कहा है, “भोगा न भुक्ता वयमेेव भोक्ता”  अर्थात्‌ आप भोगों को नहीं भोगते, भोग ही आपको भोगते हैं। यह वह अग्नि है जिसमें आप जितना इंधन डालो उतना ही यह और भभकती है। और जिन लोगों की कभी तृप्ति हो ही नहीं सकती उनके पीछे समय धन और प्राणशक्ति को बर्बाद करना सबसे बड़ी मूर्खता है। 

अतः समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन और मनीषा के प्राण तत्त्व के रूप में वेदान्त को परिभाषित किया जा सकता है। वेदान्त सार रूप में भारतीय अस्मिता, प्रज्ञा और परम्पराओं का वह कोश है जिसकी अंतर्निहित ऊर्जा की कोह में पूरा सनातन जागृत एवं प्रतिबिम्बित होता है। 

 

संदर्भ : 

  1. https://www.nios.ac.in/media/documents/bgp/Secondary_Hindi/Bharatiya_Darshan_247/247_book1/247-Book1_L15.pdf 

  2. https://www.shivajicollege.ac.in/sPanel/uploads/econtent/e8b2ccaa63d3c1f156937a7d5446587c.pdf

  3. https://nios.ac.in/media/documents/bgp/Secondary_Hindi/Bharatiya_Darshan_247/247_book1/247-Book1_L16.pdf

  4. वेदान्त-दर्शन भाग-1 

  5. भक्ति : वेदान्त दर्शन के अनुसार - माहिमाइ माहडि www.ijcrt.org © 2023 IJCRT | Volume 11, Issue 3 March 2023 | ISSN: 2320-2882 

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