संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों का मूल आधार सनातन संस्कृति

01-10-2024

संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों का मूल आधार सनातन संस्कृति

डॉ. हर्षा त्रिवेदी (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

महोपनिषद में वर्णित श्लोक:

अयं निजः परो वेति, गणना लघु चेतसाम॥
 उदार चरितानाम तू, वसुधैव कुटुंबकम॥

समस्त मानव जाति के कल्याण की कामना करता है; जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों का मूल है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 25 सितंबर 2015 को पूरे विश्व के सुस्थिर विकास हेतु विश्व के 193 देशों में मानव के साथ-साथ समस्त पृथ्वी, पर्यावरण एवं प्राणी जगत के अच्छे भविष्य तथा सतत विकास के लिए विभिन्न लक्ष्यों का निर्धारण किया; जिन्हें सामान्य भाषा में संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्य (SDGs) के नाम से जाना जाता है। सभी सदस्य देशों की सहमति से कुल सत्रह विकास लक्ष्यों का निर्धारण किया गया:

  1. ग़रीबी उन्मूलन

  2. भुखमरी का समूल विनाश

  3. अच्छा स्वास्थ्य

  4. उच्च गुणवत्ता की शिक्षा

  5. लिंग भेद न करना

  6. स्वच्छ पानी की उपलब्धता तथा सफ़ाई

  7. वहन करने योग्य ऊर्जा के स्वच्छ स्रोत

  8. सम्मानजनक कार्य एवं आर्थिक संपन्नता

  9. देश के मूलभूत ढाँचे का विकास

  10. असमानता में कमी लाना

  11. सतत विकासशील शहरीकरण एवं समाज

  12. उत्पादन एवं उपभोग में समन्वय

  13. जलवायु परिवर्तन के साथ समन्वय

  14. जलीय जीवों का संरक्षण एवं संवर्धन

  15. स्थलीय जीवों का संरक्षण एवं संवर्धन

  16. शान्ति एवं न्याय प्रिय समाज की संरचना

  17. विकसित एवं विकासशील देशों के बीच में सहभागिता

पिछले कुछ दशकों के अवलोकन से यह पता चलता है कि समाज में अन्याय, असुरक्षा तथा नाना प्रकार के दुखों का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है; परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की गई हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं न्याय के साथ भयमुक्त वातावरण में जीवनयापन कर सके। संयुक्त राष्ट्र संघ के 2030 की परिकल्पना में भी मानव मात्र को संपूर्ण सम्मान, बराबरी का दर्जा तथा भेदभाव रहित समाज का लक्ष्य है। 

संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों का गहनता से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आज विश्व स्तर पर जो समस्याएँ सर्वाधिक है, जिन समस्याओं के निराकरण हेतु विश्व के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष चिंतित हैं, उन सभी पर भारतीय सनातन धर्म में वैदिक काल से ही गंभीर चिन्तन, मनन किया जाता रहा है। भारतीय मनीषियों एवं विद्वानों ने मनुष्य की नित्य जीवन शैली एवं आचरण को इस प्रकार से चलायमान रखने की बात कही जिससे यह लक्ष्य जीवन के आरंभ काल से ही पूरे होते जाएँ तथा इसके लिए विशेष श्रम एवं धन की आवश्यकता ना हो। यूएनओ के सतत लक्ष्यों का मूल उद्देश्य भी ग़रीबी उन्मूलन, पृथ्वी जैसे सुंदर ग्रह का पूर्ण संरक्षण तथा मानव का उत्तरोत्तर विकास है, जो कि भारतीय संस्कृति के इस मंत्र में पौराणिक काल निहित है:

सर्वे भवंतु सुखिनः। 
सर्वे संतु निरामया॥
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु
माँ कश्चित दुःखभाग्भवेत॥

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इन विकास लक्ष्यों में सभी देशों को मानव कल्याण हेतु जो दिशा निर्देश दिए गए, जिसमें आर्थिक सम्पन्नता एवं प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण के लिए विभिन्न योजनाएँ कार्यान्वित हो रही हैं तथा जिससे विश्व में सभी लोगों को भरपेट भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा न्याय मिल सकेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति में प्रतिदिन पंचमहायज्ञ का विधान किया गया है:

  • ब्रह्म यज्ञ-अध्ययन, अध्यापन, पूजा ध्यान आदि

  • देव यज्ञ-हवन

  • पितृ यज्ञ-माता पिता की सेवा

  • अतिथि यज्ञ-निःस्वार्थ भाव से देश सेवा, समाज सेवा करने वालों की सेवा

  • बलिवैश्वदेव यज्ञ-प्रकृति के सभी प्राणीमात्र जैसे—गाय कुत्ता, चींटी, पेड़-पौधे आदि के भोजन-पानी की व्यवस्था करना 

यदि मानव मात्र सनातन धर्म में निर्धारित किए गए इन पंच महायज्ञ की दैनिक जीवन में अनुपालना सुनिश्चित करें तो सहज ही संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाएगी। पर्यावरण संरक्षण हेतु भी मत्स्य पुराण में उल्लिखित श्लोक दृष्टव्य है:

दशकूप सम वापी, दश वापी सम ह्रद, 
दशह्रद सम पुत्र, दश पुत्र सम द्रुम॥

अर्थात्‌ दस कुओं को खुदवाने जितना फल एक बाबड़ी में, दस बाबड़ियों को खुदवाने जितना फल एक तालाब में, दस तालाब खुदवाने जितना फल एक युगी पुत्र में और दस युगी पुत्रों के बराबर फल एक वृक्ष को तैयार करने में मिलता है। इस प्रकार वृक्षों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण की महत्ता की सनातन धर्मग्रंथों में विशिष्ट रूप से चर्चा है। वैज्ञानिक युग में भी पेड़ को ‘इको सिस्टम’ का आधार माना गया है। 

 उद्यमेन ही सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथै। 

श्लोक में स्पष्ट परिलक्षित है कि ग़रीबी उन्मूलन हेतु श्रम ही एकमात्र साधन है। 

निष्कर्षतः कहा जा सकता हैं कि भारतवर्ष महर्षि दधीचि, राजा शिवी, राजा रंतिदेव राजा दिलीप जैसे महापुरुषों की जन्मभूमि रही है; जिन्होंने औरों की सेवा हेतु अपने प्राणों तक की आहुति देने में ज़रा भी संकोच नहीं किया। यह इस भारतीय संस्कृति की ही देन है। आज विश्व के कई देश जैसे यूक्रेन, रूस, इज़राइल, फिलिस्तीन युद्ध की विभीषिका झेल रहे है। जिसका प्रभाव समस्त विश्व की अर्थव्यवस्था एवं समेकित विकास पर हो रहा है। विश्व के अधिकांश देश एकमत से इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि भारतीय संस्कृति मूल्य एवं जीवन पद्धति विश्व शान्ति का एकमात्र उपाय है। 

अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् 
परोपकाराय: पुण्याय, पापाय परपीडनम्

अर्थात्‌ महर्षि वेदव्यास 18 पुराणों के सार स्वरूप कहते हैं कि परोपकार ही सबसे बड़ा पुण्य तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना ही सबसे बड़ा पाप है। यही विचारधारा विश्वशान्ति की स्थापना के साथ-साथ सतत विकास के लक्ष्य को साकार करने में सक्षम है। 

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